मानहानि के मामलों में समन जारी करना यांत्रिक अभ्यास नहीं हो सकता, इसके लिए उचित सोच-विचार की आवश्यकता होती है: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट
Amir Ahmad
31 July 2024 2:52 PM IST
जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में आपराधिक शिकायतों, विशेष रूप से मानहानि से संबंधित मामलों में प्रक्रिया जारी करने से पहले विवेकपूर्ण तरीके से अपने दिमाग का उपयोग करने में मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया।
जस्टिस संजय धर ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट की जिम्मेदारी को केवल यांत्रिक अभ्यास तक सीमित नहीं किया जा सकता।
ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट की जिम्मेदारी पर प्रकाश डालते हुए अदालत ने टिप्पणी की,
"यह आकस्मिक या यांत्रिक अभ्यास नहीं हो सकता, विशेष रूप से मानहानि से संबंधित मामलों में। मानहानि के अपराध के आरोप लगाने वाली शिकायतों के मामले में रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री की जांच करने की मजिस्ट्रेट की जिम्मेदारी उच्च स्तर की है।"
इस मामले में याचिकाकर्ता मंजू भट शामिल थी, जिन्होंने अपने अलग हुए पति डॉ. अमित वांचू द्वारा दायर आपराधिक शिकायत को चुनौती दी थी, जिसमें रणबीर दंड संहिता के तहत मानहानि सहित कई अपराधों में उनकी संलिप्तता का आरोप लगाया गया।
डॉ. वांचू प्रमुख व्यवसायी और सामाजिक कार्यकर्ता ने दावा किया कि उनके वैवाहिक विवाद के बाद भट ने विभिन्न मीडिया आउटलेट के माध्यम से उनके खिलाफ़ मानहानि अभियान चलाया। शिकायत का समर्थन सोशल मीडिया पोस्ट, समाचार क्लिपिंग और अन्य संचार द्वारा किया गया, जिसे प्रतिवादी द्वारा मानहानिपूर्ण माना गया।
याचिकाकर्ता महाराष्ट्र निवासी है। उसने श्रीनगर न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि शिकायत में योग्यता की कमी है और यह प्रथम दृष्टया मामला स्थापित करने में विफल रही। उन्होंने तर्क दिया कि इसी तरह की शिकायत को पहले श्रीनगर के अन्य मजिस्ट्रेट ने खारिज कर दिया था, जिसमें चल रही तलाक की कार्यवाही के बीच शिकायतकर्ता के उत्पीड़न के दुर्भावनापूर्ण इरादे को उजागर किया गया।
प्रतिवादी ने दावा किया कि याचिकाकर्ता की मानहानिपूर्ण कार्रवाइयों ने व्यक्तिगत और पेशेवर रूप से काफी नुकसान पहुंचाया। उन्होंने आरोपों को पुष्ट करने के लिए सोशल मीडिया पोस्ट और संचार सहित प्रलेखित साक्ष्य प्रदान किए।
मामले पर निर्णय देते हुए जस्टिस धर ने कहा कि ट्रायल मजिस्ट्रेट द्वारा जारी प्रक्रिया केवल शिकायतकर्ता के प्रारंभिक बयान पर आधारित थी, अन्य गवाहों से पर्याप्त साक्ष्य के बिना।
पीठ ने दर्ज किया,
“हालांकि 26.03.2019 के आदेश में यह दर्ज है कि एक और गवाह का बयान दर्ज किया गया, लेकिन उक्त गवाह के बयान के अवलोकन से पता चलता है कि उसने केवल शिकायतकर्ता की पहचान की। शिकायत के गुण-दोष के बारे में कुछ नहीं कहा।”
यह देखते हुए कि आदेश में यह निर्दिष्ट करने में विफलता मिली कि याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रथम दृष्टया कौन से अपराध बनते हैं।
अदालत ने कहा,
“यह ध्यान देने योग्य है कि शिकायत में प्रतिवादी ने धारा 406, 500, 501, 506, 326/511 और 109 आरपीसी के तहत अपराध करने का आरोप लगाया है, लेकिन ट्रायल मजिस्ट्रेट ने यह नहीं बताया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ इनमें से कौन-सा अपराध बनता है। यह स्पष्ट रूप से ट्रायल मजिस्ट्रेट की यांत्रिक कार्यप्रणाली को दर्शाता है।”
सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ (2016) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए न्यायालय ने मानहानि के मामलों में मजिस्ट्रेटों की बढ़ी हुई जिम्मेदारी पर जोर दिया कि वे प्रक्रिया जारी करने से पहले अभियुक्त की कानूनी जिम्मेदारी का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करें।
पीठ ने रेखांकित किया,
"उपर्युक्त परिस्थितियों में याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रक्रिया जारी करने से पहले ट्रायल मजिस्ट्रेट के लिए शिकायत में लगाए गए आरोपों की सत्यता या असत्यता के संबंध में सीआरपीसी की धारा 202 के अनुसार जांच करना अधिक विवेकपूर्ण होता।"
इसके अलावा, न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा सीआरपीसी की धारा 204 की उप-धारा (1)(ए) का पालन न करने की ओर इशारा किया, जिसमें प्रावधान है कि अभियोजन पक्ष के गवाहों की सूची दाखिल किए जाने तक अभियुक्त के खिलाफ समन जारी नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने कहा,
“इस मामले मे अभियोजन पक्ष के गवाहों की ऐसी कोई सूची आरोपित शिकायत के साथ नहीं है।"
इन विचारों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने ट्रायल मजिस्ट्रेट का आदेश खारिज किया और सीआरपीसी की धारा 202 के तहत व्यापक जांच का निर्देश दिया। इसने ट्रायल कोर्ट को इसी आधार पर पहले खारिज की गई शिकायत के रिकॉर्ड की समीक्षा करने का भी निर्देश दिया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि नई शिकायत की स्थिरता की पूरी तरह से जांच की जाए।
केस टाइटल- मंजू भट्ट बनाम डॉ. अमित वांचू