एफआईआर-आधारित हिरासत आदेश में अभियुक्त को दी गई ज़मानत का उल्लेख न करना हिरासत को अवैध बनाता है: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट
Amir Ahmad
24 Jun 2024 12:57 PM IST
निवारक हिरासत आदेश (Preventive Detention Order) रद्द करते हुए जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने घोषणा की कि एक बार जब एफआईआर हिरासत आदेश पारित करने का मुख्य आधार बन जाती है तो उस एफआईआर के संबंध में दी गई ज़मानत का उल्लेख न करना हिरासत आदेश को अवैध बनाता है।
जस्टिस पुनीत गुप्ता की पीठ ने यह टिप्पणी कानून के स्थापित प्रस्ताव पर आधारित की है कि हिरासत आदेश पारित करते समय हिरासत प्राधिकारी को हिरासत आदेश में सभी प्रासंगिक सामग्री का खुलासा करना आवश्यक है, क्योंकि यह हिरासत आदेश पारित करते समय हिरासत प्राधिकारी की व्यक्तिपरक संतुष्टि को दर्शाता है।
पीठ ने रेखांकित किया,
"इसमें कोई संदेह नहीं कि हिरासत में लेने वाले अधिकारी की व्यक्तिपरक संतुष्टि की इस अदालत द्वारा अपील की अदालत के रूप में जांच नहीं की जानी चाहिए। साथ ही अदालत को वर्तमान कार्यवाही में हिरासत में लेने वाले अधिकारी की संतुष्टि की जांच करने से पूरी तरह से वंचित नहीं किया गया।"
अदालत ने ये टिप्पणियां कश्मीर निवासी मंजूर अहमद भट से जुड़े मामले में कीं, जिन्हें जुलाई 2023 में नारकोटिक ड्रग्स और साइकोट्रोपिक पदार्थों के अवैध व्यापार की रोकथाम अधिनियम (PITNDPS Act) के तहत अधिकारियों द्वारा हिरासत में लिया गया।
हिरासत आदेश में भट के खिलाफ दर्ज एफआईआर का हवाला दिया गया लेकिन इसमें यह उल्लेख नहीं किया गया कि हिरासत आदेश से कुछ सप्ताह पहले ही उन्हें उस मामले में जमानत दी गई थी। भट ने हिरासत आदेश को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि हिरासत आदेश में विवेक का अभाव था, यह अस्पष्ट आधारों पर आधारित था और याचिकाकर्ता को दी गई जमानत को स्वीकार करने में विफल रहा।
यह तर्क दिया गया कि इस तथ्य की चूक हिरासत अधिकारी द्वारा विवेक का उपयोग न करने को दर्शाती है और हिरासत को उचित ठहराने के लिए कोई ठोस सामग्री नहीं थी।
दूसरी ओर, मोहसिन कादिरी, सीनियर एएजी तथा नादिया अब्दुल्ला, एडवोकेट द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए प्रतिवादियों ने हिरासत आदेश का बचाव करते हुए कहा कि सभी कानूनी औपचारिकताओं का पालन किया गया। उन्होंने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता युवा मन को नशे की लत की ओर प्रभावित करने में शामिल था तथा सलाहकार बोर्ड ने उसकी हिरासत की पुष्टि की थी। प्रतिवादियों ने आगे कहा कि जमानत तथ्य की चूक ने हिरासत आदेश की वैधता को प्रभावित नहीं किया।
जस्टिस गुप्ता ने दोनों पक्षों को सुनने तथा हिरासत रिकॉर्ड की समीक्षा करने के पश्चात पाया कि हिरासत आदेश में याचिकाकर्ता को दी गई जमानत का उल्लेख न किया जाना महत्वपूर्ण है। हिरासत आदेश में एफआईआर का संदर्भ दिया गया लेकिन यह उल्लेख करने में विफल रहे कि याचिकाकर्ता को जमानत दी गई।
इस चूक को महत्वपूर्ण बताते हुए एफआईआर ही हिरासत आदेश का मुख्य आधार है, न्यायालय ने कहा,
“प्रतिवादी नंबर 2 को यह बताने से किसने रोका कि न्यायालय द्वारा याचिकाकर्ता को जमानत दी गई, यह न्यायालय को ज्ञात नहीं है। जमानत दिए जाने का तथ्य हिरासत आदेश में परिलक्षित होना ही था। जमानत आदेश का उल्लेख न किए जाने के उपरोक्त आधार पर हिरासत आदेश रद्द किया जाना आवश्यक है।
न्यायालय ने हिरासत के दौरान उपलब्ध कराई गई प्रासंगिक सामग्री की कमी के बारे में भट के तर्क में कोई दम नहीं पाया। हालांकि, इसने हिरासत आदेश के खिलाफ भट के अभ्यावेदन पर विचार करने में अधिकारियों द्वारा दो महीने से अधिक की अनुचित देरी की एक और प्रक्रियात्मक अनियमितता पर ध्यान दिया।
सरबजीत सिंह मोखा बनाम जिला मजिस्ट्रेट जबलपुर में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए जस्टिस गुप्ता ने हिरासत में लिए गए व्यक्ति के अपने अभ्यावेदन पर तुरंत विचार किए जाने के मौलिक अधिकार को दोहराया। न्यायालय ने भट के मामले में अधिकारियों द्वारा की गई देरी को इस अधिकार का उल्लंघन पाया।
इन टिप्पणियों के आलोक में न्यायालय ने भट के पक्ष में फैसला सुनाया हिरासत आदेश रद्द किया और उसकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया।
केस टाइटल- मंजूर अहमद भट बनाम यूटी ऑफ जेएंडके