सिख पहचान के लिए "सिंह" या "कौर" उपनाम अनिवार्य नहीं: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने गुरुद्वारा समिति चुनाव को चुनौती देने वाली याचिका खारिज की

Shahadat

16 Jan 2024 12:55 PM GMT

  • सिख पहचान के लिए सिंह या कौर उपनाम अनिवार्य नहीं: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने गुरुद्वारा समिति चुनाव को चुनौती देने वाली याचिका खारिज की

    जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सिख व्यक्ति के रूप में पहचाने जाने के लिए उपनाम के रूप में "सिंह" या "कौर" होना अनिवार्य नहीं है।

    पीठ अखनूर में जिला गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (डीजीपीसी) के चुनावों को इस आधार पर चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला दे रही थी कि कुछ गैर-सिख मतदाताओं को मतदाता सूची में जोड़ा गया। याचिकाकर्ता के इस तर्क का आधार यह था कि ऐसे मतदाताओं का उपनाम 'सिंह' या 'कौर' नहीं है।

    वैधानिक अपीलीय प्राधिकारी द्वारा उनकी याचिका अस्वीकार करने के बाद याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    जस्टिस वसीम सादिक नरगल ने जम्मू-कश्मीर सिख गुरुद्वारा और धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1973 का उल्लेख किया और कहा,

    “याचिकाकर्ता का तर्क, जो अपीलकर्ता/याचिकाकर्ता द्वारा अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष उठाया गया, 1973 के अधिनियम में निर्धारित परिभाषा के विपरीत है, जो स्वीकार्य नहीं है और कानून की नजर में टिकाऊ नहीं हो सकता। ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनके उपनाम में "सिख या कौर" नहीं है, लेकिन फिर भी उन्हें सिख के रूप में पहचाना जाता, क्योंकि वे सिख धर्म का प्रचार करते हैं।

    याचिकाकर्ता, जिसने अखनूर में डीजीपीसी चुनाव लड़ा और हार गया, उसने विभिन्न आधारों पर परिणामों को चुनौती दी। मुख्य तर्क यह है कि मतदाता सूची में गैर-सिखों के नाम है, जिनकी पहचान उनके उपनामों में "सिंह" या "कौर" न होने से की गई।

    उन्होंने तर्क दिया कि यह जम्मू एंड कश्मीर सिख गुरुद्वारा और धार्मिक बंदोबस्ती नियम, 1975 का उल्लंघन है, जो सिख को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है, जो दस गुरुओं और गुरु ग्रंथ साहिब में विश्वास करता है और केश (लंबे बाल) रखता है।

    याचिकाकर्ता ने आगे तर्क दिया कि मतदाता सूची में गैर-सिखों को शामिल करने से पूरी चुनाव प्रक्रिया खराब हो गई और उन्होंने डुप्लिकेट प्रविष्टियों और मृत मतदाताओं द्वारा कथित तौर पर वोट डालने के बारे में भी चिंता जताई।

    उठाए गए तर्कों पर विचार करने के बाद पीठ ने लागू नियमों की जांच की और पाया कि अपीलीय प्राधिकारी ने याचिकाकर्ता की दलीलों को 1973 के अधिनियम की धारा 2 (ई) और 2 (एफ) में निर्धारित परिभाषाओं के विरोधाभासी के रूप में सही ठहराया।

    इस तर्क को खारिज करते हुए कि सिख मान्यता के लिए उपनाम के रूप में "सिंह और कौर" होना अनिवार्य होना चाहिए, पीठ ने कहा कि ऐसा तर्क कानूनी परिभाषाओं के अनुरूप नहीं है।

    जस्टिस नरगल ने दर्ज किया,

    “ऐसे कई लोग हैं, जिनके उपनाम “सिख या कौर” नहीं हैं, लेकिन फिर भी उन्हें सिख के रूप में पहचाना जाता है, क्योंकि वे सिख धर्म का प्रचार करते हैं। मामले के इस पहलू पर अपीलीय प्राधिकारी द्वारा विस्तार से चर्चा की गई। यह न्यायालय अपीलीय प्राधिकारी द्वारा दर्ज किए गए निष्कर्षों से सहमत है और इसमें कोई कानूनी कमजोरी नहीं पाई गई।”

    अदालत ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता ने दावों और आपत्तियों के लिए निर्धारित अवधि के दौरान मतदाता सूची के संबंध में कोई आपत्ति नहीं उठाई। यह देखा गया कि संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने के बाद बाद के चरण में ऐसे मुद्दों को उठाने की अनुमति नहीं है।

    अदालत ने कहा,

    “यह अनोखा मामला है, जहां अपीलकर्ता अधिसूचित अवधि के दौरान दावे और आपत्तियां दाखिल करने और चुनाव में भाग लेने का मौका लेने में असफल रहा और बाद में असफल होने और बिना किसी आधार के कमज़ोर आधार पर झूठी याचिका दायर करके पलट गया।”

    तदनुसार, अदालत ने अपील को योग्यता और सारहीन बताते हुए खारिज करते हुए अपीलीय प्राधिकारी का आदेश बरकरार रखा।

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