भाइयों को पिता के बाद दूसरा स्थान दिया जाता है, बहनों के अधिकारों की रक्षा करना उनका कर्तव्य: गुजरात हाईकोर्ट का पैतृक संपत्ति के संबंध में जालसाजी का आरोप खारिज करने से इनकार
Shahadat
17 July 2024 12:17 PM IST
गुजरात हाईकोर्ट ने हाल ही में 81 वर्षीय व्यक्ति के खिलाफ दर्ज एफआईआर खारिज करने से इनकार किया। उक्त व्यकित पर उसकी बुजुर्ग बहन ने आरोप लगाया कि उसने 1975 से अपनी पैतृक संपत्ति पर नियंत्रण पाने के लिए उसके हस्ताक्षरों की जालसाजी की है।
जस्टिस डी ए जोशी ने भारत में भाइयों की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा,
"मैं पक्षकारों के बीच चल रही दीवानी कार्यवाही के बारे में जानता हूं और यह भी कि आवेदक अब लगभग 81 वर्ष की आयु का सीनियर सिटीजन है। लेकिन जो बात मुझे अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करने से रोकती है, वह यह है कि असहाय बेटी, अपने पिता की मृत्यु के बाद अपनी पैतृक संपत्ति पर अपने वैध अधिकारों के लिए लड़ रही है, जिसे कथित तौर पर उसके अपने भाई ने कुछ जाली और मनगढ़ंत दस्तावेज बनाकर वंचित कर दिया।"
जस्टिस जोशी ने जोर देते हुए कहा,
“हमारे देश में पिता की मृत्यु के बाद उनकी जगह लेने वाला एकमात्र व्यक्ति भाई ही होता है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। हमारी संस्कृति में भाइयों को पिता के बाद दूसरा स्थान दिया जाता है, इसलिए उन्हें बहनों को कुछ नहीं तो कम से कम उनके वैध अधिकार देने की प्रवृत्ति रखनी चाहिए।
यह फैसला दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत दायर आवेदन पर आया, जिसके तहत आवेदक ने न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करते हुए एफआईआर रद्द करने की मांग की, जो अब आईपीसी की धाराओं 465, 467, 471, 406, 420 और 114 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दर्ज की गई।
यह मामला शिकायतकर्ता और आवेदक, जो भाई-बहन हैं, उनके बीच पैतृक संपत्ति को लेकर विवाद से संबंधित है। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि आवेदक ने राजस्व अधिकारियों के समक्ष अपने भाई-बहनों के जाली हस्ताक्षर किए, जिसमें झूठा दावा किया गया कि उन्होंने 1975 से पहले अपने अधिकारों को त्याग दिया। इसने कथित तौर पर आवेदक को रिकॉर्ड पर एकमात्र मालिक बनने और नवंबर 2013 में संपत्ति को तीसरे पक्ष को बेचने की अनुमति दी।
रिकॉर्ड से उनके नाम हटाए जाने के बारे में सरकारी नोटिस मिलने पर बहन ने तुरंत दस्तावेज प्राप्त किए और उन्हें हस्तलेखन विशेषज्ञ द्वारा विश्लेषण कराया। विशेषज्ञ ने निर्धारित किया कि हस्ताक्षर जाली थे, जिसके कारण उसने अपने भाई के खिलाफ जालसाजी और अन्य अपराधों के लिए शिकायत दर्ज कराई।
आरोपी भाई ने 2015 में हाईकोर्ट में आपराधिक मामला लड़ा, लेकिन अदालत ने मामले के विवरण की समीक्षा करने के बाद अब एफआईआर खारिज करने से इनकार कर दिया।
न्यायालय के आदेश में सिविल और आपराधिक कार्यवाही की स्वतंत्रता पर जोर देते हुए कहा गया,
"सिविल कार्यवाही के लंबित रहने से आपराधिक कार्यवाही पर कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि दोनों ही पूरी तरह से अलग-अलग हैं और कार्यवाही के अलग-अलग रूप हैं, जिन्हें पूरी तरह से अलग-अलग न्यायालय में चलाया जाना है। इसलिए दोनों कार्यवाही एक साथ चल सकती हैं, चाहे परिणाम कुछ भी हो। इस प्रकार, शिकायत में लगाए गए आरोपों और रिकॉर्ड से प्राप्त तथ्यों पर विचार करते हुए मेरा विचार है कि जांच जारी रहनी चाहिए, जिससे सही और सटीक तथ्य रिकॉर्ड पर आ सकें।"
शिकायत दर्ज करने में 40 साल की देरी के बारे में बचाव पक्ष की दलील को संबोधित करते हुए न्यायालय ने कहा कि शिकायत में ही देरी के लिए उचित स्पष्टीकरण दिया गया।
अदालत ने कहा,
"प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत किया गया कि उसे वर्ष 2013 में इस तरह की धोखाधड़ी के बारे में पता चला और इसके बारे में पता चलने पर उसने सबसे पहले राजस्व प्राधिकरण से सभी विवादित दस्तावेज प्राप्त किए और फिर विशेषज्ञ की राय लेने के लिए इसे एफएसएल को भेजा। उसके बाद शिकायत दर्ज करने के लिए संबंधित पुलिस स्टेशन से संपर्क किया। हालांकि, चूंकि पुलिस ने शिकायतकर्ता के अनुरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया, इसलिए उसने मजिस्ट्रेट के समक्ष आपत्तिजनक शिकायत दर्ज कराई। इसलिए यह कहा जा सकता है कि यह प्रक्रियागत देरी थी और जानबूझकर नहीं की गई।"
अदालत ने हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम ज्ञान चंद (2001) 6 एससीसी 71 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि अभियोजन पक्ष की कहानी को केवल देरी के कारण अविश्वास नहीं किया जाना चाहिए।
परिणामस्वरूप, अदालत ने उपरोक्त आधारों पर आवेदन खारिज कर दिया।
केस टाइटल: कांतिलाल मगनलाल शाह और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य