जीवित जन्म लेने पर व्यवहार्य भ्रूण के अधिकारों के लिए कोई कानून नहीं, कानून निर्माताओं को इस मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए: दिल्ली हाईकोर्ट

Shahadat

13 Sept 2025 10:24 AM IST

  • जीवित जन्म लेने पर व्यवहार्य भ्रूण के अधिकारों के लिए कोई कानून नहीं, कानून निर्माताओं को इस मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि कानून को व्यवहार्यता के स्तर पर मातृ स्वायत्तता और भ्रूण के अधिकारों के बीच संतुलन को स्पष्ट रूप से रेखांकित करना चाहिए।

    जस्टिस अरुण मोंगा ने कहा कि वैधानिक सीमा से परे टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी करने के मामलों की बढ़ती संख्या के साथ भ्रूण की व्यवहार्यता का प्रश्न गर्भपात न्यायशास्त्र में काफी महत्वपूर्ण हो गया।

    अदालत ने कहा,

    "कानून को व्यवहार्यता के स्तर पर मातृ स्वायत्तता और भ्रूण के अधिकारों के बीच संतुलन को स्पष्ट रूप से रेखांकित करना चाहिए। निस्संदेह, जब तक ऐसी स्पष्टता प्रदान नहीं की जाती, अदालतें इस नाजुक रास्ते पर चलती रहेंगी। हालांकि, इस मामले को निपटाने की अंतिम जिम्मेदारी कानून बनाने वाले प्राधिकार की। अब समय आ गया है कि देश के कानून निर्माता इस प्रश्न का स्पष्ट रूप से समाधान करें।"

    इसमें आगे कहा गया कि राज्य किसी महिला को केवल अजन्मे जीवन की रक्षा के लिए शारीरिक या मानसिक आघात सहने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। साथ ही ऐसी कोई भी बाध्यता वास्तव में उसके मौलिक अधिकारों को निरर्थक और कठोर जैविक मानदंडों के अधीन कर देगी।

    आगे कहा गया,

    “इस प्रकार के मामलों में, जैसा कि वर्तमान में है, इस न्यायालय ने लगातार विधिवत गठित मेडिकल बोर्डों की सिफारिशों पर भरोसा किया। खासकर तब जब प्रेग्नेंसी चौबीस सप्ताह की अवधि पार कर चुकी हो। महिला के जीवन और स्वास्थ्य के लिए जोखिमों का आकलन करने और भ्रूण संबंधी असामान्यताओं, चाहे वे घातक हों या अन्य, की गंभीरता का निर्धारण करने में इन विशेषज्ञ निकायों की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। उनकी राय ने न्यायिक विवेक के लिए आवश्यक मेडिकल आधार प्रदान किया, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया वैधानिक चुप्पी से बाधित होने के बजाय विशेषज्ञता से प्रेरित हो।”

    जज ने आगे कहा कि जहां महिला का जीवन या स्वास्थ्य खतरे में है, वहां उसके अधिकार सर्वोपरि हैं।

    अदालत ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जहां भ्रूण गंभीर या जीवन-असंगत असामान्यताओं से ग्रस्त है, वहां अदालतों ने अट्ठाईस या बत्तीस हफ़्तों तक भी टर्मिनेशन की अनुमति दी। अदालत ने आगे कहा कि जहां भ्रूण जीवित और स्वस्थ है, और गैर-मेडिकल आधार पर टर्मिनेशन की मांग की गई, वहां अदालतों ने स्वतंत्र रूप से जीवित रहने में सक्षम भ्रूण के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए राहत देने से इनकार किया है।

    अदालत ने कहा,

    “हालांकि, इस मोड़ पर एक बड़ा सवाल उठता है कि जीवित भ्रूण के अधिकारों के संबंध में कानून की क्या स्थिति है, जो जन्म लेने पर जीवित पैदा हो सकता है? इस मुद्दे पर ध्यान देने की आवश्यकता है। संवैधानिक अदालतों ने विधायी स्पष्टता के अभाव में मामले-विशिष्ट न्यायनिर्णयन के माध्यम से प्रतिस्पर्धी हितों को संतुलित करने का प्रयास किया। हालांकि, स्पष्ट वैधानिक ढांचे के अभाव में यह मामला अनसुलझा है।”

    जस्टिस मोंगा ने ये टिप्पणियां एक 15 वर्षीय नाबालिग लड़की को 27 हफ़्तों की प्रेग्नेंसी की मेडिकल टर्मिनेशन कराने की अनुमति देते हुए कीं, जो उसके साथ हुए यौन उत्पीड़न का परिणाम था।

    अदालत ने कहा कि पीड़िता, जिसने पहले ही अपराधियों के हाथों क्रूरता झेली है, उसका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य, भ्रूण के जीवित जन्म लेने की संभावना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए, जिसे स्वयं मेडिकल एक्सपर्ट विशेषज्ञों ने अनिश्चित बताया था।

    अदालत ने कहा,

    "याचिकाकर्ता की उम्र और यौन उत्पीड़न के जघन्य कृत्य से उसे हुए मानसिक और शारीरिक आघात को देखते हुए यह न्यायालय इस राय का है कि प्रेग्नेंसी जारी रहने से उसकी मानसिकता पर स्थायी रूप से आघात पहुंचेगा और उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर और अपूरणीय क्षति होगी।"

    इसने स्पष्ट किया कि प्रक्रिया के दौरान, यदि उपस्थित डॉक्टरों को लगता है कि नाबालिग लड़की के जीवन को गंभीर खतरा है तो उनके पास टर्मिनेशन प्रक्रिया को रोकने या रद्द करने का पूर्ण विवेकाधिकार होगा।

    अदालत ने अस्पताल को DNA टेस्ट के लिए भ्रूण को संरक्षित करने का भी निर्देश दिया, क्योंकि लंबित आपराधिक कार्यवाही के संबंध में इसकी आवश्यकता हो सकती है।

    इसमें कहा गया कि यदि बच्चा जीवित पैदा होता है तो अस्पताल अधीक्षक यह सुनिश्चित करेंगे कि बच्चे को हर संभव और व्यवहार्य मेडिकल सहायता प्रदान की जाए। साथ ही संबंधित बाल कल्याण समिति कानून के अनुसार आवश्यक कदम उठाएगी। इसमें आगे कहा गया कि प्रक्रिया का खर्च, यदि कोई हो, राज्य द्वारा वहन किया जाएगा।

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