निर्यात निरीक्षण कर्मचारी नियम 1978 के तहत सेवानिवृत्त अधिकारी को लोक सेवक नहीं कहा जा सकता: दिल्ली हाइकोर्ट

Amir Ahmad

4 April 2024 8:19 AM GMT

  • निर्यात निरीक्षण कर्मचारी नियम 1978 के तहत सेवानिवृत्त अधिकारी को लोक सेवक नहीं कहा जा सकता: दिल्ली हाइकोर्ट

    जस्टिस तुषार राव गेडेला की दिल्ली हाइकोर्ट की सिंगल जज पीठ ने परवीन कुमार बनाम निर्यात निरीक्षण परिषद एवं अन्य के मामले में सिविल रिट याचिका पर निर्णय लेते हुए माना कि जांच अधिकारी के रूप में नियुक्त सेवानिवृत्त अधिकारी निर्यात निरीक्षण कर्मचारी (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील) नियम, 1978 (ईआईए नियम) के नियम 11(2) के तहत लोक सेवक के मानदंडों को पूरा नहीं करता।

    मामले की पृष्ठभूमि

    परवीन कुमार (याचिकाकर्ता) निर्यात निरीक्षण परिषद (प्रतिवादी) के कार्यालय के तहत निर्यात निरीक्षण एजेंसी में तकनीकी अधिकारी के रूप में काम कर रहे थे। वर्ष 2013 में याचिकाकर्ता को उप-कार्यालय (SO), कानपुर में कार्यभार संभालने के लिए जाने का निर्देश दिया गया, लेकिन याचिकाकर्ता ने SO कानपुर में उसे दौरे पर न भेजने का अनुरोध किया। इसे अस्वीकार कर दिया गया और याचिकाकर्ता को EIA दिल्ली मुख्यालय से कार्यमुक्त कर दिया गया।

    वर्ष 2014 में प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता को अगले आदेश तक SO कानपुर में दौरे पर भेजने का निर्देश दिया। हालांकि याचिकाकर्ता उचित दौरा कार्यक्रम प्रस्तुत करने में असमर्थ रहा, जिसके कारण प्रतिनियुक्ति के आदेश की अवज्ञा का आरोप लगाते हुए याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप ज्ञापन जारी किया गया।

    याचिकाकर्ता के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच शुरू की गई, जिसमें उसने EIA नियमों के नियम 11 के उल्लंघन में सेवानिवृत्त लोक सेवक होने के नाते अयोग्य व्यक्ति की जांच अधिकारी के रूप में अवैध नियुक्ति के खिलाफ अभ्यावेदन किया।

    उक्त अभ्यावेदन को प्रतिवादी ने अस्वीकार कर दिया। अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने याचिकाकर्ता के खिलाफ तकनीकी अधिकारी से जूनियर वैज्ञानिक सहायक के निचले पद पर पदावनत करने का दंडात्मक आदेश पारित किया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने एक वैधानिक अपील दायर की जिसे अपीलीय प्राधिकारी ने खारिज कर दिया।

    इससे व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने अनुशासनात्मक प्राधिकारी और अपीलीय प्राधिकारी के विवादित आदेशों को चुनौती देते हुए वर्तमान सिविल रिट याचिका दायर की। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी का आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और ईआईए नियमों का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह EIA नियमों के नियम 11 (2) के विपरीत है। नियम 11 (2) जांच अधिकारी को लोक सेवक होने का निर्देश देता है, लेकिन वर्तमान मामले में जांच अधिकारी सेवानिवृत्त कर्मचारी है और सक्रिय ड्यूटी पर नहीं था। इस प्रकार सेवानिवृत्त कर्मचारियों को लोक सेवक नहीं कहा जा सकता।

    यह भी तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता को विवादित आदेश पारित करने से पहले अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया। ईआईए नियमों के नियम 11 (4) के अनुसार बचाव का लिखित बयान प्रस्तुत करने के बाद यदि आरोपित अधिकारी सुनवाई चाहता है तो अनुशासनात्मक प्राधिकारी को अंतिम आदेश पारित करने से पहले ऐसी सुनवाई प्रदान करनी चाहिए। हालांकि याचिकाकर्ता को कभी भी व्यक्तिगत सुनवाई की अनुमति नहीं दी गई जबकि उसने इसकी मांग की।

    दूसरी ओर प्रतिवादी द्वारा यह तर्क दिया गया कि सेवानिवृत्त अधिकारी भी लोक सेवक बने रहेंगे। इस प्रकार जांच अधिकारी की नियुक्ति EIA नियमों के अनुसार की गई। जांच अधिकारी को याचिकाकर्ता के खिलाफ जांच करने के उद्देश्य से पारिश्रमिक का भुगतान किया गया, जो लोक सेवक है और अनुशासनात्मक कार्यवाही स्वयं प्रतिवादी के सार्वजनिक कर्तव्य के अंतर्गत आती है।

    इसने आगे प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता द्वारा बचाव कथन में अधिकारियों और प्राधिकारियों के अलावा आरोप लगाने के अलावा कोई बचाव नहीं किया गया। इस प्रकार यदि व्यक्तिगत सुनवाई की अनुमति दी गई होती तो याचिकाकर्ता केवल निराधार आरोपों का सिलसिला जारी रखता।

    न्यायालय के निष्कर्ष

    न्यायालय ने देखा कि EIA नियमों के नियम 11(2) की स्पष्ट भाषा यह दर्शाती है कि जांच अधिकारी जनता का सेवक होना चाहिए, न कि ऐसा व्यक्ति, जो जनता का सेवक है। इस प्रकार नियुक्त किए गए जांच अधिकारी, जो प्रतिवादी के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं, उन्होंने 'लोक सेवक' के मानदंडों को पूरा नहीं किया। इस प्रकार, उक्त नियुक्ति ईआईए नियमों के नियम 11 (2) का उल्लंघन है।

    अदालत ने आगे कहा कि व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर केवल औपचारिकता नहीं है। यह न केवल अनुशासनात्मक कार्यवाही के साथ बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के साथ भी अंतर्निहित और अंतर्निहित है। अदालत ने योगीनाथ डी. बागड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना कि व्यक्तिगत सुनवाई का अधिकार अमिट अधिकार है। इसे आरोपी अधिकारी को प्रदान किया जाना चाहिए। यह कर्मचारी का संवैधानिक अधिकार है, जिसे भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 309 के तहत बनाए गए नियमों सहित किसी भी विधायी अधिनियम या सेवा नियम द्वारा नहीं छीना जा सकता है।

    उपर्युक्त टिप्पणियों के साथ सिविल रिट याचिका आंशिक रूप से अनुमति दी गई और मामले को अनुशासनात्मक प्राधिकारी को वापस भेज दिया गया।

    केस टाइटल- परवीन कुमार बनाम एक्सपोर्ट इंस्पेक्शन काउंसिल एवं अन्य

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