एकल अभिभावक की देखभाल क्षमता को लैंगिक नजरिए से आंकना अनुचित: दिल्ली हाईकोर्ट
Amir Ahmad
22 Dec 2025 12:44 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट के समक्ष लंबित मामलों का निपटारा करते समय किसी एकल अभिभावक की देखभाल संबंधी जिम्मेदारियों और चुनौतियों का आकलन लैंगिक दृष्टिकोण से करना न तो उचित है और न ही कानूनी रूप से स्वीकार्य। अदालत ने स्पष्ट किया कि बच्चे की देखभाल की भूमिका चाहे मां निभाए या पिता उससे जुड़ी भावनात्मक, मानसिक और भौतिक जिम्मेदारियां समान होती हैं और केवल इस आधार पर कि देखभालकर्ता पिता है उसके प्रयासों को कमतर नहीं आंका जा सकता।
जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने यह टिप्पणी ऐसे मामले में की, जिसमें पति ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसे पत्नी को 12,000 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण (एड-इंटरिम मेंटेनेंस) देने का निर्देश दिया गया, जबकि वह पहले से ही सरकारी आवास से जुड़े खर्चों का भुगतान कर रहा है।
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि वह इस सामाजिक वास्तविकता से भी भली-भांति अवगत है कि एकल मां और एकल पिता को समान परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ता। कई मामलों में, विशेष रूप से भारतीय समाज में, एकल मां को अपने मायके में लौटने या वहां सहज रूप से रहने में कठिनाई हो सकती है, जबकि पिता अपने पैतृक घर में रहते हुए अपेक्षाकृत कम सामाजिक बाधाओं का सामना करता है। हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि इन भिन्नताओं के आधार पर यह मान लेना कि एकल पिता को कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, एक यांत्रिक और गलत दृष्टिकोण होगा।
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि प्रत्येक मामले का निर्णय उसके अपने तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए और उस माता या पिता के वास्तविक प्रयासों को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए, जो अकेले ही नाबालिग बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी उठा रहा हो।
जस्टिस शर्मा ने यह भी रेखांकित किया कि भारत में एकल पिता को चाइल्ड केयर लीव का अधिकार नहीं है, जबकि मां को, चाहे वह एकल हो या नहीं यह सुविधा उपलब्ध है। ऐसे में एक कामकाजी एकल पिता के सामने बच्चों की भावनात्मक और मानसिक जरूरतों की देखभाल के साथ-साथ घर चलाने और अपने करियर को प्रभावित हुए बिना जिम्मेदारियां निभाने की अतिरिक्त चुनौती होती है।
मामले के तथ्यों के अनुसार पति दिल्ली पुलिस में हेड कांस्टेबल के पद पर कार्यरत है और उसे सरकारी आवास आवंटित है, जिसमें पत्नी रह रही है। पति का आरोप है कि उसे दो नाबालिग बच्चों के साथ वह सरकारी आवास खाली करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसके बाद वह अपनी वृद्ध मां और बच्चों के साथ पैतृक घर में रहने लगा। इसके बावजूद, उसके वेतन से मकान किराया भत्ता (HRA) और पानी के शुल्क की कटौती जारी रही।
सितंबर, 2022 में पत्नी ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग करते हुए कार्यवाही शुरू की थी। वर्ष 2023 में फैमिली कोर्ट ने पति को 12,000 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण देने का निर्देश दिया। बाद में फैमिली कोर्ट ने यह कहते हुए अपने आदेश को दोहराया कि HRA की कटौती को भरण-पोषण का भुगतान नहीं माना जा सकता और पति ने मेंटेनेंस आदेश का पालन नहीं किया।
इस आदेश को चुनौती देते हुए पति ने हाईकोर्ट का रुख किया। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि जब तक पत्नी उस सरकारी आवास में रह रही है, जो पति को आवंटित था तब तक उससे जुड़े वित्तीय कटौती को भरण-पोषण की राशि तय करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए। अदालत ने माना कि फैमिली कोर्ट ने HRA और पानी के शुल्क की कटौती को नजरअंदाज कर गलती की और अंतरिम भरण-पोषण के घटकों और दायरे को स्पष्ट नहीं किया।
इन निष्कर्षों के साथ हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट का आदेश रद्द करते हुए मामले को पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया। अदालत ने निर्देश दिया कि दोनों पक्षों को अद्यतन आय-शपथपत्र और सहायक दस्तावेज रिकॉर्ड पर रखने का अवसर दिया जाए, जिसके बाद कानून के अनुसार नए सिरे से निर्णय किया जाए।

