प्रथम दृष्टया यह संसद का क्षेत्राधिकार: दिल्ली हाईकोर्ट ने ट्रांसजेंडर महिलाओं के खिलाफ़ बलात्कार को अपराध बनाने की मांग वाली याचिका पर नोटिस जारी किया

Amir Ahmad

8 Oct 2025 5:27 PM IST

  • प्रथम दृष्टया यह संसद का क्षेत्राधिकार: दिल्ली हाईकोर्ट ने ट्रांसजेंडर महिलाओं के खिलाफ़ बलात्कार को अपराध बनाने की मांग वाली याचिका पर नोटिस जारी किया

    दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के तहत महिलाओं और बच्चों के खिलाफ़ यौन अपराधों से संबंधित अध्याय में ट्रांसजेंडर महिलाओं और ट्रांसजेंडर बच्चों को पीड़ितों के रूप में शामिल करने की मांग वाली याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया।

    चीफ जस्टिस डी.के. उपाध्याय और जस्टिस तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा और मामले को दिसंबर में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया।

    कोर्ट ने सीनियर एडवोकेट एन. हरिहरन को मामले में न्याय मित्र (Amicus Curiae) के रूप में भी नियुक्त किया।

    यह जनहित याचिका (PIL) डॉ. चंद्रेश जैन द्वारा स्वयं दायर की गई थी। याचिका मुख्य रूप से ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिकारों का संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 18 के तहत निर्धारित विभिन्न दंडात्मक प्रावधानों से संबंधित है। यह प्रावधान ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ़ अपराधों के लिए सज़ा को कम से कम छह महीने से लेकर दो साल तक के कारावास और ज़ुर्माने के रूप में निर्धारित करता है।

    याचिकाकर्ता जैन ने कोर्ट से BNS के अध्याय 5 (जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ़ अपराधों से संबंधित है) के प्रावधानों की व्याख्या इस प्रकार करने का आग्रह किया कि इसमें ट्रांसजेंडर महिलाओं और ट्रांसजेंडर बच्चों को भी शामिल किया जा सके।

    याचिका में सुप्रीम कोर्ट के NALSA फैसले के जनादेश के अनुसार ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को प्रदान किए जाने वाले कल्याणकारी उपायों से जुड़े अन्य मुद्दे भी उठाए गए।

    कोर्ट की प्रारंभिक राय: विधायी क्षेत्र का मामला

    सुनवाई के दौरान पीठ ने अपनी प्रथम दृष्टया (Prima Facie) राय व्यक्त की कि यह मुद्दा विधायी और नीति-निर्माण के क्षेत्र में आता है, क्योंकि न्यायिक हस्तक्षेप कानून को फिर से लिखने जैसा होगा।

    चीफ जस्टिस उपाध्याय ने याचिकाकर्ता से पूछा,

    "कोई सोचता है कि किसी विशेष प्रकृति के अपराध में सज़ा आजीवन कारावास या मौत होनी चाहिए, ऐसे मुद्दे अदालतों के न्यायिक निर्णय का विषय नहीं हो सकते। यह विधायिका पर निर्भर करता है। यह विधायी क्षेत्र में आता है। आप कहते हैं कि धारा 18 के तहत अपराध और उसमें निर्धारित सज़ा पर्याप्त नहीं है। यह पर्याप्त है या नहीं क्या यह अदालतों के न्यायिक निर्णय का विषय हो सकता है?"

    जज ने आगे कहा,

    "आप हमसे कानून बनाने के लिए कह रहे हैं। यह किसे करना है। हम किसी ऐसी चीज़ की व्याख्या नहीं कर सकते, जो वहां बिल्कुल भी मौजूद नहीं है।"

    कोर्ट ने टिप्पणी की कि वह यह नहीं कह रहा है कि जैन ने कोई वैध मुद्दा नहीं उठाया है लेकिन इस मामले का निवारण न्यायपालिका द्वारा नहीं बल्कि किसी अन्य मंच पर होना चाहिए।

    पीठ ने न्याय मित्र हरिहरन से पूछा कि 2019 अधिनियम के लागू होने से पहले क्या स्थिति थी। कोर्ट ने हरिहरन को समझाते हुए कहा कि चूंकि BNS में यौन अपराध केवल महिलाओं के खिलाफ़ परिभाषित हैं न कि ट्रांसजेंडर महिलाओं के खिलाफ़ इसलिए यह मुद्दा है कि क्या BNS के अध्याय 5 के तहत ऐसा कोई अपराध ट्रांसजेंडर महिलाओं और बच्चों के खिलाफ़ आएगा या नहीं।

    कोर्ट ने कहा कि परिभाषा खंड में विधायी परिवर्तन की आवश्यकता है, क्योंकि किसी व्यक्ति को केवल उसी अपराध के लिए दंडित किया जा सकता है जिसे कानून द्वारा परिभाषित किया गया हो।

    पीठ ने कहा कि प्रथम दृष्टया व्याख्या संभव नहीं होगी। कोर्ट ने याद दिलाया कि IPC की धारा 376 की व्याख्या में भी ट्रांसजेंडर महिलाओं को शामिल नहीं किया गया था और यह अंततः विधायिका पर छोड़ दिया गया।

    कोर्ट ने कहा,

    "यदि हम महसूस करते हैं कि हां धारा 63 के तहत इन अपराधों में ट्रांसजेंडर महिलाओं और बच्चों को पीड़ितों के रूप में शामिल किया जाना चाहिए तो यह निर्णय विधायिका द्वारा लिया जाना है। हालांकि मामले में शामिल मुद्दे की प्रकृति को देखते हुए कोर्ट ने हरिहरन को न्याय मित्र नियुक्त किया और उनसे सहायता प्रदान करने को कहा।

    मामले की अगली सुनवाई दिसंबर में होगी।

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