आपसी सहमति से तलाक की पहली अर्जी के लिए एक वर्ष की अलगाव अवधि अनिवार्य नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट
Praveen Mishra
17 Dec 2025 6:57 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने अहम फैसला देते हुए कहा है कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13B(1) के तहत आपसी सहमति से तलाक की पहली अर्जी दाखिल करने से पहले आवश्यक एक वर्ष की अलगाव अवधि अनिवार्य नहीं है और इसे माफ (वेवर) किया जा सकता है।
जस्टिस नवीन चावला, जस्टिस अनुप जयराम भंभानी और जस्टिस रेणु भटनागर की पूर्ण खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि इस अवधि को अधिनियम की धारा 14(1) के प्रावधान (प्रोवाइजो) को लागू करते हुए माफ किया जा सकता है।
अदालत ने यह भी कहा कि एक वर्ष की अलगाव अवधि की माफी से धारा 13B(2) के तहत दूसरी अर्जी दाखिल करने के लिए निर्धारित छह महीने की 'कूलिंग-ऑफ' अवधि की माफी पर कोई रोक नहीं लगती। दोनों अवधियों की माफी पर अलग-अलग और स्वतंत्र रूप से विचार किया जाना चाहिए।
अदालत ने कहा,
“जहां अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि धारा 13B(1) के तहत 01 वर्ष की अवधि और धारा 13B(2) के तहत 06 माह की अवधि को माफ किया जाना उचित है, वहां अदालत कानूनन तलाक की डिक्री के प्रभावी होने की तारीख को टालने के लिए बाध्य नहीं है और ऐसी डिक्री तत्काल प्रभाव से पारित की जा सकती है।”
हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एक वर्ष की अवधि की माफी केवल मांग करने मात्र से नहीं दी जा सकती, बल्कि तभी दी जाएगी जब अदालत को यह संतोष हो कि याचिकाकर्ता को “असाधारण कठिनाई” हो रही है या प्रतिवादी की ओर से “असाधारण दुराचार” के हालात मौजूद हैं।
कोर्ट ने यह भी कहा कि इस प्रकार की माफी फैमिली कोर्ट और हाईकोर्ट, दोनों द्वारा दी जा सकती है।
अदालत ने आगे कहा कि यदि धारा 14(1) के प्रावधान के तहत यह पाया जाता है कि धारा 13B(1) के अंतर्गत एक वर्ष की अवधि की माफी गलत प्रस्तुति या तथ्यों के दमन के आधार पर प्राप्त की गई है, तो अदालत तलाक के प्रभावी होने की तारीख को उपयुक्त रूप से आगे बढ़ा सकती है या किसी भी चरण में लंबित तलाक याचिका को खारिज कर सकती है। हालांकि, ऐसी स्थिति में पक्षकारों को एक वर्ष की अवधि पूरी होने के बाद, उन्हीं या लगभग समान तथ्यों के आधार पर नई याचिका दाखिल करने का अधिकार रहेगा।
यह फैसला एक डिवीजन बेंच द्वारा भेजे गए संदर्भ पर सुनाया गया, जो आपसी सहमति से तलाक की याचिका प्रस्तुत करने की समय-सीमा से संबंधित था। पूर्ण पीठ ने यह भी कहा कि पहले विभिन्न एकल पीठों द्वारा अपनाया गया यह दृष्टिकोण कि धारा 13B अपने आप में एक संपूर्ण कोड है और धारा 14(1) का प्रावधान उस पर लागू नहीं होता, सही नहीं है।
अदालत ने कहा,
“हमारी राय में, धारा 14(1) के प्रावधान में निहित प्रक्रियात्मक ढांचे को धारा 13B(1) के संदर्भ में लागू किया जा सकता है और उपयुक्त मामलों में इसका सहारा लेकर पहली अर्जी स्वीकार की जा सकती है, ताकि पक्षकारों को एक स्पष्ट रूप से अव्यवहारिक वैवाहिक संबंध में फंसे रहने से बचाया जा सके।”
कोर्ट ने आगे कहा कि जब आपसी सहमति से तलाक की याचिका दाखिल की जाती है और पक्षकार यह कहते हैं कि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग रह रहे हैं, तो इस अवधि के सत्यापन का प्रश्न केवल तभी उठता है जब विवाह को हुए स्वयं एक वर्ष से कम समय हुआ हो। अन्य सभी मामलों में पक्षकारों का सहमति से किया गया कथन धारा 13B(1) की शर्तों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है और उस पर संदेह नहीं किया जा सकता।
अदालत ने अंत में कहा कि यद्यपि विवाह संस्था की पवित्रता, स्थिरता और गरिमा का सामाजिक व सांस्कृतिक महत्व है, लेकिन जब पति-पत्नी दोनों इस बात पर सहमत हों कि विवाह को समाप्त किया जाना चाहिए, तब टूटे हुए रिश्ते को जबरन बचाने का प्रयास, प्रभावित दंपति की स्वायत्तता और गरिमा की कीमत पर केवल बाहरी सामाजिक दिखावे को प्राथमिकता देना होगा।

