दिल्ली हाईकोर्ट ने 32 वर्षों के बाद यमुना नदी से सटी भूमि के अधिग्रहण के लिए मुआवज़ा बढ़ाया
Shahadat
24 Oct 2025 7:16 PM IST

दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी के बाढ़-प्रवण किलोकरी, नंगली रजापुर, खिजराबाद और गढ़ी मेंडू क्षेत्रों के लिए देय भूमि अधिग्रहण मुआवज़े में वृद्धि की।
ऐसा करते हुए जस्टिस तारा वितस्ता गंजू ने अपने 171 पृष्ठों के आदेश में कहा कि इन क्षेत्रों की क्षमता का आकलन वास्तविक उपयोग के आधार पर नहीं, बल्कि निकट भविष्य में इनके उपयोग के आधार पर किया जाना चाहिए।
बता दें, केंद्र सरकार यमुना नदी के तटीकरण के लिए भूमि अधिग्रहण करना चाहती थी। इस संबंध में भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के तहत 1989 में एक अधिसूचना जारी की गई। 1992-93 के बीच निर्णय पारित किए गए।
भूमि मालिकों ने तीन मुख्य तर्कों के आधार पर निर्णय को चुनौती दी:
(i) भूमि का स्थान और उसकी क्षमता - यह तर्क दिया गया कि भूमि जसोला, महारानी बाग जैसी पॉश कॉलोनियों से सटी हुई।
(ii) उदाहरणों पर विचार नहीं किया गया।
(iii) भूमि 'सैलाबी' होने के कारण उसमें अधिक संभाव्यता नहीं हो सकती, यह सही विश्लेषण नहीं है - कुछ भूमि पर कृषि गतिविधियों को दर्शाने वाले साक्ष्य रिकॉर्ड में प्रस्तुत किए गए।
भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अंतर्गत संदर्भ न्यायालय ने मुआवज़ा बढ़ाकर 89,600 रुपये कर दिया। 'कम मूल्यांकन' से असंतुष्ट होकर, भूस्वामियों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सरकार ने तर्क दिया कि संबंधित भूमि "फॉरवर्ड बंड" क्षेत्र में स्थित है और बाढ़ की आशंका रहती है, इसलिए इसका उपयोग न तो कृषि के लिए और न ही भवन निर्माण के लिए किया जा सकता है।
हाईकोर्ट ने 2006 की स्थल निरीक्षण रिपोर्ट का हवाला देते हुए इस तर्क को खारिज कर दिया, जिसके अनुसार बाढ़ कभी-कभार ही आती है।
कोर्ट ने कहा,
"प्रतिवादियों द्वारा ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया कि अधिग्रहित भूमि बार-बार जलमग्न हो जाती है/रहती है...भारी बारिश के दौरान दिल्ली के किसी भी हिस्से में जलभराव की मात्रा को देखते हुए यह पहलू भी कमजोर पड़ जाएगा।"
कोर्ट ने यह भी कहा कि संभाव्यता को वास्तविक उपयोग के संदर्भ में नहीं, बल्कि निकट भविष्य में इसके उपयोग के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
कोर्ट ने आगे कहा,
प्रतिवादियों ने विकसित/पॉश कॉलोनियों से निकटता से इनकार नहीं किया, बल्कि वास्तव में इसे स्वीकार किया। किसी भी स्थिति में और दिल्ली जैसे निरंतर विस्तारशील शहर के संदर्भ में, इतिहास गवाह है कि जहां एक बार किसी विशेष क्षेत्र में विकास होता है, उसका आमतौर पर आसपास के क्षेत्रों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। विकास एक रातोंरात होने वाली प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक क्रमिक प्रक्रिया है। अधिग्रहित भूमि से सटे क्षेत्रों में विकास की उपस्थिति संभाव्यता के अच्छे मानदंड हैं।"
इसके बाद कोर्ट ने लोकेशन प्लान का उल्लेख किया, जो विचाराधीन भूमि की जसोला और बहलोलपुर खादर से निकटता दर्शाता है, जहां अधिग्रहण के लिए क्रमशः लगभग 4,948 रुपये प्रति वर्ग गज और 2.5 लाख रुपये प्रति बीघा की दर से दर निर्धारित की गई।
कोर्ट ने कहा,
"ये गांव यमुना नदी से भी सटे हुए हैं।"
इसने भारत संघ बनाम बलराम एवं अन्य (2010) के मामले पर भी भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि एक ही उद्देश्य के लिए अधिग्रहित विभिन्न गांवों के अंतर्गत आने वाली भूमि और उनकी प्रकृति व गुणवत्ता कुल मिलाकर समान होने पर विचार करते हुए विभिन्न गांवों में स्थित भूमि के बीच कोई अंतर करने का कोई औचित्य नहीं है।
अदालत ने कहा,
"अनिवार्य अधिग्रहण के मामलों में सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि जिन ग्रामीणों की भूमि अधिग्रहित की जाती है, वे स्वेच्छा से पक्ष नहीं होते, बल्कि वे पक्ष होते हैं, जिन्हें सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अपनी भूमि राज्य को बेचने के लिए मजबूर किया जाता है। इस प्रकार, समान क्षेत्रों में समान मुआवज़ा न देने से भूमि स्वामियों के बीच भेदभाव होगा।"
उसने सरकार के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि भूमि जलमग्न या 'सैलाबी' प्रकृति की है। उसने अभिलेखों में प्रस्तुत सामग्री का हवाला दिया, जो दर्शाती है कि भूमि का उपयोग कृषि उद्देश्यों के लिए किया जा रहा था।
इस प्रकार, कोर्ट ने चारों क्षेत्रों के लिए देय मुआवज़ा बढ़ाकर 2,07,500 रुपये प्रति बीघा कर दिया।
Case title: Bed Ram v. UoI & Anr. (and batch)

