भारतीय संस्कृति में लिव-इन रिलेशन एक 'कलंक'; वैवाहिक कर्तव्यों के प्रति उदासीनता ने इस अवधारणा को जन्म दिया: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

7 May 2024 11:12 AM GMT

  • भारतीय संस्कृति में लिव-इन रिलेशन एक कलंक; वैवाहिक कर्तव्यों के प्रति उदासीनता ने इस अवधारणा को जन्म दिया: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

    छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में टिप्‍पणी की कि लिव-इन रिलेशनशिप भारतीय संस्कृति अब भी एक "कलंक" के रूप में बनु हुआ है क्योंकि ऐसा संबंध भारतीय सिद्धांतों की सामान्य अपेक्षाओं के विपरीत आयातित विचार है।

    यह देखते हुए कि वैवाहिक कर्तव्यों के प्रति "उदासीनता" ने लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा को जन्म दिया है, जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस संजय एस अग्रवाल की पीठ ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप कभी भी वह सुरक्षा, सामाजिक स्वीकृति, प्रगति और स्थिरता प्रदान नहीं करता है, जो विवाह संस्था प्रदान करती है।

    न्यायालय ने यह भी कहा कि विवाहित व्यक्ति के लिए लिव-इन रिलेशनशिप से बाहर निकलना "बहुत आसान" है, जबकि ऐसे संकटपूर्ण रिश्ते से उसमें बचे रह गए व्यक्ति को नाजुक हालाता से बचाना अदालतों का कर्तव्य बन जाता है, साथ ही ऐसे रिश्ते पैदा हुए बच्चे को बचान भी अदालत का कर्तव्य बन जाता है।

    डिविजन बेंच ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश के खिलाफ अब्दुल हमीद सिद्दीकी की अपील को खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसमें उनके बच्चे की कस्टडी के लिए उनके आवेदन को खारिज कर दिया गया था।

    हाईकोर्ट की टिप्पणियां

    शुरुआत में, अदालत ने अपीलकर्ता की इस दलील पर आपत्ति जताई कि वह मुस्लिम कानून के अनुसार दूसरी शादी करने का हकदार है।

    डिवीजन बेंच ने कहा कि उनके व्यक्तिगत कानून के तहत एक मुस्लिम पुरुष के एक से अधिक विवाह से संबंधित प्रावधानों को "किसी भी अदालत के समक्ष तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि इसकी वकालत न की जाए और साबित न किया जाए"।

    "इस बात पर कोई दलील नहीं है कि समान प्रकृति की दूसरी शादी को प्रथा कैसे बचाती है। यदि हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 का अवलोकन करें तो पता चलता है कि जब तक कोई कानून अध्यादेश, उपविधि, नियम, विनियमन, अधिसूचना द्वारा पारित नहीं किया जाता है और भारतीय क्षेत्र में रिवाज या उपयोग के लिए कानून की शक्ति हो, इसे उस रूप में नहीं माना जा सकता।"

    इस संबंध में, न्यायालय ने अहमदाबाद महिला एक्शन ग्रुप बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1997 मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला दिया, जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि व्यक्तिगत कानून (हिंदू कानून, मुस्लिम कानून और ईसाई कानून) अनुच्छेद 13 के तहत कानून की परिभाषा का हिस्सा नहीं हैं।

    न्यायालय ने आगे कहा कि सिद्धांत रूप में भी, जैसा कि मुस्लिम कानून में निर्धारित है, विवाह मुसलमानों के बीच हो सकता है, और चूंकि मौजूदा मामले में पार्टियों में से एक (कथित पत्नी/प्रतिवादी) ने अपना धर्म नहीं बदला है इसलिए, कोर्ट ने कहा, "यह कहना कि लिव-इन रिलेशनशिप को इस तरह जारी नहीं रखा जा सकता कि शादी मुस्लिम रीति-रिवाजों के तहत हुई थी।"

    न्यायालय ने यह भी कहा कि जब एक पक्ष हिंदू था और उसने अपना धर्म नहीं बदला, तो याचिका के कथन के अनुसार, यह एक अंतरधार्मिक विवाह था; इसलिए, यह 1954 के अधिनियम द्वारा शासित होगा।

    1954 अधिनियम की धारा 4 का उल्लेख करते हुए, न्यायालय ने कहा कि विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत विवाह करने के लिए, किसी भी पक्ष के पास जीवित साथी नहीं होना चाहिए, हालांकि, तत्काल मामले में, अपीलकर्ता ने स्वीकार किया कि उसकी एक जीवित पत्नी थी, और इसलिए , ऐसा विवाह प्रारंभ से ही शून्य था

    कोर्ट ने आगे कहा कि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने रीना देवी बनाम पंजाब राज्य 2023 लाइव लॉ (पीएच) 234 के मामले में इस तरह के रिश्ते को अस्वीकार कर दिया था, जिसमें यह देखा गया था कि शादी को खत्म किए बिना किसी अन्य महिला के साथ रहना आईपीसी की धारा 494, 495 के तहत पहले वाले पति या पत्नी को द्विविवाह का अपराध माना जा सकता है।

    इन टिप्पणियों की पृष्ठभूमि में और बच्चे की कस्टडी की मांग करने वाली "याचिका में विरोधाभासी बयान" के मद्देनजर, याचिका को पारिवारिक न्यायालय के समक्ष तर्कसंगत नहीं पाया गया, और इसलिए, इसे खारिज कर दिया गया।

    केस टाइटलः अब्दुल हमीद सिद्दीकी बनाम कविता गुप्ता

    ऑर्डर पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story