आपराधिक कानून में सुधारों के लिए बनी राष्ट्रीय स्तर की समिति की रचना, समय सीमा और कार्यप्रणाली पर महिला वकीलों ने जताई गंभीर चिंता, लिखा पत्र

LiveLaw News Network

9 July 2020 3:15 PM GMT

  • आपराधिक कानून में सुधारों के लिए बनी राष्ट्रीय स्तर की समिति की रचना, समय सीमा और कार्यप्रणाली पर महिला वकीलों ने जताई गंभीर चिंता, लिखा पत्र

    आपराधिक कानून में सुधारों के लिए बनी राष्ट्रीय स्तर की समिति में एक भी महिला न होने और, अल्पसंख्यकों और अन्य हाशिए के समुदायों को शामिल नहीं करने पर अपनी "चिंता" और " नाराज़गी" व्यक्त करते हुए कि देश भर की महिला वकीलों ने समिति को पत्र लिखा है।

    पत्र में कहा गया है, "यह आवश्यक है कि समिति में प्रख्यात महिलाओं, दलित, आदिवासी और विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों, एलजीबीटी, दिव्यांग क्रिमिनल लॉयरों, भारत के विभिन्न हिस्सों के जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को शामिल करने के लिए समित‌ि का विस्तार किया जाए।"

    पत्र सुप्रीम कोर्ट की महिला वकीलों समेत, दिल्ली, बॉम्बे, बैंगलोर, कलकत्ता और मद्रास हाईकोर्ट और जिला और सत्र न्यायालयों की महिला वकीलों की ओर से लिखा गया है।

    यह कहते हुए कि "कानूनी सुधार प्रक्रिया में विभिन्न हितधारकों की विविधता और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके ही...प्रणालीगत और संस्थागत पूर्वाग्रहों को ठीक किया जा सकता है", प्रमुख वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह, आर वैगई, गायत्री सिंह और प्रिया हिंगोरानी आदि ने जोर दिया है कि समिति की संरचना के "मूलभूत दोष" को ठीक किया जाना चाहिए।

    पत्र में कहा गया है, "हम भारत में आपराधिक कानूनों में सुधार के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की समिति के गठन का स्वागत करते हैं और इस तथ्य से आश्वस्त हैं कि जिन सुधारों की कल्पना की गई है, जैसा कि कहा गया है, उनका मूल आधार ' न्याय का संवैधानिक मूल्य, गरिमा और व्यक्ति के निहित मूल्य हैं।"

    पत्र लिखने वाली महिला वकीलों ने कहा है कि वे "महिला वकीलों का एक समूह हैं, जिनमें कई के पास 40 से अधिक वर्षों की प्रैक्टिस का अनुभव है; कुछ नामित और वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। आपराधिक पक्ष पर, उन्होंने बचाव पक्ष के वकील, राज्य के वकील और पीड़ितों के वकील के रूप में काम किया है, और उनमें से कुछ लीगल एड काउंसल हैं, या एमिकस क्यूरी भी रह चुकी हैं।"

    पत्र में कहा गया है, "इसलिए, हमारे पास आपराधिक पक्ष पर सभी प्रकार के हितधारकों का प्रतिनिधित्व करने का समृद्ध अनुभव है - चाहे वह राज्य हो, अभियुक्त, पीड़ित, निगम या हाशिए का तबका/ कमजोर व्यक्ति हो।", पत्र में जोर देकर कहा गया है कि कि उनकी विशेषज्ञता केवल आईपीसी अपराधों से जुड़े मामलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे विशेष कानून जैसे आतंक, ड्रग्स, पोक्सो, भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, मनी लॉन्ड्रिंग और कॉर्पोरेट धोखाधड़ी के मामलों का भी अनुभव रखती हैं।

    महिला वकीलों ने कहा है कि यह "परेशान करने वाला" और "बिलकुल बेतुका" है कि, जब प्रश्नावली का एक बड़ा हिस्सा यौन अपराधों के सुधार के लिए समर्पित है तो आपराधिक कानून की महिला विशेषज्ञों को समिति में शामिल नहीं किया गया है?

    परामर्श पद्धति और समय सीमा

    पत्र में जोर देकर कहा गया है कि छह प्रश्नावलियों की एक श्रृंखला के माध्यम से प‌िछले ढाई महीने में हो रही विशेषज्ञ परामर्श प्रक्रिया के संपूर्ण दृष्टिकोण में "गहरा दोष" है।

    "क्रिमिनल लॉ तीन आपस में गुंथे हुए और आपस में जुड़े हुए कानूनों पर टिका हुआ है। अलग-अलग तारीखों पर प्रत्येक कानून के लिए अलग-अलग प्रश्नावली जारी करने और अलग-अलग प्रतिक्रियाओं की मांग करने की अनुसूची, समिति की आपराधिक कानून विधिशास्‍त्र के कमत‌र समझ का उलाहना देती है।"

    इसके अलावा, यह संकेत दिया गया है कि विशेषज्ञ सलाहकारों से योगदान लेने कार्यप्रणाली यह बताती है कि "समिति पहले से ही कुछ विशेष निष्कर्षों पर पहुंच चुकी है" और "लगा रहा है कि केवल यह देखा जा रहा है कि इन पदों के लिए पर्याप्त है" समर्थन या नहीं।"

    पत्र में कहा गया है कि कि कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिनके लिए 200 शब्द सीमा से अधिक की आवश्यकता है।

    इसके अलावा, पत्र कहता है कि प्रश्न बिना किसी संदर्भ के हैं। उदाहरण के रूप में, यह सुझाव दिया गया है कि कठोर दायित्व वाले अपराधों के पूरे खंड को उन अपराधों की प्रकृति के साथ पूर्वनिर्धारित किया जाना चाहिए जो समिति के मन में थे और इन सवालों को प्रस्तुत करते समय इसकी चिंताएं क्या थीं।

    इसके अतिरिक्त, पत्र में कहा गया है कि ढाई महीने का समय बहुत ही कम है। पत्र ईमानदारी से कहता है, "इस चुनौतीपूर्ण कार्य को अत्यधिक ध्यान और श्रम से करने की आवश्यकता है।

    पत्र यहां पढ़ें

    सेवा

    प्रो (डॉ) रणबीर सिंह

    अध्यक्ष और उपाध्यक्ष

    आपराधिक कानूनों में सुधार के लिए समिति

    सेंटर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड विक्टिमोलॉजी

    नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली

    श्रीमान,

    प्रतिउत्तर: आपराधिक कानूनों में सुधार के लिए राष्ट्रीय स्तर की समिति: समिति द्वारा अपनाई गई रचना, समय सीमा और कार्यप्रणाली के संबंध में गंभीर चिंताएं।

    हम -ट्रायल व अपीलीय स्तर पर कार्यरत- महिला वकीलों का एक समूह हैं। हम में से कई के पास 40 वर्षों से अधिक की प्रैक्टिस का अनुभव है - हम में से कई नामित वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। आपराधिक पक्ष पर, हमने ‌बचाव पक्ष के वकील, राज्य के वकील और पीड़ितों के वकील के रूप में काम किया है। हममें से कुछ, लीगल एड काउंसल हैं या रह चुकी हैं या एमिकस क्यूरी का कार्यभार संभाल चुकी हैं। इसलिए, हमारे पास आपराधिक पक्ष पर सभी प्रकार के हितधारकों का प्रतिनिधित्व करने का समृद्ध अनुभव है - चाहे वह राज्य हो, अभियुक्त, पीड़ित; निगम या हा‌शिए का तबका/ कमजोर व्यक्ति हो। इसके अलावा, हमारे पास न केवल आईपीसी अपराधों से जुड़े मामलों को संभालने में विशेषज्ञता है, बल्कि विशेष कानून जैसे कि आतंक, ड्रग्स, पोक्सो, प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट, मनी लॉन्ड्रिंग और कॉरपोरेट धोखाधड़ी के मामलों का संभालने का भी अनुभव है।

    शुरुआत में हम भारत में आपराधिक कानूनों की समीक्षा के लिए आपराधिक कानूनों में सुधार के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की समिति के गठन का स्वागत करते हैं और इस तथ्य से आश्वस्त होते हैं कि परिकल्पित सुधारों के मूल में,जैसा कि कहा गया है, "न्याय का संवैधानिक मूल्य, गरिमा और व्यक्ति के निहित मूल्य हैं।" इस मौके पर यह उचित है, संविधान में निहित आपराधिक न्यायशास्त्र के अभिन्न सिद्धांतों को दोहराया जाए- जैसे निष्पक्ष परीक्षण, निर्दोषता की पूर्व धारणा और प्रूफ ऑफ बर्डन, कानून के समक्ष समानता और कानून का समान संरक्षण।

    हम में से अधिकांश ने परामर्श की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए पंजीकरण किया है और प्रश्नावली भर चुकी हैं या भरने जा रही हैं। अपलोड की गई पहली प्रश्नावली से, यह प्रतीत होता है कि विभिन्न मुद्दों पर न्यायशास्त्रीय आत्मनिरीक्षण की प्रकृति की एक बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण प्रक्रिया की जा रही, जैसे कि

    - क्या पारिभाषिक रूप से यौन अपराधों को शरीर के खिलाफ अपराधों की श्रेणी में रखना चाहिए या लिंग भेदभाव के तहत रखना चाहिए।

    - क्या बलात्कार यौन उत्पीड़न कानून लैंगिक तटस्थ रखा जाए, पीड़ित और अपराधी दोनों के दृश्य में

    - क्या "सहमति" से संबंधित प्रावधानों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है

    - क्या "मॉब-लिंचिंग" या "ऑनर किलिंग" के अलग-अलग अपराधों को बनाने की जरूरत है

    - क्या राजद्रोह कानून की पुनर्जांच की आवश्यकता है

    - क्या आईपीसी के तहत अधिक कठोर दायित्व अपराधों की आवश्यकता है

    - कॉरपोरेट्स के आपराधों से कैसे निपटा जाए

    - आपराधिक मनः स्थिति से संबंधित कई सामान्य कानूनों के सिद्धांतों की पुनर्जांच, निजी रक्षा का अधिकार, पागलपन की रक्षा, दंड और सजा के सिद्धांत, 12 साल से अधिक उम्र के नाबालिगों की क्षमता।

    यह वास्तव में एक प्राथमिक कार्य है और वकीलों के रूप में हम इन बहसों और अनुवर्ती सुधारों का स्वागत करते हैं। हालांकि, हम उन मुद्दों से बहुत चिंतित हैं, जिन्हें दो व्यापक ‌शीर्षकों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है:

    - समिति की रचना

    - परामर्श पद्धति और समय सीमा

    समिति की संरचना

    हमें यह परेशान करने वाला लगता है कि समिति में विविधता और प्रासंगिक हित धारकों के प्रतिनिधित्व की पूरी तरह से कमी है - समिति में कोई महिला, दलित, धार्मिक अल्पसंख्यक, आदिवासी, एलजीबीटी या दिव्यांग नहीं हैं। इसके अलावा, समिति मुख्य रूप से दिल्ली स्थित है, जिसके सदस्य विशेष रूप से शहरी महानगरीय पृष्ठभूमि के हैं।

    दशकों से विभिन्न न्यायालयों में यह स्थापित किया गया है कि कानूनी सुधार प्रक्रिया में विविधता और विभिन्न हितधारकों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करके ही प्रणालीगत और संस्थागत पूर्वाग्रहों को ठीक किया जा सकता है।

    महिला वकीलों के रूप में, यह हमें बेतुका लगता है कि, जब प्रश्नावली का एक बड़ा हिस्सा विशेष रूप से यौन अपराधों के सुधार के लिए समर्पित है, तो आपराधिक कानून की महिला प्रैक्टिशनर्स को समिति में शामिल नहीं किया गया है। क्या कमेटी में दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को शामिल किए बिना ऑनर किलिंग या मॉब लिंचिंग के अपराधीकरण पर चर्चा सार्थक हो सकती है? ये कुछ उदाहरण भर हैं। हालांकि, जिस बिंदु पर हम जोर देने की कोशिश कर रहे हैं, वह यह है कि कानून सुधार के कठोर और लोकतांत्रिक कार्य के लिए विचारों की बहुलता और बहस आवश्यक है- और इस तरह की बहुलता और बहस को सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका विविधता और पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है।

    इसके अलावा, बार के एक वरिष्ठ सदस्य को छोड़कर, समिति में किसी भी प्रैक्टिसिंग वकील को शामिल नहीं किया गया है।

    आपराधिक कानूनों में किसी भी सुधार की आवश्यकता उन लोगों द्वारा व्यक्त की जानी चाहिए जो दैनिक आधार पर इन कानूनों के साथ जुड़ते हैं और देखते हैं कि वे व्यवहार में कैसे कार्य करते हैं। अन्यथा, यह या तो मात्र अकादमिक अभ्यास बन जाएगी, जो कि वास्तविक प्रभाव से रहित होगी, या इससे भी बदतर, नुकसानदायक होगी। इसके अलावा, न केवल वकीलों को, बल्‍कि जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को भी इस प्रक्रिया में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। कानूनों के कई बदलावों का नेतृत्व गैर-वकीलों ने किया है, जैसे कि सूचना का अधिकार अधिनियम, वन अधिकार कानून, दहेज कानून - ये केवल कुछ विधानों के नाम हैं। कमजोर समूहों और जो लोग या तो आपराधिक न्याय प्रणाली का गलत तरीके से शिकार हुए हैं या उनकी दरारों में फंस गए हैं, के साथ गहरे जुड़ाव के कारण जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के पास महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि होगी, जिसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।

    परामर्श पद्धति और समय सीमा

    जो हमें समझने के लिए दिया गया है, विशेषज्ञ परामर्श प्रक्रिया अगले दो और ढाई महीने के दरमियान छह प्रश्नावालियों की एक श्रृंखला के माध्यम से घटित होने वाली है, प्रत्येक भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य कानून के साथ अलग-अलग निपटेंगी। इस संपूर्ण दृष्टिकोण गहन स्तर पर त्रुटिपूर्ण है - आपराधिक कानून तीन आपस में गुंथे और आपस में जुडे़ कानूनों पर टिका हुआ है। अलग-अलग तारीखों पर प्रत्येक कानून के लिए अलग-अलग प्रश्नावली जारी करने और अलग-अलग प्रतिक्रियाओं की मांग करने की समिति की अनुसूची, आपराधिक कानून न्यायशास्त्र के कामकाज की समझ की कमी का उलाहना देती है।

    इसके अलावा, विशेषज्ञ सलाहकारों से योगदान की याचना की प्रश्नावली आधारित कार्यप्रणाली यह संकेत देती है कि समिति पहले से ही कुछ विशेष निष्कर्षों पर पहुंच चुकी है और लग रहा है कि केवल यह मूल्यांकन किया जा रहा है ये पद पर्याप्त समर्थन प्राप्त करते हैं या नहीं। विशेषज्ञों से यह पता लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है कि सवालों के दायरे के बाहर किन सुधारों की आवश्यकता है। इसके अलावा, कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जिनके योगदान 200 शब्द सीमा से बहुत आगे जाते हैं! एक विधि सुधार प्रक्रिया, जो एक ऐसी कार्यप्रणाली का प्रयोग करती है, जो गूगल फॉर्म की याद द‌िलाता है, हास्यास्पद होने का गंभीर जोखिम पैदा करती है।

    इसके अलावा, सवाल बिना किसी संदर्भ के हैं। उदाहरण के लिए, कठोर दायित्व वाले अपराधों के पूरे खंड को उन अपराधों की प्रकृति के साथ पूर्वनिर्धारित किया जाना चाहिए जो समिति के मन में थे और इन सवालों को प्रस्तुत करते समय इसकी चिंताएं क्या थीं। या फिर, हम कठोर दायित्व के अर्थ पर 200 शब्दों के निबंध लिखने वाले कानून के छात्रों से बेहतर नहीं हैं। यह कल्पना स्पष्ट रूप से परेशान करने वाली है कि हमारी प्रतिक्रियाओं की व्याख्या कैसे की जाएगी और वे उनका क्या करेंगे।

    इसके अतिरिक्त, बहुत कम समय सीमा तय की गई है, डिफ़ॉल्ट रूप से, जो कि किसी भी "विशेषज्ञ सलाहकार" के साथ किसी भी गंभीर जु़ड़ाव को विफल करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। समिति का कार्य महान है, जिसके परिणाम नागरिकों के जीवन को अत्यंत महत्वपूर्ण रूप में, तत्काल और शारीरिक रूप से प्रभावित करने वाले हैं। इस कठिन कार्य को अत्यधिक सावधानी, कठोरता और परिश्रम से करने की आवश्यकता है। इस तरह के कार्य के लिए ढाई महीने की समय सीमा काफी अपर्याप्त है।

    इसलिए हम बहुत दृढ़ता से महसूस करते हैं कि;

    - यह आवश्यक है कि भारत के विभिन्न हिस्सों से प्रतिष्ठित महिलाओं, दलित, आदिवासी और विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों, एलजीबीटी, द‌िव्यांग व‌‌किलों और जमीनी कार्यकर्ताओं को शामिल करने के लिए समिति का विस्तार किया जाए। यह समिति की संरचना में मूलभूत दोष में सुधार करने के तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए।

    - परामर्श की पूरी प्रक्रिया को कार्यप्रणाली और समय सीमा दोनों संदर्भों में ओवरहॉल किया जाना चाहिए।

    सादर ,

    सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली, बॉम्बे, बैंगलोर, कलकत्ता और मद्रास हाईकोर्ट, जिला और सत्र न्यायालय की महिला वकील

    1. इंदिरा जयसिंह, सीनियर एडवोकेट

    2. आर वैगई, सीनियर एडवोकेट

    3. गायत्री सिंह, सीनियर एडवोकेट

    4. प्रिया हिंगोरानी, सीनियर एडवोकेट

    एडवोकेट

    5. अदिति सक्सेना, बॉम्बे

    6. अमला दशरथी

    7. अमिता जोसेफ

    8. अमिता सिंह कलकल, दिल्ली

    9. अनीता अब्राहम, बेंगलुरु, पूर्व एपीपी जीएनसीटीडी

    10. अन्ना मैथ्यू, मद्रास हाईकोर्ट

    11. अनु नरूला, दिल्ली

    12. अनुभा रस्तोगी

    13. अनुराधा दत्त, दिल्ली

    14. अपर्णा, एसोसिएट पार्टनर, एटीवी लीगल

    15. अर्चना पुंजा रूपवते, बॉम्बे हाईकोर्ट

    16. अरुणिमा भट्टाचार्जी

    17. ऑक्‍जिलिया पीटर

    18. अवंतिका

    19. बुलबुल दास, दिल्ली हाईकोर्ट

    20. डी नागासेला

    21. दीप्ति भारती, जनरल सेक्रटरी, एनएफआईडब्ल्यू दिल्ली यूनिट

    22. देविका, मद्रास हाईकोर्ट

    23. देविका रानी

    24. दिवा अरोड़ा, पार्टनर- फिदुस लॉ चैम्बर्स

    25. ई शैलजा वी पिल्लई

    26. एकता कपिल, दिल्ली

    27. एलिजाबेथ शेषाद्री

    28. विजयलक्ष्मी, मद्रास

    29. ईवा बिश्वाल, दिल्ली हाईकोर्ट

    30. फिरदौस मूसा, बॉम्बे

    31. गार्गी कुमार

    32. गरिमा बजाज, एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड, सुप्रीम कोर्ट

    33. गीता देवराजन

    34. हीरल गुप्ता

    35. इरम माजिद

    36. जाह्नवी सिंधु

    37. झुमझुम सरकार

    38. काजल चंद्र, दिल्ली

    39. कवीता वाडिया, एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड, सुप्रीम कोर्ट

    40. कीर्ति सिंह, दिल्ली

    41. लक्ष्मी आनंद

    42. ल‌ियि मारली नोशी

    43. लिज़ मैथ्यू, एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड, सुप्रीम कोर्ट

    44. लूसी बीजू

    45. एम दीप्तिदेवी

    46. ​​मनाली सिंघल

    47. मेनका खन्ना

    48. मंगला वर्मा

    49. मणि गुप्ता, पार्टनर, सार्थक एस एंड सॉलिसिटर

    50. मैरी मिट्जी

    51. मौलश्री पाठक, दिल्ली

    52. मीनाज़ काकाकलिया, बॉम्बे

    53. मेघा बहल, दिल्ली

    54. मेघना पोद्दार, कानूनी परामर्शदाता, हैदराबाद

    55. मरियम फौजिया रहमान

    56. मृणालिनी सेन

    57. अंकुर गुलयानी पांडा

    58. नंदिता राव, अतिरिक्त स्‍थायी परामर्शदाता (Crl) GNCTD

    59. नाओमी चंद्रा, दिल्ली

    60. नयनतारा रॉय

    61. नेहमत कौर

    62. झुमझुम सरकार, दिल्ली

    63. नीसी पॉलसन, दिल्ली

    64. निकिता अग्रवाल, दिल्ली हाईकोर्ट

    65. निन्नी सुसान थॉमस

    66. निवेदिता मेनन, मद्रास

    67. नूरून नाहर फिरदौसी

    68. प्रावीता कश्यप, दिल्ली

    69. प्रज्ञा बघेल

    70. प्रितिका कोहली

    71. पूजा, कानूनी शोधकर्ता, दिल्ली

    72. पयोली स्वातीजा

    73. राधिका कोल्लुरु, एपीपी, जीएनसीटीडी

    74. रंजीता रोहतगी, एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड, सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया

    75. रीना राव

    76. रेम्या एम, वरिष्ठ प्रबंधक -लीगल

    77. रितु भल्ला, पार्टनर शार्दुल अमरचंद मंगलदास एंड कंपनी, दिल्ली

    78. रोनिता भट्टाचार्य बेक्टर, बॉम्बे हाई कोर्ट

    79. रोन्जाबोती सेन, कलकत्ता

    80. रुचि सिंह, दिल्ली

    81. रुद्राणी त्यागी

    82. रूपाली सैमुअल

    83. रुश्दा सिद्दीकी, सदस्य, कार्यकारी परिषद, NFIW

    84. एस मीनाक्षी, चेन्नई

    85. संध्या राजू

    86. सनोबर किशेर, बॉम्बे हाई कोर्ट

    87. सारदा हरिहरन, कलकत्ता हाईकोर्ट

    88. शाहरुख आलम, दिल्ली

    89. शालिनी गेरा

    90. शशि सिंह

    91. शिरीन

    92. शोमोना खन्ना, सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली हाईकोर्ट

    93. श्वेता कपूर, दिल्ली

    94. श्वेताश्री मजुमदार

    95. स्मृति सुरेश

    96. सौजन्य शंकरन

    97. सुमनजीत कौर

    98. सुमिता हजारिका

    99. सुमिता कपिल, दिल्ली

    100. सुरभि करवा

    101. स्वप्ना चौबे, कलकत्ता हाईकोर्ट, एनसीटीएल

    102. स्वाति सिंह मलिक

    103. तन्वी एनएस

    104. तन्वी शर्मा

    105. तान्या वर्मा, पार्टनर, लॉ फर्म

    106. तारा नरूला, दिल्ली

    107. तरन्नुम चीमा, दिल्ली

    108. उज्जैनी चटर्जी,

    109. उर्मी चुडगर

    110. उर्मिला चक्रवर्ती, कलकत्ता हाईकोर्ट

    111. उत्तरा बब्बर, एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड, सुप्रीम कोर्ट

    112. वृंदा ग्रोवर, दिल्ली

    एकजुटता में हस्ताक्षर करने की पुरुष वकील

    1. गोपाल शंकरनारायणन, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट

    2. आरुष

    3. सीके नंदकुमार, पार्टनर, लॉ फर्म

    4. एल्विन विल्सन

    5. जगदीप छोक्‍कर, सेवानिवृत्त प्रोफेसर, वर्तमान में अधिवक्ता

    6. प्रणव अरोड़ा, सुप्रीम कोर्ट

    7. राहुल श्रीवास्तव, जबलपुर मप्र हाईकोर्ट

    8. यशस्वी मोहनराम, पार्टनर, प्लेटिनम पार्टनर

    9. युगंधर पवार झा

    10. मोहन गोपाल

    11. महक सेठी

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