हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत न्यायिक पृथक्करण और तलाक कैसे एक दूसरे से अलग हैं, दिल्ली हाईकोर्ट ने समझाया

LiveLaw News Network

21 Feb 2022 9:57 AM GMT

  • दिल्ली हाईकोर्ट, दिल्ली

    दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत न्यायिक पृथक्करण और तलाक के दायरे की व्याख्या की है।

    जस्टिस विपिन सांघी और जस्टिस जसमीत सिंह की खंडपीठ ने कहा कि दोनों अवधारणाओं का दायरा गुणात्मक रूप से भिन्न है। न्यायिक पृथक्करण बिल्कुल अलग किस्म की राहत है, जिसे पीड़ित पति या पत्नी दूसरे के खिलाफ अधिनियम की धारा 10 के तहत मांग सकती हैं।

    कोर्ट ने कहा, "इस प्रकार, पीड़ित पति या पत्नी तलाक की राहत मांगने के बजाय, उन्हीं आधार पर, जिन पर वह तलाक मांग रहा है या रही है, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री की मांग कर सकता या सकती है। कानून पीड़ित पति/पत्नी या याचिकाकर्ता को इन दो रहतों में से किसी एक की तलाश करने का विकल्प देता है।"

    कोर्ट ने निम्नलिखित टिप्पणियां कीं-

    - जबकि न्यायिक पृथक्करण वैवाहिक संबंधों को समाप्त नहीं करता है और विवाह को संरक्षित किया जाता है - पति या पत्नी द्वारा वैवाहिक कदाचार की स्थापना के बाद एक घोषणा की जाती है, और यह पीड़ित पति/पत्नी/याचिकाकर्ता को अन्य पति/पत्नी/प्रतिवादी के साथ वैवाहिक संबंधों से इनकार करने का अधिकार देता है, जबकि तलाक की डिक्री पक्षकारों के बीच विवाह के कानूनी संबंधों को समाप्त कर देती है, इस प्रकार उन्हें उनके वैवाहिक बंधन से मुक्त कर देती है।

    - जबकि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को उसी न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है; तलाक की डिक्री को केवल न्यायिक आदेश द्वारा उलटा जा सकता है: या तो पुनर्विचार में या अपील में। यदि इसे एकपक्षीय रूप से पारित किया जाता है तो उस प्रयोजन के लिए किए गए आवेदन पर इसे वापस लिया जा सकता है।

    - इस प्रकार, जब न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित की जाती है तो पीड़ित पति या पत्नी एक दूसरे के साथ सहवास करने के लिए बाध्य नहीं होते हैं, भले ही वैवाहिक बंधन जारी रहता है। न्यायिक पृथक्करण की अवधि के दरमियान पक्ष पुनर्विवाह नहीं कर सकते, क्योंकि विवाह की स्थिति बनी रहती है।

    - दूसरी ओर, एक बार तलाक की डिक्री दिए जाने के बाद, पक्षकार पति और पत्नी नहीं रह जाते, और अपील की वैधानिक अवधि समाप्त होने के बाद पक्ष पुनर्विवाह करने के लिए स्वतंत्र होते हैं, और एक सक्षम अदालत द्वारा उनके पुनर्व‌िवाह खिलाफ कोई प्रतिबंध आदेश पारित नहीं किया जाता है।

    -न्यायिक पृथक्करण और तलाक एक ही आधार पर दी जाने वाली पूरी तरह से अलग-अलग राहतें हैं- जैसा कि धारा 13 (1) में निहित है, और पत्नी के मामले में, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 की उप-धारा (2) में निर्दिष्ट किसी भी आधार पर ।

    न्यायालय पति द्वारा दायर एक अपील पर विचार कर रहा था, जिसमें फैमिली कोर्ट द्वारा पारित आक्षेपित निर्णय को चुनौती दी गई थी, जिसमें पति द्वारा मांगी गई तलाक की राहत के बजाय न्यायिक पृथक्करण की राहत प्रदान की गई थी। दूसरी ओर, प्रतिवादी पत्नी द्वारा फैमिली कोर्ट द्वारा दिए गए निष्कर्षों को चुनौती देते हुए एक अन्य अपील दायर की गई थी।

    अपीलकर्ता पति ने उक्त फैसले को इस आधार पर चुनौती दी थी कि जबकि उसके पास न्यायिक पृथक्करण, या तलाक चुनने का विकल्प था और उसने तलाक की राहत को चुना था, उसे फैमिली कोर्ट द्वारा अपने आप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता था, , क्योंकि वे दोनों गुणात्मक रूप से भिन्न राहतें हैं, कानून में पूरी तरह से अलग प्रभाव हैं और पार्टियों के भविष्य पर अलग-अलग परिणाम हैं।

    उनका मामला यह भी था कि पार्टियां 2009 से 12 साल से अधिक की अवधि के लिए अलग-अलग रह रही थीं, और इसलिए उनके बीच विवाह का बंधन गंभीर रूप से नष्ट हो गया था।

    यह भी तर्क दिया गया कि पार्टियों के बीच विवाह भावनात्मक और व्यावहारिक रूप से मृत था, और पार्टियों के एक साथ फिर से मिलने और सहवास करने का कोई मौका नहीं था, और इस तरह इस तरह के विवाह को जारी रखना, दोनों पक्षों के लिए क्रूरता के बराबर होगा।

    मामले के तथ्यों को देखते हुए न्यायालय ने कहा,

    "प्रतिवादी का रवैया, रिश्तेदारों और दोस्तों के उसे वापस लाने के प्रयास के बावजूद वैवाहिक गृह में अपीलकर्ता के साथ शामिल होने की अनिच्छा और हठ,- क्रूरता के समान है।

    प्रतिवादी-पत्नी ने बिना किसी कारण के अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया; अपीलकर्ता और उसके ससुराल वालों के खिलाफ विभिन्न झूठे और गंभीर आरोप लगाए और; अपीलकर्ता के साथ सहवास या समझौता करने से इनकार कर दिया। प्रतिवादी की ओर से इस तरह की उदासीनता से अपीलकर्ता को काफी पीड़ा उठानी पड़ी।"

    अदालत ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि न्यायिक पृथक्करण के आदेश के बावजूद, प्रतिवादी-पत्नी ने कभी भी अपने पति के साथ में फिर से जुड़ने का प्रयास नहीं किया, यहां तक ​​कि अस्थायी रूप से भी। इसने यह भी नोट किया कि प्रतिवादी-पत्नी को, आक्षेपित निर्णय में, अपनी शादी को एक और मौका देने और अपने परिवार के सदस्यों के बारे में स्वतंत्र रूप से सोचने के लिए कहा गया था। फिर भी प्रतिवादी की ओर से कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया ।

    अदालत ने इसलिए माना कि धारा 13 (1) (आईए) के तहत क्रूरता का आधार स्थापित होने के बाद अपीलकर्ता पति को तलाक की राहत से इनकार नहीं किया जा सकता था। कोर्ट ने कहा कि दोनों पक्ष केवल 3 साल तक साथ रहे और 12 साल से अधिक समय से अलग रह रहे थे।

    "पृथक्करण की अवधि ने पक्ष के बीच संबंधों को सुधार से परे कर दिया है। पिछले 12 वर्षों में प्रतिवादी का अपीलकर्ता के साथ सहवास करने से इनकार करना हमें दिखाता है कि इस विवाह में किसी भी पक्ष के लिए कुछ भी नहीं बचा है।"

    तदनुसार, कोर्ट ने फैमिली कोर्ट द्वारा पारित उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें अपीलकर्ता पति को न्यायिक पृथक्करण का आदेश दिया गया था और पत्नी को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (1) (आईए) के तहत क्रूरता का दोषी पाया गया था।

    यह विचार था कि फैमिली कोर्ट ने पति को तलाक की डिक्री न देने में गलती की और इसके बजाय, उसे न्यायिक पृथक्करण की डिक्री दी।

    कोर्ट ने कहा, "इस मामले के इस दृष्टिकोण में, हम अपीलकर्ता-पति यानी की अपील MAT. APP. (F.C.) 213/2018 को अनुमति देते हैं और अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच तलाक की डिक्री प्रदान करते हैं। उनकी शादी तुरंत भंग होती है। प्रतिवादी-पत्नी द्वारा दायर अपील MAT. APP. (F.C.) 231/2018 को खारिज कर दिया जाता है।"

    केस शीर्षक: विनय खुराना बनाम श्वेता खुराना

    स‌िटेशन: 2022 लाइव लॉ (दिल्ली) 134

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