''पीड़िता का बयान परस्पर विरोधी'' : बॉम्बे हाईकोर्ट ने पाॅक्सो के तहत दोषी करार दिए आरोपी को बरी किया
LiveLaw News Network
16 Dec 2020 9:30 AM IST
बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को एक सात साल की नाबालिग बच्ची से बलात्कार करने के मामले में दोषी करार दिए गए 28 वर्षीय व्यक्ति को राहत देते हुए,उसकी सजा को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने पाया कि पीड़िता द्वारा पुलिस को दिए गए बयान में कई परस्पर विरोधी बातें कही गई थी। इसलिए अदालत ने कहा कि सिर्फ पीड़िता की गवाही के आधार पर अपीलकर्ता को दोषी करार देना बहुत असुरक्षित होगा।
न्यायमूर्ति एसएस शिंदे और न्यायमूर्ति एम एस कार्णिक की खंडपीठ 28 वर्षीय अली मोहम्मद शेख की तरफ से दायर एक आपराधिक अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसे धारा 363, 366 ए, 326, 376 रिड विद पाॅक्सो एक्ट की धारा 5 व 6 के तहत डिंडोशी स्थित विशेष पाॅक्सो जज द्वारा दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
केस की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष के अनुसार, 20 अगस्त 2014 को रात को लगभग 11 बजे, 6 से 7 साल की उम्र की पीड़िता, उसकी मां, उसका 4 साल का भाई और दादी कांदिवली (पश्चिम) में एमजी रोड, काला हनुमान मंदिर के पास प्लेटफार्म पर सो रहे थे। पीड़िता और उसकी माँ रात को 2ः30 बजे तक जाग रहे थे। इसके बाद वे सो गए। सुबह करीब 6 बजे जब पीड़िता की मां जगी तो उसे पता चला कि पीड़िता अपने बिस्तर में नहीं थी। वह अपनी बेटी की तलाश में गई और उसे पास की एक गली में रोते हुए पाया। पीड़िता की दादी उसके साथ थी। उसने पीड़िता के प्राइवेट पार्ट के अंदर झाड़ी देखी और उसमें से खून बह रहा था।
पुलिस ने अस्पताल में आकर अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ मामला दर्ज किया। पीड़िता की मां के अनुसार, आनंद नाम का एक व्यक्ति उस पर और उसकी बेटी पर कुछ 'गलत इरादे' से नजर रखता था। उसने शक जताया कि वही अपराधी हो सकता है। पीड़िता की मां के शक पर पुलिस ने उस व्यक्ति की तलाश की और उन्होंने अपीलकर्ता अली मोहम्मद शेख को दबोच लिया। शिकायतकर्ता पीड़िता की मां ने पुलिस को बताया कि यह वही व्यक्ति है जो उन्हें बुरी नीयत से देखता था और यही व्यक्ति पीड़िता को एकांत स्थान पर ले गया और उसका यौन उत्पीड़न किया।
उसके बाद अपीलार्थी के खिलाफ आरोप तय किए गए और अपीलकर्ता ने दावा किया कि उसे उक्त मामले में फंसाया जा रहा है। अभियोजन पक्ष ने 11 गवाह पेश किए और अपने मामले के समर्थन में 30 दस्तावेजों पर भरोसा किया। जिसके बाद विशेष न्यायाधीश ने अपीलकर्ता को दोषी ठहराया।
अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता तनवीर खान उपस्थित हुए और उन्होंने कहा कि विशेष न्यायाधीश ने अपीलार्थी को दोषी ठहराने में त्रुटि की क्योंकि इस मामले में झूठा फंसाए जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। खान ने कहा कि अभियुक्त को दोषी ठहराना असुरक्षित होगा क्योंकि अभियोजन पक्ष सभी उचित संदेह से परे अभियुक्त की संलिप्तता साबित करने में विफल रहा है।
दूसरी ओर, अतिरिक्त लोक अभियोजक एफआर शेख ने प्रस्तुत किया कि यही अभियुक्त है जो कथित अपराध को अंजाम देने के लिए जिम्मेदार है। रिकॉर्ड पर मौजूद सबूत इस मामले का समर्थन करते हैं कि अभियुक्त ने सभी उचित संदेह से परे अपराध किया है। ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज निष्कर्षों की ओर इशारा करते हुए, एपीपी शेख ने कहा कि उक्त निष्कर्ष रिकॉर्ड पर पेश साक्ष्यों पर सही से विचार करने के बाद निकाले गए हैं और इसलिए किसी भी हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है।
प्रति परीक्षण में पीड़िता ने बताया कि घटना की तारीख से पहले, उसने कभी उस व्यक्ति को नहीं देखा था जिसने इस कृत्य को अंजाम दिया है। वह आगे कहती है कि यह सच नहीं है कि उसके पास अपराधी को घटना के बाद फिर से देखने का कोई अवसर नहीं था। उसने बताया कि अपराधी उसके पिता से मिलने आता था। वह आगे कहती है कि वह उसे बहुत अच्छी तरह से जानती है। उसने इस बात से इनकार किया कि कोर्ट में बयान देने से पहले पुलिस और उसके शिक्षक ने उसे समझाया था।
इसके अलावा, वकील खान ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 'राजा बनाम स्टेट बाई इंस्पेक्टर आॅफ पुलिस' मामले में दिए फैसले का हवाला देते हुए दलील दी कि कटघरे में की गई शिनाख्त को जब तक कानून की नजर में शिनाख्त नहीं माना जाता है,जब तक इसकी प्रति पुष्टि मजिस्ट्रेट के सामने पहले की जा चुकी टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड से नहीं हो जाती है। उनके अनुसार टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड यानी टीआईपी करवाने में विफल रहना अभियोजन के मामले के लिए घातक है।
कोर्ट ने खान की दलीलों को स्वीकार करने से इनकार करते हुए कहा कि -
''हमारी राय में, वर्तमान मामले में टीआईपी आयोजित न करवाना, अदालत में शिनाख्त के सबूत को अपर्याप्त नहीं बनाएगा। पीडब्ल्यू 5- पीड़िता द्वारा इस तरह की पहचान करने से जुड़ा मामला निस्संदेह न्यायालयों के लिए एक तथ्यात्मक मामला है। हालांकि, अदालत को इस बात से संतुष्ट होना होगा कि क्या टीआईपी के बिना भी सबूतों पर सुरक्षित रूप से भरोसा किया जा सकता है? टीआईपी में मूल सबूत नहीं होते हैं और ये परेड अनिवार्य रूप से आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 162 द्वारा शासित होती हैं। यह सही है कि अदालत में की गई शिनाख्त के सबूत ही मूल सबूत हैं। हमें पीडब्ल्यू 5 के सबूतों से पता चलता है कि उसने बताया था कि 'आरोपी उसके पिता का दोस्त है।' पीड़िता आरोपी को जानती थी इसलिए हो सकता है कि टीआईपी ना करवाई गई हो।''
घटना के समय पीड़िता 6 से 7 साल की थी। पीड़िता की मां ने बताया कि वह आरोपी को 'आनंद' के नाम से जानती थी। उसने उस पर अपराधी होने का संदेह जाहिर किया था क्योंकि वह उससे बात करने की कोशिश करता था और उसका पीछा कर रहा था। उसने सिर्फ अपनी जिरह के दौरान आरोपी की पहचान 'अली' के रूप में की थी।
अपराधी की पहचान के संबंध में पीड़िता के बयान की विसंगतियों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा-
'' पीड़िता की गवाही आरोपी की पहचान के संबंध में परस्पर विरोधी प्रतीत होती है। जब पीडब्ल्यू 5 के सबूत को न्यायाधीश के कमरे में दर्ज किया गया था, तो अपीलकर्ता को दिखाया गया था और उसने उसकी पहचान की थी और कहा था कि यह उसके पिता का दोस्त है। इसके बाद पीड़िता ने बताया कि उसने घटना से पहले कभी आरोपी को नहीं देखा था, लेकिन फिर उसने कहा कि वह उसके पिता से मिलता था और वह उसे अच्छी तरह से जानती थी। उसने यह भी बताया कि जिस दिन उसके साथ यह घटना हुई थी, उसके बाद फिर से उसे अपीलकर्ता को देखने का अवसर मिला था। पीड़िता के बयान की इन विसंगतियों को देखते हुए, उसके बयान को ध्यान से जांचने की जरूरत है।''
कोर्ट ने कहा-
''आरोपी की शिनाख्त के संबंध में, पीडब्ल्यू 5 से जिरह के दौरान बचाव पक्ष द्वारा रिकॉर्ड पर लाई गई विसंगतियों को देखते हुए,उसकी एकमात्र गवाही पर भरोसा करना असुरक्षित होगा क्योंकि उसे पहले से ही सब समझाकर भेजने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।''
अपील को स्वीकार करते हुुए पीठ ने कहा कि मामले में चिकित्सा साक्ष्य हालांकि यौन हमले की क्रूरता को स्थापित करते हैंै, लेकिन फोरेंसिक रिपोर्ट अभियोजन के मामले का समर्थन नहीं करती है कि अपीलकर्ता अपराधी है।
कोर्ट ने कहा,
''हम आरोपी को केवल पीडब्ल्यू 5 की गवाही के आधार पर दोषी ठहराना असुरक्षित समझते हैं क्योंकि उसके इस बयान की प्रति पुष्टि नहीं हो पाई है कि अपीलकर्ता ने ही अपराध किया था। इसलिए यह हमारे लिए संभव नहीं है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा अपीलकर्ता को दी गई सजा को बरकरार रखा जाए। इसलिए अपील को अनुमति दी जानी चाहिए।''
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