'बलात्कार की पीड़िता को डीएनए टेस्ट कराने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता': POCSO मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा

LiveLaw News Network

12 Dec 2021 12:15 PM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि बलात्कार की पीड़िता को उसके बच्चे के पितृत्व का निर्धारण करने के लिए डीएनए टेस्ट करवाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।अदालत अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, सुल्तानपुर के 25 जून, 2021 के आदेश को चुनौती देने वाली एक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें इस तरह के डीएनए टेस्ट की अनुमति दी गई थी।

    न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि संबंधित अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 'अपनी एनर्जी या ऊर्जा को गलत दिशा में निर्देशित' किया है क्योंकि उनके समक्ष विचाराधीन प्रश्न यह नहीं था कि क्या पीड़िता को पैदा हुआ बच्चा आरोपी (विपरीत पक्ष नंबर 2 ) का बच्चा है या नहीं बल्कि सवाल यह है कि क्या बलात्कार का अपराध आरोपी ने किया था?

    अदालत ने कहा कि,

    ''यह स्पष्ट है कि अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपनी एनर्जी को गलत दिशा में निर्देशित किया है। न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह नहीं था कि क्या पीड़िता को पैदा हुआ बच्चा विपरीत पक्ष नंबर 2 का बच्चा है या नहीं? बच्चे के पितृत्व को निर्धारित करने के संबंध में कोई प्रश्न नहीं था। इस मामले में शामिल सवाल यह है कि क्या विपरीत पक्ष नंबर 2 ने पीड़िता से बलात्कार किया था? पीड़िता के पास अपने बच्चे का डीएनए परीक्षण करवाने का कोई कारण नहीं था।''

    आगे यह भी कहा गया कि कथित घटना के इतने लंबे समय के बाद बलात्कार की पीड़िता को डीएनए परीक्षण के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।

    पृष्ठभूमि

    इस मामले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश सुल्तानपुर के 25 जून 2021 के आदेश के खिलाफ पीड़िता की मां ने पुनरीक्षण(रिवीजन) याचिका दायर की थी। 14 वर्षीय पीड़ित लड़की के साथ सात महीने पहले कथित तौर पर बलात्कार किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप वह गर्भवती हो गई। जिसके बाद थाना कोतवाली देहात, जिला सुल्तानपुर में भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 504, 506 और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012, (पॉक्सो) अधिनियम की धारा 3/4 के तहत मामला दर्ज किया गया था।

    बेटी के गर्भवती होने की खबर मिलने पर पीड़िता की मां ने आरोपी से उसकी शादी कराने की कोशिश की थी लेकिन आरोपी के पिता ने इस तरह के प्रस्ताव से इनकार कर दिया। इसके अलावा, मुकदमे की सुनवाई के दौरान, आरोपी को किशोर घोषित कर दिया गया था, जिसके परिणामस्वरूप मामला ट्रायल कोर्ट से किशोर न्याय बोर्ड, सुल्तानपुर में स्थानांतरित कर दिया गया।

    नतीजतन, आरोपी ने किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पीड़िता का डीएनए परीक्षण कराने के लिए एक आवेदन दिया। 25 मार्च, 2021 को किशोर न्याय बोर्ड ने पूरे तथ्यों और परिस्थितियों और रिकॉर्ड पर उपलब्ध सबूतों पर विचार करने के बाद डीएनए टेस्ट करवाने की मांग वाले आवेदन को खारिज कर दिया।

    किशोर न्याय बोर्ड ने अपने आदेश में कहा था कि पीड़िता की जांच के लिए इस तरह का आवेदन केवल उसी चरण में दायर किया जा सकता है जब सीआरपीसी की धारा 313 के तहत बचाव पक्ष के गवाहों के बयान दर्ज किए जा रहे हों। बोर्ड ने आगे यह भी कहा था कि पीड़ित बच्चे को डीएनए टेस्ट के लिए भेजने से मुकदमे में और देरी होगी, जबकि क़ानून के प्रावधानों के तहत मुकदमे की सुनवाई को जल्दी से समाप्त किया जाना चाहिए।

    इसके बाद, किशोर न्याय बोर्ड के आदेश के खिलाफ, आरोपी ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, सुल्तानपुर के समक्ष एक आपराधिक अपील दायर की, जिसने 25 जून, 2021 के आदेश के तहत डीएनए परीक्षण करवाने की मांग वाले आवेदन को अनुमति दे दी।

    कोर्ट का निष्कर्ष

    न्यायालय ने पाया कि अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, सुल्तानपुर ने आक्षेपित आदेश पारित करते हुए भारत के संविधान के अनुच्छेद 14--21 के प्रावधानों की अनदेखी की है। आगे यह भी कहा कि पीड़िता का डीएनए टेस्ट करवाने की अनुमति देने का कोई कारण नहीं था क्योंकि विचाराधीन मुद्दा यह है कि क्या बलात्कार का अपराध किया गया था और न कि क्या आरोपी बच्चे का पिता है?

    पुनरीक्षण याचिका की अनुमति देते हुए कोर्ट ने कहा,

    ''25.06.2021 के आदेश को खारिज किया जाता है और किशोर बोर्ड के दिनांक 25.03.2021 के आदेश की पुष्टि इस संशोधन के अधीन की जाती है कि सीआरपीसी की धारा 313 के तहत इस तरह के आवेदन के संबंध में बोर्ड के अवलोकन ( कि उसके गुणदोष के आधार पर विचार किया जाएगा) को भी संशोधनवादी (रिविजनिस्ट)के खिलाफ इस तरह नहीं पढ़ा जाएगा कि कथित घटना के इतने लंबे समय के बाद बलात्कार की पीड़िता को डीएनए परीक्षण के लिए मजबूर किया जा सकता है।''

    केस का शीर्षक- गुलाफ्सा बेगम बनाम यू.पी. राज्य

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