पीड़िता की गवाही में पेनेट्रेशन के संकेत के बिना ‌दिए गए अस्पष्ट बयान बलात्कार का सबूत नहीं: केरल हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

16 Dec 2021 9:07 AM GMT

  • केरल हाईकोर्ट

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    केरल हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि पीड़िता का यह बयान कि आरोपी ने पेनेट्रेशन के संकेत के बिना उसे गले लगाया था, आईपीसी की धारा 375 के तहत बलात्कार के अपराध को आकर्षित नहीं करेगा।

    जस्टिस कौसर एडप्पागथ ने कहा कि एक अस्पष्ट बयान उक्त धारा में निहित वैधानिक जनादेश का विकल्प नहीं होगा, "पीड़ित द्वारा सबूत के रूप में केवल बयान कि 'आरोपी ने मुझे गले लगाया और मुझे गर्भवती किया', पेनेट्रेशन के पहलू के संकेत के बिना, बलात्कार के अपराध को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं है।"

    बेंच ने कहा कि बलात्कार का अपराध तभी बनता है जब धारा 375 के तहत सामग्री जुटाई जाती है। जब तक पीड़िता सबूतों में अभियुक्त द्वारा बिना सहमति के उस पर किए गए पेनेट्रेशन के बारे में नहीं बताती है, तब तक बलात्कार के अपराध को नहीं समझा जा सकता है। पीड़िता को ओर से पेश सबूतों में इस पहलू का अभाव पाया गया क्योंकि किसी भी पेनेट्रेशन का कोई उल्लेख या संकेत नहीं था। ऐसे में जेल की सजा काट रहे आरोपी को कोर्ट ने बरी कर दिया।

    याचिकाकर्ता को आईपीसी की धारा 376 के तहत दोषी ठहराया गया था। अभियोजन का मामला यह था कि दिसंबर 2009 में वह पीड़िता के घर गया, उसके साथ यौन संबंध बनाए और शादी का झूठा वादा कर उसे गर्भवती कर दिया।

    पुलिस ने कथित घटना के तीन महीने बाद पीड़िता द्वारा दी गई एफआईएस के आधार पर आरोपी के खिलाफ अपराध दर्ज किया। निचली अदालत ने उसे धारा 376 के तहत दोषी पाया और उसी के अनुसार सजा सुनाई।

    मुख्य रूप से पीड़िता और उसकी मां की मौखिक गवाही के आधार पर अपीलीय अदालत ने दोषसिद्धि और सजा की पुष्टि की। सजा को के खिलाफ हाईकोर्ट में एक पुनरीक्षण याचिका दायर की गई।

    चूंकि याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व उसके अपने वकील ने किया , इसलिए स्टेट ब्रीफ एडवोकेट शर्ली एसए को लीगल एड काउंसल के रूप में नियुक्त किया गया। उन्होंने आरोप लगाया कि यह दिखाने के लिए कोई ठोस और विश्वसनीय सबूत नहीं है कि आरोपी ने पीड़िता के साथ बलात्कार किया जैसा कि अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया था।

    प्रतिवादी की ओर से पेश लोक अभियोजक सनल पी. राज ने हालांकि नीचे की अदालतों द्वारा दिए गए निष्कर्षों और फैसले का समर्थन किया और तर्क दिया कि आईपीसी की धारा 376 के लिए आवश्यक सामग्री स्थापित की गई थी।

    अभियोजन पक्ष के अनुसार, आरोपी ने अपनी यौन इच्छा को संतुष्ट करने के बाद शादी के प्रस्ताव से वापस ले लिया, जबकि बचाव पक्ष ने कहा कि पीड़िता और उसकी मां शादी के प्रस्ताव से पीछे हट गए क्योंकि आरोपी पीड़ित से उधार ली गई सोने की चेन को वापस करने में विफल रहा।

    अदालत ने कहा कि पीड़िता की गवाही में दोष‌ का एकमात्र आधार यह था कि "आरोपी ने मुझे गले लगाया और मुझे गर्भवती किया"। पेनेट्रेटिव इंटरकोर्स का संकेत देने के लिए या यह दिखाने के लिए कि उसने एक बच्चे को जन्म दिया था, कोई सबूत नहीं था।

    फिर भी दोनों अदालतों ने पाया कि पीड़िता और उसकी मां की मौखिक गवाही पीड़िता और आरोपी के बीच संभोग का सुझाव देने के लिए पर्याप्त थी।

    जज ने कहा कि मामूली लिंग-योनि प्रवेश भी 'संभोग' के बराबर होता है, और यह कि मिसालों ने स्थापित किया था कि 'लिंग की पहुंच' संभोग में 'प्रवेश' का गठन करने के लिए पर्याप्त होगा। यह धारा 375 के तहत अपराध का गठन करने के लिए अनिवार्य है।

    कोर्ट ने कहा,

    एक यौन अपराध में पीड़िता के सबूतों को अधिक वजन दिया जाता है। बलात्कार के मामले में भी, पुष्टि के अभाव के बावजूद, अपराध के प्रत्येक घटक को सकारात्मक रूप से साबित करने की जिम्‍मेदारी अभियोजन पक्ष पर होती है और इस तरह की जिम्मेदारी को कभी भी श‌िफ्ट नहीं किया जाता है।

    कोर्ट ने दोनों पक्षों के संभोग में शामिल होने की संभावना से इनकार किया । इसके अलावा, कोर्ट ने पाया‌ कि रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य और उपस्थित परिस्थितियां दूर-दूर तक यह नहीं बताती कि दोनों के बीच सहमति नहीं थी।

    कई फैसलों का जिक्र करने के बाद जज ने कहा कि कानूनी स्थिति यह है कि यदि कोई पुरुष किसी महिला से विवाह करने के अपने वादे से मुकर जाता है तो धारा 376 के तहत बलात्कार का अपराध तब तक नहीं गठित होगा, जब तक कि यह स्थापित नहीं हो जाता कि यौन कृत्य के ‌लिए सहमति शादी का झूठा वादा देकर प्राप्त की गई थी ओर शादी का कोई इरादा नहीं था।

    हालांकि अपनी गवाही में पीड़िता ने यह साबित नहीं किया कि जब उसने गले लगाया गया था तो उसने शोर मचाया था। साक्ष्य में यह भी सामने आया है कि उसने उक्त घटना के संबंध में अपनी मां सहित किसी से कोई शिकायत नहीं की थी। एफआईएस दर्ज करने में तीन महीने से अधिक की अस्पष्टीकृत देरी की गई थी।

    इन सभी कारकों से संकेत मिलता है कि यदि अभियोजन पक्ष के आरोप के अनुसार पीड़ित और आरोपी के बीच यौन संबंध थे, तो यह एक सहमति थी। इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष के अनुसार, शादी का वादा कथित यौन कृत्य के बाद किया गया था, न कि शुरूआत में।

    इस प्रकार, कोर्ट ने पाया कि निचली अदालतों ने यह मानकर अवैधता की कि पीड़िता ने आरोपी के झूठे वादे के आधार पर सहमति दी थी कि वह उससे शादी करेगा और इसलिए, उसकी सहमति को सहमति नहीं कहा जा सकता -है। कोर्ट ने निचली अदालतों द्वारा पारित दोषसिद्धि और सजा के निर्णयों को रद्द कर दिया। पुनरीक्षण याचिकाकर्ता को आरोपित अपराध का दोषी नहीं पाया गया और बरी कर दिया गया।

    केस शीर्षक: रंजीत बनाम केरल राज्य

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