"विचाराधीन कैदी के जीने का अधिकार जेल में ज़रा भी कम नहीं होता": मणिपुर हाईकोर्ट ने मेडिकल आधार पर POCSO आरोपी की सजा निलंबित की

Shahadat

27 Aug 2022 8:16 AM GMT

  • विचाराधीन कैदी के जीने का अधिकार जेल में ज़रा भी कम नहीं होता: मणिपुर हाईकोर्ट ने मेडिकल आधार पर POCSO आरोपी की सजा निलंबित की

    Manipur High Court 

    मणिपुर हाईकोर्ट ने हाल ही में मेडिकल आधार पर POCSO आरोपी को जमानत पर रिहा करते हुए कहा, "... विचाराधीन कैदी के जीवन के अधिकार में रत्ती भर भी कमी नहीं आती, जब वह किसी अपराध के आरोपी/दोषी के रूप में जेल में होता है। ऐसे व्यक्ति की स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं का राज्य द्वारा ध्यान रखा जाता है।"

    जस्टिस एम. वी. मुरलीधरन की पीठ ने इस बात पर भी जोर दिया कि किसी अभियुक्त की गरिमा का अधिकार न्यायाधीशों के साथ समाप्त नहीं होता, बल्कि यह जेल के द्वार से परे रहता है और उसकी अंतिम सांस तक चलता है।

    कोर्ट ने कहा,

    "सबसे कीमती मौलिक 'जीवन का अधिकार' बिना किसी शर्त के विचाराधीन व्यक्ति को भी शामिल करता है... प्रत्येक व्यक्ति जिस पर किसी अपराध का आरोप लगाया जाता है, उसे जेल अधिकारियों द्वारा मानवीय व्यवहार की आवश्यकता होती है। आरोपी/दोषी सहित सभी के साथ मानवीय व्यवहार कानून की आवश्यकता है। इसके अलावा कैदी/दोषी जो किसी बीमारी से पीड़ित है, उसे जेल में रहते हुए उचित उपचार और देखभाल दी जानी चाहिए।"

    इसके साथ, पीठ ने सजा को निलंबित कर दिया और पॉक्सो आरोपी को जमानत पर रिहा कर दिया, जो किडनी फेल होने; पित्ताशय में पथरी और रीढ़ की हड्डी की समस्या आदि से पीड़ित है।

    संक्षेप में मामला

    आरोपी को अक्टूबर, 2018 में विशेष न्यायाधीश (पॉक्सो), इंफाल पश्चिम द्वारा पॉक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 6 के तहत दोषी ठहराया गया था। उसे 20 साल के कठोर कारावास और 30,000 / - रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी।

    याचिकाकर्ता/अभियुक्त ने जेल अपील दायर की। अपील के साथ उसने वर्तममान याचिका भी दायर कर सजा को निलंबित करने की मांग करते हुए कहा कि वह मरीज है, जो दाहिनी किडनी फेल होने, पित्ताशय की पथरी, रीढ़ की हड्डी की समस्या और अन्य गंभीर शारीरिक चोटों से पीड़ित है। इसके कारण वह बिना कमर बेल्ट के बैठने, खड़े होने और सोने में असमर्थ है, क्योंकि इस तरह की चोटों के कारण रीढ़ की हड्डी पर उसकी बीमारी का खतरा बढ़ रहा है।

    इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि यदि याचिकाकर्ता को अपील के निपटारे तक जमानत पर रिहा नहीं किया जाता है तो उसकी फेल किडनी के पहले की तुलना में अधिक गंभीर होने के कारण उसकी उम्र कम हो जाएगी। इस प्रकार, याचिकाकर्ता के जीवन को बचाने के लिए लंबित अपील में जमानत देने की प्रार्थना की गई।

    अंत में यह भी प्रस्तुत किया गया कि आक्षेपित निर्णय में बहुत सी कमियां हैं और याचिकाकर्ता के पास अपील को सफल बनाने के गुण के आधार पर अच्छा मामला है।

    न्यायालय की टिप्पणियां

    कोर्ट ने नोट किया कि याचिकाकर्ता द्वारा आक्षेपित निर्णय में कमजोरियों को इंगित करने वाले आधारों पर इस स्तर पर विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसमें उस संबंध में न्यायिक घोषणाओं के साथ-साथ तर्क शामिल होंगे। इसलिए अदालत खुद को इस सवाल तक सीमित कर लिया कि क्या याचिकाकर्ता अपील के लंबित रहने के कारण मेडिकल आधार पर सजा को निलंबित करके जमानत पाने का हकदार है।

    इस संबंध में कोर्ट ने 2019 की मेडिकल रिपोर्ट का अवलोकन किया और पाया कि हालांकि याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोपित अपराध गंभीर प्रकृति का है और याचिकाकर्ता की स्वास्थ्य स्थिति को ध्यान में रखते हुए समाज की मानवीय गरिमा का भी अपमान है। उनकी दाहिनी किडनी और पथरी से उनके पित्ताशय के और अधिक गंभीर होने के कारण जेल के बाहर बेहतर इलाज करने के लिए इस अदालत ने सजा को निलंबित करके मुख्य रूप से मेडिकल आधार पर याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा करना उचित समझा।

    कोर्ट ने यह भी नोट किया कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध मेडिकल रिकॉर्ड प्रथम दृष्टया सही किडनी, पित्ताशय में पथरी और रीढ़ की हड्डी की समस्याओं का पता चला है। अदालत ने यह भी कहा कि हालांकि पेश किए गए मेडिकल रिकॉर्ड वर्ष 2019 के है, लेकिन पीड़ित पक्ष द्वारा याचिकाकर्ता के स्वास्थ्य में सुधार दिखाने के लिए कुछ भी पेश नहीं किया गया।

    अदालत ने यह भी कहा कि पीड़ित पक्ष यह दिखाने के लिए कि जेल में याचिकाकर्ता को लगभग चार साल तक उचित उपचार दिया जाता है, याचिकाकर्ता से संबंधित कोई भी नवीनतम मेडिकल रिकॉर्ड पेश करने में विफल रहा है।

    इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी पाया कि व्यावहारिक कारणों से भी याचिकाकर्ता द्वारा अपनी दोषसिद्धि को चुनौती देने वाली अपील का निपटारा शीघ्रता से नहीं किया जा सकता।

    इस संबंध में न्यायालय ने भगवान राम शिंदे गोसाई और अन्य बनाम गुजरात राज्य, (1999) 4 एससीसी 421 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें यह माना गया कि जब दोषी व्यक्ति को निश्चित अवधि की सजा सुनाई जाती है और अपीलीय न्यायालय द्वारा पाया जाता है कि व्यावहारिक कारणों से अपील का शीघ्र निपटारा नहीं किया जा सकता है तो यह सजा के निलंबन के लिए उचित आदेश पारित कर सकता है।

    अदालत ने आगे टिप्पणी की,

    "जहां हाईकोर्ट के समक्ष दोषसिद्धि के खिलाफ अपील की जाती है, हाईकोर्ट के पास सजा को निलंबित करने की पर्याप्त शक्ति और विवेक है। उस विवेक का प्रयोग प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए। सजा के निलंबन पर विचार करते समय प्रत्येक मामले पर अपराध की प्रकृति के आधार पर विचार किया जाना चाहिए, जिस तरह से घटना हुई है, क्या पहले दी गई जमानत का दुरुपयोग किया गया है। कोई स्ट्रेटजैकेट फॉर्मूला नहीं है जिसे विवेक और तथ्यों का प्रयोग करने में लागू किया जा सकता हो। प्रत्येक मामले की परिस्थितियां सीआरपीसी की धारा 389 के तहत दोषी द्वारा दायर आवेदन पर विचार करते हुए विवेकपूर्ण विवेक के प्रयोग को नियंत्रित करेंगी।"

    नतीजतन, तथ्यों और परिस्थितियों की समग्रता पर विचार करते हुए और ऊपर वर्णित कारणों और स्वास्थ्य के आधार पर अदालत ने याचिकाकर्ता की सजा को निलंबित कर दिया और उसे जमानत पर रिहा कर दिया।

    केस टाइटल- सैंडम भोगेन मीतेई बनाम मणिपुर राज्य

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