उत्तर प्रदेश पुलिस आईटी एक्ट की 'असंवैधानिक' धारा 66 ए के तहत लगातार दर्ज कर रही एफआईआर, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी इसे खारिज करने से किया इनकार

LiveLaw News Network

7 July 2020 8:37 AM GMT

  • उत्तर प्रदेश पुलिस आईटी एक्ट की असंवैधानिक धारा 66 ए के तहत लगातार दर्ज कर रही एफआईआर, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी इसे खारिज करने से किया इनकार

    सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में दिए गए एक फैसले (श्रेया सिंघल बनाम बनाम यून‌ियन ऑफ इंडिया) में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए को रद्द कर चुकी है। पिछले वर्ष, शीर्ष अदालत ने 'असंवैधानिक' धारा 66 ए के निरंतर प्रयोग पर अपनी चिंता जाहिर की थी और नाराजगी व्यक्त की थी।

    हाल ही में, रोहित सिंघल नाम के एक व्यक्ति ने धारा 3/7, आवश्यक वस्तु अधिनियम, और धारा 66A सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत उसके खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच के समक्ष याचिकाकर्ता के वकील ने श्रेया सिंघल मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया।

    हालांकि, अदालत ने धारा 66 ए के तहत दर्ज एफआईआर को रद्द करने से इनकार कर दिया और निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को उपरोक्त मामले में गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, जब तक कि सक्षम कोर्ट के समक्ष, धारा 173 (2) सीआरपीसी के तहत पुलिस रिपोर्ट, यदि कोई हो तो, प्रस्तुत नहीं की जाती है। हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता को मामले की जांच में सहयोग करने का भी निर्देश दिया।

    हाल ही में, एक अमर उजाला के एक पत्रकार शिव कुमार ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 188 और 505 के तहत, साथ में पढ़ें, महामारी अधिनियम की धारा 3 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसे रद्द करने की मांग उन्होंने की थी। उनकी याचिका का निस्तारण करते हुए, कोर्ट ने पाया कि 'यह स्पष्ट है कि संज्ञेय अपराध किया गया है, जिसके लिए जांच की प्रक्रिया जारी है..' अदालत ने पुलिस रिपोर्ट दाखिल करने तक याचिकाकर्ता को संरक्षण प्रदान किया।

    अदालत धारा 66 ए के तहत दर्ज एफआईआर को रद्द कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया।

    सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 19 (1) (ए) के उल्लंघन और अनुच्छेद 19 (2) के तहत बचाए जाने योग्य न होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए को रद्द कर चुका है। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए को 2009 के संशोधन अधिनियम के आधार पर पेश किया गया था।

    उक्त प्रावधान के तहत किसी भी व्यक्ति को दंडित किया जाता था, जो कंप्यूटर संसाधन या संचार उपकरण के माध्यम से- (क) कोई भी जानकारी, जो घोर आपत्तिजनक है या घातक चरित्र की है, भेजता है ; या (बी) ऐसी कोई भी जानकारी, जिसके झूठ होने के बारे में उसे पता है, लेकिन चिढ़, असुविधा, खतरा, बाधा, अपमान, चोट, आपराधिक धमकी, दुश्मनी, घृणा या गलत इरादा पैदा करने के लिए कंप्यूटर संसाधन या संचार उपकरण का प्रयोग कर लगातार भेजी जाती है (ग) किसी भी इलेक्ट्रॉनिक मेल या इलेक्ट्रॉनिक मेल मैसेज को चिढ़ या असुविधा पैदा करने के लिए भेजा जाता है या ऐसे संदेशों की उत्पत्ति के बारे में प्राप्तकर्ता को धोखा देने या भ्रमित करने के इरादे से भेजा जाता है। ऐसे अपराधों में कारावास का दंड निर्धारित किया गया था, जिसे जुर्माने के साथ, तीन साल तक बढ़ाया जा सकता था।

    इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने दो साल पहले एक पेपर जारी किया था, जिसमें दावा किया गया था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद, धारा 66 ए का इस्तेमाल पूरे भारत में किया जाता रहा है। अभिनव सेखरी और अपार गुप्ता ने अपने एक पेपर में धारा 66 ए को "कानूनी जॉम्बी" कहा है, जिसमें कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी, यह धारा भारतीय आपराधिक प्रक्रिया को परेशान कर रही है।

    तर्क दिया गया था, गहरी संस्थागत समस्याओं के कारण अदालती फैसले जमीनी स्तर पर नहीं पहुंच पाते हैं। अध्ययन में कहा गया है, "थाने से लेकर ट्रायल कोर्ट तक और हाईकोर्टों तक, धारा 66-ए का इस्तेमाल अभी भी जारी है।

    जनवरी 2019 में, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) ने शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया ‌था और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए के निरंतर उपयोग की ओर ध्यान दिलाया ‌था। अटॉर्नी जनरल के सुझाव से सहमत होते हुए, उस समय, सुप्रीम कोर्ट ने सभी सभी हाईकोर्टों को सभी जिला न्यायालयों को 'श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया' में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतियां आठ सप्ताह में उपलब्ध कराने का निर्देश देते हुए, आवेदन का निस्तारण कर दिया था।

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