विचाराधीन कैदियों को अपनी पसंद के अनुसार जेल चुनने का अधिकार नहीं है; प्राधिकरण ट्रायल कोर्ट की अनुमति लेने के लिए बाध्य नहींः जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

17 July 2021 8:45 AM GMT

  • विचाराधीन कैदियों को अपनी पसंद के अनुसार जेल चुनने का अधिकार नहीं है; प्राधिकरण ट्रायल कोर्ट की अनुमति लेने के लिए बाध्य नहींः जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट

    J&K&L High Court

    जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने गुरुवार को कहा कि एक विचाराधीन कैदी को मुकदमे के दौरान अपनी पसंद की जेल चुनने का अधिकार नहीं है और इसलिए, उसे इस संबंध में सुनवाई का अवसर प्रदान करने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।

    न्यायमूर्ति संजीव कुमार ने यह भी माना कि चूंकि विचाराधीन कैदी को एक जेल से दूसरी जेल में स्थानांतरित करने से पहले न्यायालय की अनुमति अनिवार्य नहीं है, ऐसी स्थिति में न्यायालय कोई ऐसा न्यायिक या अर्ध-न्यायिक कार्य नहीं करता है, जिसमें अनुमति देने से पहले विचाराधीन कैदी का पक्ष सुनने की आवश्यकता हो।

    अदालत ने कहा कि,''..यह माना जाता है कि किसी आपात स्थिति में या प्रशासनिक कारणों से विचाराधीन कैदियों को एक जेल से दूसरी जेल में स्थानांतरित करने के संबंध में जेल महानिरीक्षक द्वारा किया जाने वाला कार्य प्रकृति में प्रशासनिक है और इसलिए, इसमें विचाराधीन कैदी को सुनवाई का अवसर प्रदान करने के लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि उसे मुकदमे के दौरान अपनी पसंद की जेल चुनने का कोई अधिकार नहीं है।''

    इसके अलावा, यह भी कहा कि,

    ''एक विचाराधीन व्यक्ति को प्रीवेंटिव डिटेंशन के तहत रखे गए एक व्यक्ति की तुलना में बेहतर स्थान पर नहीं रखा जाता है और वह प्रीवेंटिव डिटेंशन के तहत किसी व्यक्ति को उपलब्ध अधिकारों से अधिक अधिकारों का दावा नहीं कर सकता है।''

    अदालत यूएपीए, आर्म्स एक्ट और अन्य अपराधों के तहत आरोपी दो व्यक्तियों से जुड़े 2013 के एक मामले पर विचार कर रही थी, जिनके खिलाफ स्पेशल एनआईए जज के समक्ष मुकदमा चल रहा है। यह याचिका कश्मीर घाटी के बाहर एक जेल में उनके स्थानांतरण का विरोध करते हुए दायर की गई थी।

    उन्होंने आरोप लगाया कि कश्मीर से बाहर उनके स्थानांतरण और अभियोजन पक्ष द्वारा सुनवाई की प्रत्येक तारीख पर उन्हें अदालत के समक्ष पेश करने में विफलता के कारण उनके मुकदमे में देरी हो रही है।

    स्पेशल कोर्ट ने 3 मई 2019 के आदेश के तहत श्रीनगर स्थित केंद्रीय जेल के प्रभारी को निर्देश दिया था कि अगर वह ऐसा करना उचित समझते हैं तो प्राथमिकी में आरोपी याचिकाकर्ता व अन्य आरोपियों को केंद्रीय जेल, श्रीनगर से जम्मू में निर्दिष्ट जेल में स्थानांतरित कर दें। याचिकाकर्ताओं के अनुसार, उक्त आदेश का राज्य द्वारा पालन नहीं किया गया था और उन्हें जम्मू की किसी अन्य जेल में स्थानांतरित कर दिया गया था।

    न्यायालय के समक्ष मुद्दे

    - क्या एक विचाराधीन, जिसे निचली अदालत द्वारा न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है, को निचली अदालत की अनुमति के बिना एक जेल से दूसरी जेल में स्थानांतरित किया जा सकता है?

    - क्या एक विचाराधीन कैदी को एक जेल से दूसरी जेल में स्थानांतरित करने से पहले प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अनुपालन आवश्यक है, जिनमें स्थानांतरित किए जाने वाले विचाराधीन को सुनवाई का अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है?

    दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 167, 309 और 417 को संयुक्त रूप से पढ़ते हुए, कोर्ट ने कहा कि न तो किसी विचाराधीन कैदी और ना ही सजा पाए किसी कैदी को अपनी पसंद की जेल चुनने का अधिकार है और न ही अदालत रिमांड या वारंट जारी करते समय किसी विचाराधीन कैदी को रखने के लिए जेल को नामित करने के लिए बाध्य है।

    पीठ ने यह भी कहा कि,''..जब दंड प्रक्रिया संहिता निचली अदालत को किसी विचाराधीन कैदी को किसी विशेष जेल में रखने का निर्देश देने के लिए अधिकृत नहीं करती है, तो यह मान लेना सही और तर्कसंगत नहीं है कि जिस जेल में विचाराधीन को ट्रायल कोर्ट ने रिमांड के आदेश के दौरान रखा गया था, उस जेल को ट्रायल कोर्ट द्वारा नामित किया गया था और ऐसी जेल से एक विचाराधीन कैदी को कहीं और ले जाने के लिए प्रतिवादी ट्रायल कोर्ट की पूर्व अनुमति लेने के लिए बाध्य हैं।''

    इसके अलावा, यह भी कहाः

    ''निस्संदेह, एक विचाराधीन कैदी के पास त्वरित सुनवाई का मौलिक अधिकार है और विचाराधीन कैदी को न्यायालय के निकट स्थित जेल से कुछ परिस्थितियों में दूर स्थित जेल में मनमाने ढंग से स्थानांतरण करके राज्य द्वारा इस तरह के अधिकार को कम करने का कोई भी प्रयास, विचाराधीन कैदी के निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई के अधिकार के उल्लंघन समान हो सकता है।

    ऐसी स्थिति में, संवैधानिक न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है, लेकिन इसके लिए विचाराधीन कैदी को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक विचाराधीन व्यक्ति को दिए गए त्वरित सुनवाई के अपने अधिकार के उल्लंघन का मामला साबित करना होगा। याचिका में प्रस्तुत और प्रदर्शित किए गए ऐसे किसी भी मूलभूत तथ्यों के अभाव में, ऐसे पहलुओं पर न्यायालय द्वारा विचार करना व्यर्थता की कवायद होगी।''

    मामले के तथ्यों पर आते हुए, न्यायालय का विचार था कि विशेष न्यायालय द्वारा पारित आदेश का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता है कि उसने जेल नियमावली के तहत जेल महानिरीक्षक की मिली शक्तियों को छीन लिया है।

    याचिका को खारिज करते हुए, कोर्ट ने हालांकि आईजीपी को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि प्राथमिकी में आरोपी याचिकाकर्ताओं और अन्य आरोपियों के मुकदमे की सुनवाई में देरी उनकी कोर्ट के समक्ष अनुपस्थिति के कारण न हो।

    अदालत ने आदेश दिया है कि, ''यह सुनिश्चित करना जेल महानिरीक्षक का कर्तव्य होगा कि याचिकाकर्ताओं को नियत तारीखों पर या तो फिजिकल रूप से या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से ट्रायल कोर्ट में पेश किया जाए।''

    केस का शीर्षकः बशीर अहमद मीर व अन्य बनाम राज्य व अन्य

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