'उमादेवी जजमेंट को सख्त कट-ऑफ तारीख के रूप में नहीं देखा जा सकता': त्रिपुरा हाईकोर्ट ने कैजुअल वर्कर के नियमितीकरण के दावे को बरकरार रखा

LiveLaw News Network

16 March 2021 4:58 AM GMT

  • उमादेवी जजमेंट को सख्त कट-ऑफ तारीख के रूप में नहीं देखा जा सकता: त्रिपुरा हाईकोर्ट ने कैजुअल वर्कर के नियमितीकरण के दावे को बरकरार रखा

    त्रिपुरा हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में सरकारी नौकरी में नियमितीकरण (Regularization) के लिए किए गए 13 अनियमित कर्मचारी (कैजुअल वर्कर) के दावे को बरकरार रखा।

    चीफ जस्टिस अकील कुरैशी और जस्टिस एसजी चट्टोपाध्याय की खंडपीठ ने त्रिपुरा सरकार को निर्देश दिया कि वह सरकारी नौकरी में नियमितीकरण के लिए याचिकाकर्ताओं के दावे पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन करे।

    पीठ ने आदेश दिया कि निम्नलिखित शर्तों को पूरा करने वाले कर्मचारियों को नियमित किया जाना चाहिए।

    (i) वे याचिकाकर्ता जिन्होंने अपनी प्रारंभिक समय में (नौकरी लगते समय) आवश्यक शैक्षणिक योग्यता प्राप्त की है;

    (ii) वे याचिकाकर्ता जो उच्च न्यायालय के समक्ष आने से पहले ही 10 साल से अधिक समय इस नौकरी में दे चुके हों ताकि उन्हें बर्खास्तगी से सुरक्षा मिल सके।

    कोर्ट ने आदेश दिया कि नियमितीकरण फैसले की तारीख से लागू होगा।

    उमादेवी मामले में दिए गए निर्णय में नियमितीकरण के लिए कोई सख्त कट-ऑफ तारीख नहीं रखा गया।

    पीठ ने कहा कि,

    सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक राज्य के सचिव बनाम उमादेवी एंड अन्य (2006) 4 SCC 1 मामले में अपने फैसले में कहा था कि इसे सख्त कट-ऑफ तारीख के रूप में नहीं देखा जा सकता है।

    सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने उमादेवी मामले में कहा था कि,

    "अनियमित कर्मचारी या दैनिक वेतन पर नियुक्त लोगों को रोजगार में नियमितीकरण का कोई अधिकार नहीं है और केवल ऐसे कर्मचारी के नियमितीकरण करने की अनुमति दी जा सकती है, जो लगातार दस साल से काम कर रहे हैं।"

    राज्य ने इस आदेश पर भरोसा जताते हुए तर्क दिया कि उमादेवी मामले के फैसले की तारीख 4 अप्रैल, 2006 थी, इस तारीख के बाद किसी भी अनियमित कर्मचारी को नियमित नहीं किया जा सकता।

    पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों का हवाला देते हुए इस तर्क को खारिज कर दिया, जो फैसले उमादेवी केस के बाद दिए गए। पीठ ने नरेंद्र कुमार तिवारी और अन्य बनाम झारखंड राज्य और अन्य (2018) 8 एससीसी 238, कर्नाटक राज्य और अन्य बनाम एम. एल. केसरी और अन्य (2010) 9 एससीसी 247, अमरकांत राय बनाम बिहार राज्य (2015) 8 एससीसी 265 मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का जिक्र किया।

    कोर्ट ने कहा कि,

    '' उपरोक्त निर्णयों को रद्द करना यह होगा कि उमादेवी (सुप्रीम कोर्ट) मामले में दिए गए निर्देशों को अदालत के हस्तक्षेप के बिना नौकरी के 10 साल पूरे होने के सिद्धांत को लागू करने के लिए एक कठोर तय कट-ऑफ तारीख के रूप में नहीं देखा जा सकता है। उमादेवी (सुप्रीम कोर्ट) मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट कट-ऑफ तारीख का हवाला देकर, राज्य और उसके अधिकारी अनियमित आधार पर दशकों से काम कर रहे कर्मचारी के किसी भी अधिकार को मान्यता देने से इनकार कर सकते हैं।"

    बेंच ने राज्य विरोधाभासी के रुख को भी रद्द कर दिया, क्योंकि यह उमादेवी मामले के फैसले के 10 साल के बाद भी अनियमित आधार पर नौकरी जारी रखता है।

    पीठ ने फैसले में कहा कि,

    "संवैधानिक पीठ द्वारा वर्ष 2006 में उमादेवी (सुप्रीम कोर्ट) के मामले में सुनाया गया फैसला, न्यायालयों के किसी भी हस्तक्षेप के बिना यह अनियमित कार्य जून 2017 तक जारी रहा। इस प्रकार कुछ मामलों में उमादेवी के मामले में दिए गए निर्णय के बाद एक दशक से अधिक समय तक अनियमित कार्य जारी रहा। सरकार का तर्क यह है कि उमादेवी (सुप्रीम कोर्ट) मामले में लिए गए निर्णय के आधार पर ऐसी अनियमित कर्मचारी को नियमित नहीं किया जा सकता है, तो यह उस स्थिति में एक विरोधाभास होगा जब उमादेवी (सुप्रा) मामले में दिए गए निर्णय के बाद राज्य अनियमित आधार पर कर्मचारी के लंबे समय तक नौकरी करने के लिए एक नए सिरे से काम करेगा।"

    पीठ ने आगे कहा कि,

    "यहां तक कि जो लोग नियमितीकरण के लिए योग्यता प्राप्त नहीं कर सकते हैं, उन्हें नीति में बदलाव का हवाला देकर दस साल से एक साथ काम करने के बाद उन्हें विस्थापित नहीं किया जा सकता है, इस आधार पर कि इस तरह के काम को आउटसोर्स किया जाएगा। यह राज्य के लिए अपने कुछ कार्यों को आउटसोर्स करने के लिए खुला हो सकता है लेकिन लंबे समय से लगे हुए लोगों को विस्थापित नहीं किया जा सकता है और वह भी तब जब रिक्तियां जिनके खिलाफ जाकर काम शुरू किया गया था और अभी भी यह जारी है।"

    कोर्ट ने आगे कहा कि राज्य के लिए एक साथ दशकों से काम कर रहे उन कर्मचारी को निश्चित मजदूरी का भुगतान के लिए खुला नहीं है, जो

    (i) उनकी नौकरी स्वीकृत पदों के विरुद्ध है;

    (ii) उन्हें लंबे समय तक जारी रखा गया है;

    (iii) वे पद के लिए निर्धारित शैक्षणिक योग्यता पूरी करते हैं;

    (iv) वे कार्य हर मौसम काम करने को तैयार हैं;

    (iv) वे जब से काम कर रहे हैं तब से ही लगभग लगातार लगे हुए हैं और

    (v) वे वही काम कर रहे हैं जो नियमित कर्मचारी कर रहे हैं।

    कोर्ट ने कहा कि,

    "उन्हें वेतन और भत्ते के उद्देश्य से नियमित रूप से सरकारी कर्मचारियों के बराबरी का दर्जा नहीं दिया जा सकता है, फिर भी समान कार्य के लिए समान वेतन के सिद्धांत पर जैसा कि पंजाब राज्य और अन्य बनाम जगजीत सिंह और अन्य (2017) 1 SCC 148 मामले में विस्तृत रूप से समझाया गया है। इसमें कहा गया है कि उन्हें दैनिक आधार पर वेतन मिलना चाहिए, जो प्रश्नोत्तर अन्य भत्तों को घटाकर पद के लिए निर्धारित वेतन है।"

    पीठ ने निम्नलिखित टिप्पणियां कीं;

    (a) कोई भी याचिकाकर्ता कार्य की आउटसोर्सिंग के लिए अलग नहीं होगा। हालांकि, विभाग चाहे तो नियमित आधार पर नियुक्तियां कर सकता है, जिसमें संबंधित याचिकाकर्ता यदि नियमितीकरण के लिए योग्य नहीं है, तो उन्हें जगह खाली करनी होगी और इसके साथ ही विभाग के पास पदों को समाप्त करने का भी विकल्प है और इस तरह की स्थिति में लास्ट कम फस्ट गो के सिद्धांत का पालन कर सकता है।

    (b) जब तक इन याचिकाकर्ताओं में से किसी को भी नियमित नहीं किया जाता है और जब तक वे याचिकाकर्ता नियमित होने के लिए योग्यता प्राप्त नहीं कर लेते हैं लेकिन उसी क्षमता से काम में लगे रहते हैं, तब तक उन्हें पद के लिए भत्ते के बिना निर्धारित न्यूनतम वेतन के आधार पर दैनिक वेतन का भुगतान किया जाएगा।

    (c) संशोधित मजदूरी का भुगतान निर्णय की तारीख से किया जाएगा।

    (d) नियमितीकरण फैसले की तारीख से छह महीने के भीतर पूरी हो जाएगी।

    इसी तरह के एक मामले में केरल हाईकोर्ट ने केरल सरकार द्वारा जारी किए गए कुछ आदेशों और इसके तहत निकायों को अस्थायी कर्मचारियों को नियमित करने के लिए दिए गए आदेश उमादेवी मामले के फैसले के खिलाफ होने पर गैर-कानूनी घोषित किया था।

    जजमेंट की कॉपी यहां पढ़ें:



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