ट्रायल कोर्ट खुद दिए आजीवन कारावास को शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास में नहीं बदल सकता: दिल्ली हाईकोर्ट
Avanish Pathak
9 Jun 2022 3:36 PM IST
दिल्ली हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून की एक स्थिति को दोहराया है कि ट्रायल कोर्ट खुद दिए गए आजीवन कारावास के दंड को शेष प्राकृतिक जीवन के लिए तय करने के लिए अर्ह (qualify) नहीं है।
जस्टिस मुक्ता गुप्ता और जस्टिस मिनी पुष्कर्ण की खंडपीठ ने तीन साल की नाबालिग बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में तीन लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कहा कि अपराध पैशाचिक और क्रूर ढंग से किया गया है।
निचली अदालत ने तीनों को भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2) और धारा 302 के तहत दोषी ठहराया था और उन्हें शेष प्राकृतिक जीवन के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
बेंच ने सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि यूनियन ऑफ इंडिया बनाम श्रीहरन @ मुरुगन और अन्य के अनुसार, किसी विशिष्ट अवधि के लिए या दोषी के जीवन के अंत तक, मृत्युदंड के विकल्प के रूप में, संशोधित सजा देने की शक्ति केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास ही है, न कि किसी अन्य न्यायालय के पास।
इसलिए, हाईकोर्ट का विचार था कि धारा 376(2) और 302/34 आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधों के लिए अपीलकर्ताओं को शेष आजीवन कारावास की सजा देने की हद तक सजा पर आक्षेपित आदेश कायम नहीं रखा जा सकता है।
हाईकोर्ट के समक्ष यह प्रश्न इस प्रकार था कि क्या हाईकोर्ट अपने अपीलीय क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए यह निर्देश दे सकता है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई आजीवन कारावास शेष जीवन या एक निश्चित अवधि के लिए होगी।
कोर्ट ने कहा कि हालांकि ट्रायल कोर्ट दोषियों के शेष प्राकृतिक जीवन के लिए आजीवन कारावास की सजा नहीं दे सकता है, हाईकोर्ट हालांकि अपने अपीलीय अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए उक्त आदेश को खारिज कर सकता है, लेकिन मामले के तथ्यों पर विचार करते हुए वह इसी सजा को दे सकता है।
कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम श्रीहरन @ मुरुगन और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में निर्धारित स्थिति को दोहराया जिसमें यह माना गया था कि किसी भी विशिष्ट अवधि के लिए या मौत की सजा के विकल्प के रूप में दोषी के जीवन के अंत तक की सजा के रूप में संशोधित दंड को लागू करने की शक्ति का प्रयोग केवल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जा सकता है, न कि किसी अन्य न्यायालय द्वारा।
गौरी शंकर बनाम पंजाब राज्य में उक्त स्थिति को दोहराया गया था।
इस प्रकार, कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2) और 302 आजीवन कारावास की सजा देकर अपने अपीलीय अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया। यह देखा गया कि मामले के तथ्यों में शेष जीवन के लिए आजीवन कारावास एक उपयुक्त सजा होगी।
यह देखते हुए कि ट्रायल कोर्ट द्वारा मौत की सजा नहीं दी गई थी, कोर्ट ने कहा कि आजीवन कारावास की सजा जो आमतौर पर छूट के बाद चौदह साल तक होगी, पीड़ित के लिए अत्यधिक अपर्याप्त, अन्यायपूर्ण और अनुचित होगी।
अदालत ने कहा,
"मौजूदा मामले में, तीन अपीलकर्ताओं को सामूहिक बलात्कार और 3 साल की नाबालिग की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया है, जिससे उसके निजी अंगों को बेरहमी से काट दिया गया और उसकी हत्या कर दी गई।"
इसलिए, इसने कहा कि अपीलकर्ताओं को शेष आजीवन कारावास मामले के तथ्यों में एक उपयुक्त सजा होगी।
केस टाइटल: जमाहिर उर्फ जवाहर बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य सरकार
साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (दिल्ली) 547