'ट्रांसजेंडर जातिगत पहचान नहीं, हर व्यक्ति को आत्मनिर्णय की अनुमति होनी चाहिए': पटना हाईकोर्ट

Shahadat

23 Aug 2023 10:29 AM IST

  • ट्रांसजेंडर जातिगत पहचान नहीं, हर व्यक्ति को आत्मनिर्णय की अनुमति होनी चाहिए: पटना हाईकोर्ट

    पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा, "ट्रांसजेंडर जातिगत पहचान नहीं है और पुरुष/महिला लिंग वर्गीकरण के अनुरूप नहीं होने वाले लोगों सहित प्रत्येक व्यक्ति को आत्मनिर्णय की अनुमति दी जानी चाहिए।"

    चीफ जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस पार्थ सारथी की खंडपीठ ने कहा कि बिहार सरकार ने 2022 के जाति सर्वेक्षण के लिए जाति गणना के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को शामिल करके गलती की है।

    कोर्ट ने कहा कि समुदाय का कोई भी व्यक्ति ट्रांसजेंडरों को जाति के रूप में न मानने की मांग करते हुए राज्य सरकार को प्रतिनिधित्व देने का हकदार होगा। हालांकि, उसने इस मामले में हस्तक्षेप करने से परहेज किया।

    इसमें कहा गया कि यह "गलती" केवल राज्य को समुदाय के लिए कल्याणकारी उपाय तैयार करने में सक्षम बनाएगी। इसमें कहा गया कि इरादा जाति के आधार पर लाभ देना नहीं है, बल्कि व्यक्तियों के बड़े समूह के संकेतक के रूप में जाति के साथ समुदायों की पहचान करना है, जिन्हें समान स्थिति सुनिश्चित करने के लिए उनके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक उत्थान के लिए उपायों की आवश्यकता होगी।

    कोर्ट ने कहा,

    "इस न्यायालय की राय है कि जहां तक लोगों के समूह, जो 'ट्रांसजेंडर' हैं, उनको जाति गणना के तहत शामिल करने में गलती हुई; समुदाय की अलग पहचान और उनकी सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक स्थिति की जांच की जानी चाहिए। समूह केवल कल्याणकारी उपायों को आगे बढ़ा सकता है और ऐसी सामूहिक सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति के सत्यापन के बाद ही समुदाय को उत्थान के लिए लक्षित किया जा सकता है।

    यह घटनाक्रम रेशमा प्रसाद द्वारा दायर उस रिट याचिका में आया, जिसमें तर्क दिया गया कि जाति और लिंग किसी व्यक्ति की पहचान के अलग-अलग पहलू हैं। इस प्रकार, जाति श्रेणी के भीतर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को वर्गीकृत करना अनुच्छेद 14, 15, 16 और 21 का उल्लंघन है।

    इसके अतिरिक्त, यह तर्क दिया गया कि यह वर्गीकरण अन्यायपूर्ण तरीके से ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को उनकी लिंग पहचान चुनने के अधिकार से वंचित करता है, उनके आत्मनिर्णय के अधिकार को बाधित करता है और भारत के संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के साथ असंगत है। याचिकाकर्ता ने राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मिसाल का सहारा लिया।

    राज्य सरकार ने जवाबी हलफनामा दायर कर अदालत को सूचित किया कि 25.04.2023 को गणनाकर्ताओं को पुरुष, महिला या अन्य के लिए तीन विकल्प रखने का निर्देश देकर इस विसंगति को सुधारा गया, जिसमें तीसरा विकल्प ट्रांसजेंडरों के लिए है।

    इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि ट्रांसजेंडरों को 214 नामित जातियों में शामिल किया गया, कोर्ट ने कहा,

    “जाहिर तौर पर विकास में न्याय सुनिश्चित करने और हाशिए पर रहने वाले लोगों के हितों की रक्षा के लिए राज्य सरकार द्वारा जाति सर्वेक्षण शुरू किया गया और समाज के भीतर दलित समूह को जारी रखा गया। इस पर हमें तुरंत ध्यान देना होगा कि ट्रांसजेंडर ऐसे हाशिए पर रहने वाले समूहों की मदद के लिए उचित कल्याणकारी योजनाएं बनाकर उत्थान और समान अधिकारों की मांग कर रहे हैं, जो सर्वेक्षण के परिणामों से सामने आ सकता है।

    इसमें कहा गया,

    "जाति और जेंडर की अलग-अलग पहचान के संबंध में विवाद और आत्मनिर्णय के ख़त्म होने की आशंका को कम कर दिया गया।"

    केस टाइटल: रेशमा प्रसाद बनाम बिहार राज्य और अन्य

    केस नंबर: सिविल रिट क्षेत्राधिकार केस नंबर 6505/2023

    याचिकाकर्ताओं के वकील: सचिना, प्रतिवादी/प्रतिवादियों के वकील: पी.के. शाही (एजी)

    फैसले को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




    Next Story