सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया, स्टे देते हुए इन तीन पहलुओं का रखें ध्यान

LiveLaw News Network

3 Dec 2019 4:41 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया, स्टे देते हुए इन तीन पहलुओं का रखें ध्यान

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी भी कोर्ट को स्टे देते समय तीन पहलुओं पर विचार करना चाहिए, जैसे (1) सुविधा संतुलन (2) अपूरणीय क्षति या चोट और (3) प्रथम दृष्टया मामला।

    जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की बेंच ने मिजोरम सरकार द्वारा हाइकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें यह निर्देश दिया गया था कि चूंकि रिट पिटिशन का अंतिम परिणाम लंबित है, इसलिए दिनांक 04।06।19 को रुचि अभिव्यक्त कर चुके पेपर लॉटरी ड्रॉ के सभी अनुसरणकर्ताओं को स्‍थगित रखा जाए।

    यह दलील दी गई थी कि कि स्‍थगन आदेश का प्रभाव ये है कि कोई भी पेपर लॉटरी संचालित नहीं हो सकती है और इसलिए याचिकाकर्ता के समक्ष शर्त रखी जाए कि यदि वो रिट प‌िटिशन में हार जाता है तो राज्य को हुए नुकसान की भरपाई करेगा।

    बेंच ने स्टे देते हुए तीन पहलुओं पर ध्यान दिया थाः

    " दलील के लिए ही सही अगर ये मान लिया जाए कि प्रतिStay,Stay,वादी नंबर 1 रिट पिटिशनर, का पास मामला प्रथम दृष्टया मेरिट पर है, कोई संतुलन भी उसके पक्ष में नहीं है। प्रतिवादी नंबर 1 रिट पिटिशनर, ‌मिरोरम राज्य में उसी ड्रॉ मशीन और कानून के उल्लंघन की उन्हीं कमियों के साथ जिन्हें अब वो अपने पक्ष में होने का दावा करता है, पेपर लॉटरी चला रहा था। सुविधा का संतुलन ऐसे व्यक्तियों के पक्ष में नहीं होता। यदि मामले में स्‍थगनआदेश दिया गया तो प्रतिवादी नंबर 1 रिट पिटिशनर को, कोई चोट या नुकसान नहीं होगा क्योंकि उसे उसी की लगाई गई बोली के मुताबिक लॉटरी चलाने की अनुमति दी जाएगी। दूसरी ओर, यदि लॉटरियों को चलाने की अनुमति नहीं दी जाएगी तो राज्य को प्रतिदिन लगभग 20 लाख रुपए का नुकसान होगा। ऐसे कोई तरीका नहीं कि प्रतिवादी नंबर 1 रिट पिटिशनर द्वारा इस नुकसान की भरपाई हो सके क्योंकि वो इस संबंध में कोई बैंक गारंटी देने के लिए तैयार नहीं है। "

    निषेधाज्ञा देते समय भी इन तीन पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए। काशी मठ संस्थान व अन्य बनाम श्रीमद सुधींद्र तीर्थ स्वामी के मामले में निषेधाज्ञा पर कहा गया है:

    निषेधाज्ञा के आदेश में, जिस पक्ष निषेधाज्ञा की आवश्यकता होती है, उसे साबित करना होगा कि उसने मुकदमे की सुनवाई के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनाया है। सुविधा का संतुलन भी उसके पक्ष में है और निषेधाज्ञा न प्राप्त होने पर उसे अपूरणीय क्षति और चोट का सामना करना पड़ेगा। हालांकि ये समान रूप से तय है कि जब कोई पक्ष ट्रायल के लिए प्रथम दृष्टया केस साबित कर पाने में विफल रहता है तो सुविधा का संतुलन, अपूरणीय हानि और चोट जैसे प्रश्नों पर बिल्कुल भी विचार नहीं होगा, तात्पर्य ये है कि, यदि वह पक्ष ट्रायल के लिए प्रथम दृष्टया केस साबित करने में विफल रहता है, तो कोर्ट के समक्ष विकल्प नहीं है कि उसके पक्ष में निषेधाज्ञा दें, भले ही उसने अपने पक्ष में सुविधा के संतुलन का मामला बना दिया हो और वो ये साबित कर दे कि निषेधाज्ञा नहीं दी गई तो चोट लगेगी या अपूरणीय क्षति होगी।

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