विभागीय जांच के बिना, एफआईआर को संदर्भित कर दिया गया बर्खास्तगी आदेश दोषपूर्णः गुजरात हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
14 Feb 2022 10:15 AM GMT
गुजरात हाईकोर्ट ने कहा कि पूर्ण विभागीय जांच किए बिना कर्मचारी के खिलाफ एफआईआर और मामला दर्ज करने का संदर्भ देकर दिए गए बर्खास्तगी के आदेश का दोषपूर्ण होना तय है। जस्टिस बीरेन वैष्णव की खंडपीठ ने अनुच्छेद 226 के तहत एक याचिका पर यह टिप्पणी की, जिसमें याचिकाकर्ता की सेवाओं को समाप्त करने के लिए किए गए संचार को चुनौती दी गई थी। बेंच ने संचार को रद्द कर दिया।
पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता को गुजरात लाइवलीहुड प्रमोशन कंपनी लिमिटेड में तालुका प्रबंधक के रूप में अनुबंध पर नियुक्त किया गया था। 2018 में कुछ आरोपों के कारण उस पर और अन्य कर्मचारियों पर एफआईआर दर्ज कराई गई।
इसके बाद, याचिकाकर्ता के खिलाफ उसकी सेवाओं को समाप्त करने का आक्षेपित संचार जारी किया गया। याचिकाकर्ता की नियुक्ति अनुबंध में यह निर्धारित किया गया था कि कर्मचारियों को कदाचार, नैतिक अधमता या धोखाधड़ी के आधार पर बर्खास्त किया जा सकता है।
याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि भले ही रोजगार संविदात्मक था, संचार दोषपूर्ण था और उचित जांच के बिना पारित किया गया था। तर्क के समर्थन में उसने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मधुसूदन प्रसाद [(2004) 3 एससीसी 43] और गुजरात राज्य बनाम राहुल आयदनभाई वंक [लेटर्स पेटेंट अपील नंबर 841 ऑफ 2021] और अन्य मामलों पर भरोसा किया।
वहीं, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि नियुक्ति अनुबंध में कहा गया है कि कदाचार या धोखाधड़ी, अवज्ञा आदि के मामले में, याचिकाकर्ता की सेवाएं समाप्त की जा सकती हैं। प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता द्वारा की गई वित्तीय अनियमितताओं के मामले में तालुका विकास अधिकारी द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर का हवाला दिया।
तर्क के समर्थन में प्रतिवादी ने राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम बनाम परमजीत सिंह (2019) 6 एससीसी 250 पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि एक कर्मचारी, जो अस्थायी आधार पर नियुक्त किया गया था, उसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किए बिना टर्मिनेट किया जा सकता है।
जजमेंट
कोर्ट ने विचार किया कि विवादित संचार को दोषपूर्ण माना सकता है। इसे समझने के लिए नितेशकुमार प्रदीपभाई मकवाना बनाम जिला कार्यक्रम समन्वयक और निदेशक [2019 की विशेष नागरिक आवेदन संख्या 48] पर भरोसा किया गया।
जिसमें गुजरात हाईकोर्ट ने कहा था, "प्राधिकरण का निष्कर्ष है कि याचिकाकर्ता प्रत्यक्ष रूप से अनियमितताओं में शामिल था। उसने वित्तीय धोखाधड़ी की और भ्रष्ट आचरण में शामिल था। यह निष्कर्ष बिना किसी जांच के निकाला गया था। समाप्ति का आदेश केवल इस आधार पर दिया गया था कि एफआईआर दर्ज की गई थी। आदेश कदाचार के आरोप पर आधारित था। इसलिए, यह स्पष्ट रूप से दोषपूर्ण है। ऐसे आदेश पारित नहीं किए जा सकते, भले ही याचिकाकर्ताओं की सेवा मनरेगा योजना में एक अनुबंध के तहत थी।"
इस फैसले की पुष्टि गुजरात हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने 2019 के एलपीए नंबर 1596 में भी की थी। दीप्ति प्रकाश बनर्जी बनाम सतवेंद्र नाथ बोस नेशनल सेंटर फॉर बेसिक साइंस, कलकत्ता [AIR 1999 SC 983] के जरिए यह पता लगाया गया कि क्या कोई आदेश यदि किसी मकसद या आधार पर पारित किया गया है तो उसे दोषपूर्ण कहा जा सकता है।
जस्टिस वैष्णव का निष्कर्ष था कि भले ही टर्मिनेशन के आदेश में अनुबंध की शर्तों के अलावा ऐसा कुछ भी संदर्भित नहीं था, जिससे प्रतिवादी को याचिकाकर्ता को टर्मिनेट करने का लाभ मिल सकता था, दीप्ति बनर्जी के फैसले से यह स्पष्ट है कि जो सामग्री दोषपूर्ण होती है उसे समाप्ति के आदेश में शामिल करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि समाप्ति आदेश या उसके अनुलग्नकों में संदर्भित दस्तावेजों में शामिल हो सकता है।
इस प्रकार, एफआईआर और याचिकाकर्ता के खिलाफ दर्ज मामले का हवाला देते हुए, समाप्ति का आदेश दोषपूर्ण हो गया। तद्नुसार, खंडपीठ ने आक्षेपित संचार को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को बहाल किया जाए।
केस शीर्षक: मीनाक्षीबेन लक्ष्मणभाई परलिया बनाम गुजरात राज्य
केस नंबर: सी/एससीए/22681/2019