किशोरियों को अपनी बातें साझा करने के लिए मां की आवश्यकता होती हैः पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने बेटी की कस्टडी मां को सौंपी

LiveLaw News Network

1 March 2021 9:45 AM GMT

  • किशोरियों को अपनी बातें साझा करने के लिए मां की आवश्यकता होती हैः पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने बेटी की कस्टडी मां को सौंपी

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते कहा था कि ऐसी बहुत सी बाते हैं जो एक बेटी अपने पिता के साथ साझा नहीं कर सकती है और बेटी की बढ़ती उम्र में मां उसकी देखभाल करने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति है।

    न्यायमूर्ति अशोक कुमार वर्मा और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मासिह की खंडपीठ ने यह भी कहा कि अपनी किशोरावस्था के दौरान एक बेटी मां/एक महिला साथी की तलाश करती है जिसके साथ वह अपने कुछ मुद्दों को साझा करके उन पर आराम से चर्चा कर सके।

    न्यायालय के समक्ष मामला

    13 वर्षीय बेटी के पिता/अपीलकर्ता ने फैमिली कोर्ट,गुरुग्राम द्वारा पारित निर्णय को चुनौती दी थी। फैमिली कोर्ट ने उसकी पत्नी को पिता/अपीलकर्ता से नाबालिग लड़की की कस्टडी लेने की अनुमति दे दी थी।

    इस मामले की शुरूआत अपीलकर्ता/पिता-रजत अग्रवाल द्वारा नाबालिग की अंतरिम कस्टडी के लिए जिला जज,फैमिली कोर्ट, गुरुग्राम के समक्ष दाखिल किए गए आवेदनों से हुई थी,जिन्हें 5 अप्रैल 2018 के आदेश के तहत फैमिली कोर्ट से हाईकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया था।

    फैमिली कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद 30 मई 2017 को दिए गए फैसले में मां की याचिका को स्वीकार कर लिया था और नाबालिग लड़की- दिशिता की कस्टडी उसकी मां को सौंप दी थी।

    इसलिए, अपीलकर्ता पिता ने फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984 की धारा 19 (1) के तहत वर्तमान अपील दायर की थी।

    कोर्ट के समक्ष दिए गए तर्क

    अपीलकर्ता/पिता/पति एक प्रैक्टिसिंग वकील है और दलील दी गई कि अपीलकर्ता को पिता और प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते अपनी बेटी की कस्टडी का दावा करने का पूरा अधिकार है।

    उन्होंने आगे कहा कि अगर नाबालिग बेटी को प्रतिवादी-मां के साथ रहने की अनुमति दी गई तो इससे नाबालिग के कल्याण को अपूरणीय क्षति होगी।

    दूसरी ओर, प्रतिवादी-पत्नी-माँ के वकील ने तर्क दिया कि नाबालिग बेटी का कल्याण यह माँग करता है कि उसकी कस्टडी प्रतिवादी-माँ के पास ही रहे जो एक शिक्षित महिला है और अपनी बेटी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में सक्षम है। इतना ही नहीं वह उसे एक बेहतर और सुरक्षित घर प्रदान करने में भी सक्षम है, जो उसकी बेटी के हित और कल्याण में है।

    न्यायालय के समक्ष प्रश्न

    क्या पिता या माँ को लगभग 13 साल की नाबालिग बच्ची की कस्टडी मिलनी चाहिए?

    कोर्ट का अवलोकन

    शुरू में, अदालत ने कहा कि कानून के तहत पिता को आमतौर पर परिवार के कामकाजी सदस्य और मुखिया होने के नाते बच्चों के कल्याण (जो 5 वर्ष या उससे अधिक उम्र के हों) की देखभाल करने के लिए ज्यादा अनुकूल माना जाता है।

    हालांकि, अदालत ने कहा प्रत्येक मामले में कोर्ट को कस्टडी के सवाल का निर्धारण करने में मुख्य रूप से बच्चे के कल्याण को देखना होगा।

    इसके अलावा, ट्रायल कोर्ट के समक्ष अपीलार्थी-पिता-पति द्वारा दी गई दलीलों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने पाया कि वह बहुत ही मितभाषी और एकांत में रहने वाला व्यक्ति है जिसने सामाजिक दायरे और दोस्तों से खुद को अलग कर लिया है।

    इसके अलावा, न्यायालय ने माना कि,

    ''प्रतिवादी-माँ एक शिक्षित महिला है और जब परीक्षा की अवधि के दौरान बेटी की कस्टडी उसकी माँ को दी गई थी, तो उसकी परीक्षा का परिणाम अच्छा आया था, जिसका अर्थ है, प्रतिवादी-माँ अपीलकर्ता-पिता की तुलना में अपनी बेटी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में अधिक सक्षम है। जो नाबालिग लड़की के कल्याण, बेहतरी और सर्वांगीण विकास के लिए सबसे आवश्यक घटक है।''

    न्यायालय ने यह भी नोट किया कि बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में मां की भूमिका पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता है और मां अपने बच्चे को राॅकिंग, पोषण और निर्देश देकर पालते हुए उसकी दुनिया को आकार देती है।

    ''विशेष रूप से, एक माँ का साथ एक किशोरी की बढ़ती उम्र में अधिक मूल्यवान है। इसलिए जब तक कि दमदार और न्यायसंगत कारण न हों, एक बच्चे को उसकी माँ के साथ रहने से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।''

    महत्वपूर्ण रूप से कोर्ट ने यह भी कहा कि,

    ''माँ एक अनमोल तोहफा है, एक असली खजाना और एक बच्चे के लिए एक सच्ची हार्दिक शक्ति है, विशेष रूप से 13 साल की उम्र की बढ़ती लड़की के लिए जो कि जीवन का एक महत्वपूर्ण चरण है,जिसमें जैविक रूप से सोचने में प्रमुख बदलाव आता है और मां अपनी सहायता से इस बदलाव को समझने में उसकी मदद कर सकती है। इसलिए इस महत्वपूर्ण किशोर अवस्था में, उसकी वृद्धि के लिए उसका मां के साथ रहना आवश्यक है।''

    अन्त में, यह निष्कर्ष निकालते हुए कि दिशिता का सर्वांगीण कल्याण और विकास उसकी माँ के साथ है, न्यायालय को फैमिली कोर्ट के निर्णय में किसी भी प्रकार की अवैधता, अयोग्यता, विकृति और तर्कहीनता नहीं मिली।

    हालाँकि, अदालत ने अपीलकर्ता-पिता को अपनी बेटी से मिलने के लिए मुलाकात के अधिकार प्रदान किए हैं। न्यायालय ने निर्देश दिया है कि वह महीने में दो बार अपनी बेटी -दिशिता से मिल सकता है। इसके लिए दोनों पक्ष मिलकर समय व स्थान आपसी सहमति से तय कर लें।

    केस का शीर्षक - रजत अग्रवाल (पिता) बनाम सोनल अग्रवाल (माता)

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