'मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में राज्य नहीं कर सकता संप्रभु प्रतिरक्षा की मांग' : मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य को दिया निर्देश, ट्रायल में देरी होने के लिए आरोपी को देंं मुआवजा

LiveLaw News Network

6 July 2020 6:18 PM GMT

  • मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में राज्य नहीं कर सकता संप्रभु प्रतिरक्षा की मांग : मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य को दिया निर्देश, ट्रायल में देरी होने के लिए आरोपी को देंं मुआवजा

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ ने माना है कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में राज्य स्वायत्त बचाव की दलील का सहारा नहीं ले सकता ।

    इस मामले में न्यायमूर्ति जीएस अहलूवालिया की एकल पीठ ने राज्य को उस जमानत आवेदक को मुआवजा देने का निर्देश दिया है, जो एक साल से अधिक समय से जेल में बंद था, परंतु उसके मुकदमे में कोई प्रगति नहीं हुई जिसके लिए पूरी तरह से राज्य की पुलिस जिम्मेदार थी।

    कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत याचिकाकर्ता को स्पीडी ट्रायल का मौलिक अधिकार मिला है और इस मामले में उसके इस अधिकार का उल्लंघन हुआ है।

    ''राज्य मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में संप्रभु प्रतिरक्षा या स्वायत्त बचाव की दलील का सहारा नहीं ले सकता है। इस न्यायालय का मानना है कि यह एक उचित मामला है, जिसमें आवेदक को मुआवजे का भुगतान करने का दायित्व राज्य पर ड़ाला जा सकता है या निर्देश दिया जा सकता है। चूंकि वह एक वर्ष की अवधि के लिए यानी 26-3-2020 से 3-4-2020 तक जेल में रहा है,जबकि उसके मुकदमे में कोई प्रगति नहीं हुई। जिसके लिए पूरी तरह से इंस्पेक्टर रेखापाल और इंस्पेक्टर राम नरेश यादव जिम्मेदार हैं। चूंकि आवेदक के स्पीडी ट्रायल के मौलिक अधिकार का घोर उल्लंघन किया गया है, इसलिए राज्य को निर्देश दिया जा रहा है कि वह आवेदक को मुआवजे के तौर पर बीस हजार रुपये का भुगतान करें।''

    अदालत ने निर्देश दिया है कि 30 दिनों की अवधि के भीतर मुआवजे का भुगतान कर दिया जाए। वहीं यह राशि मामले के दोषी दोनों इंस्पेक्टर के वेतन से वसूली जा सकती है।

    जहां तक इस मामले में हुई देरी के लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही का सवाल है तो अदालत ने कहा कि यह पुलिस विभाग का अपना दृष्टिकोण है कि वह विभाग के आंतरिक मामलों में क्या कदम उठाना चाहता है?

    हालांकि अदालत ने यह भी टिप्पणी की है कि ''अगर पुलिस विभाग वास्तव में अपने काम को बेहतर बनाने में दिलचस्पी रखता है, तो समय-समय पर कागजी सर्कुलर जारी करने के अलावा उसे ऐेसे मामलों में प्रभावी कदम भी उठाने चाहिए।''

    मामले के तथ्यों के अनुसार याचिकाकर्ता को एनडीपीएस अधिनियम की धारा 8/20 के तहत किए गए अपराध के कथित आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उसने आठवीं बार नियमित जमानत याचिका दायर कर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। जिसमें उसने आरोप लगाया गया था कि मुकदमे की सुनवाई की एक वर्ष की अविध के दौरान केवल एक गवाह पेश किया गया है। उसने बताया कि पुलिस के गवाहों को नोटिस तामिल हो गए थे और उनके खिलाफ जमानती वारंट भी जारी किए गए थे। उसके बावजूद भी गवाह कोर्ट में पेश नहीं हुए। इतना ही नहीं कई बार तो इंस्पेक्टर रेखापाल और इंस्पेक्टर राम नरेश यादव के खिलाफ भी समन या जमानती वारंट जारी किए गए थे,जो वापिस भी नहीं आए। इस कारण पता ही नहीं चल पाया कि वह तामील हुए या नहीं। जब यह दोनों अधिकारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे थे, फिर भी उन समन /जमानती वारंट का तामील न होना अभियोजन पक्ष की ओर से एक गंभीर चूक है। जो स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि पुलिस गवाह जानबूझकर ट्रायल कोर्ट के सामने पेश होने से बच रहे हैं। जिसकी वजह से उसके मुकदमे में कार्यवाही आगे नहीं बढ़ पा रही थी और वह जेल में बंद है। इसलिए आवेदक को जमानत दे दी जाए।

    पुलिस कर्मियों द्वारा दिखाए गए इस तरह के ''उदासीन'' रवैये को ध्यान में रखते हुए अदालत ने कहा कि-

    ''अभियोजन पक्ष के दो गवाह इंस्पेक्टर रेखापाल और इंस्पेक्टर राम नरेश यादव का यह आचरण इस बात का स्पष्ट संकेत देता है कि वे एक अंडरट्रायल के जीवन और स्वतंत्रता के बारे में चिंतित नहीं हैं। यहां पर यह उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण है कि किसी भी अवसर पर इन दोनों गवाहों में से किसी ने भी ट्रायल कोर्ट के समक्ष आवेदन दायर कर पेशी से छूट नहीं मांगी और न ही इसके लिए कोई उचित कारण बताए। इस प्रकार यह दोनों गवाह न केवल एक अंडरट्रायल की जीवन और स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, बल्कि उन्होंने ट्रायल कोर्ट को भी हल्के में ले लिया था।''

    हालांकि अदालत ने माना कि अधिकारियों को अदालत से दूर रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती है ताकि मुकदमे की सुनवाई में हो रही देरी के आधार पर कोई आरोपी जमानत मांग सकें।

    अदालत ने राज्य को निर्देश दिया है कि वह आवेदक को मुआवजा दें। इसी के साथ अदालत ने कहा कि-

    ''राज्य के पदाधिकारियों को ऐसी स्थिति बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है,जिसके परिणामस्वरूप अभियुक्तों को जमानत दी जा सकती हो। कानून तोड़ने वालों को अदालत के समक्ष लाकर समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखना राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है। इसलिए बिना किसी उचित कारण के राज्य के अधिकारियों को अदालत से दूर रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती है ताकि एक अभियुक्त को मुकदमे में देरी के आधार पर जमानत का दावा करने का मौका मिल सके। हालांकि एक नागरिक के मौलिक अधिकार के उल्लंघन की अनुमति भी नहीं दी जा सकती है और मौद्रिक रूप से इसकी भरपाई की जानी चाहिए।''

    न्यायालय ने उम्मीद जताई है कि अदालतों में सामान्य कामकाज शुरू होने के बाद अभियोजन पक्ष अपने शेष गवाहों को बिना किसी देरी के अदालत के समक्ष पेश करेगा और उनके बयान दर्ज करवाएगा। इसी के साथ पीठ ने जमानत याचिका को खारिज कर दिया है।

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