आईपीसी की धारा 420 : शुरुआत से ही धोखाधड़ी के आरोप के अभाव में कोई अपराध स्थापित नहीं होता : झारखंड हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
15 July 2021 6:30 PM IST
झारखंड हाईकोर्ट ने माना है कि लेन-देन के समय धोखे, झूठे वादे या प्रलोभन के किसी भी आरोप के अभाव में, केवल दावा किए गए तरीके से ऋण चुकाने के लिए दी गई अंडरटेकिंग का उल्लंघन करना भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत दोषसिद्धि का आधार नहीं हो सकता है।
न्यायमूर्ति अनुभा रावत चौधरी की पीठ ने आरोपी की सजा को रद्द करते हुए कहा,
''इस न्यायालय ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच विवाद अनिवार्य रूप से दीवानी विवाद के दायरे में आता था और इस बात का कोई सबूत नहीं है कि याचिकाकर्ता का इरादा ऋण के लेनदेन/ याचिकाकर्ता को मोबाइल और सोने की अंगूठी सौंपने के समय से ही शिकायतकर्ता को धोखा देने का था। इसलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत याचिकाकर्ता की दोषसिद्धि को कानून की नजर में कायम नहीं रखा जा सकता है।''
वर्तमान मामले में, याचिकाकर्ता सलुका देवगम भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 323,406,420 और 452 के तहत अपराधों का एकमात्र आरोपी था। मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के बाद आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 406/420 और 323 रिड विद 34 के तहत अपराध का दोषी करार दिया गया था और भारतीय दंड संहिता की धारा 452 के तहत अपराध के लिए बरी कर दिया गया था। अपील में याचिकाकर्ता को आईपीसी की धारा 406 और 323 के तहत अपराध के लिए बरी कर दिया गया, लेकिन आईपीसी की धारा 420 के तहत उसकी सजा को बरकरार रखा गया और उसे अपराध के लिए दो साल के कठोर कारावास और 500 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई।
पृष्ठभूमि
अभियोजन का मामला यह है कि आरोपी ने शिकायतकर्ता से नगदी, मोबाइल फोन और सोने की अंगूठी वापस करने का वादा करके ली थी। हालांकि, शिकायतकर्ता का आरोप है कि आरोपी ने न तो मोबाइल फोन और न ही सोने की अंगूठी और न ही कर्ज की राशि लौटाई। आरोपी और शिकायतकर्ता ने लोन की वापसी के लिए 2,000 रुपये की मासिक किश्तों पर सहमति व्यक्त की, लेकिन इसके बावजूद, याचिकाकर्ता ने अपना वादा पूरा नहीं किया। यह भी आरोप है कि आरोपी चार अन्य लोगों के साथ शिकायतकर्ता के घर आया और सभी दस्तावेज वापस करने के लिए कहा, जब शिकायतकर्ता ने इससे इनकार किया तो याचिकाकर्ता ने उसके साथ मारपीट की और जान से मारने की धमकी दी।
याचिकाकर्ता की तरफ से अधिवक्ता सौरव कुमार सिंह पेश हुए और धारा 420 के तहत दोषसिद्धि के खिलाफ तर्क देते हुए कहा कि यह इंगित करने के लिए कोई सामग्री नहीं है कि शुरुआत से ही याचिकाकर्ता का कोई गलत इरादा या कपटपूर्ण इरादा था। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि पूरा विवाद शुद्ध रूप से सिविल प्रकृति का है। मामले के इस पहलू पर निचली अदालतों ने ठीक से विचार नहीं किया। तदनुसार, अपीलीय न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त लोक अभियोजक श्री संजय कुमार श्रीवास्तव ने किया। उन्होंने याचिकाकर्ता की तरफ से पेश उस तथ्यात्मक मैट्रिक्स पर विवाद नहीं किया,जिसके कारण यह आरोप लगाया गया था कि ऋण के रूप में ली गई राशि को वादे के अनुसार मासिक किश्तों के रूप में वापस नहीं किया गया था।
कोर्ट का निष्कर्ष
कोर्ट ने वी.वाई. जोस व अन्य बनाम गुजरात राज्य व अन्य के मामले का हवाला दिया,जिसमें धारा 420 के दो अवयव के बारे में बताया गया है। पहला, एक धोखा,जो झूठा या भ्रामक प्रतिनिधित्व देकर या अन्य कार्रवाई या चूक द्वारा किया गया हो। दूसरा, कपटपूर्वक या बेईमानी से किसी व्यक्ति को कोई संपत्ति देने के लिए प्रेरित करना, या यह सहमति देने के लिए कि कोई भी व्यक्ति किसी भी संपत्ति को अपने पास रख ले और अंत में जानबूझकर उस व्यक्ति को कुछ भी करने या छोड़ने के लिए प्रेरित करेगा जो वह नहीं करना चाहता है या नहीं छोड़ना चाहता है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि,
''धोखाधड़ी के अपराध को गठित करने के उद्देश्य से, शिकायतकर्ता को यह दिखाना आवश्यक है कि वादा या प्रतिनिधित्व करते समय आरोपी के कपटपूर्ण या बेईमान इरादे थे। यहां तक कि ऐसे मामले में भी जहां आरोपी पर अपने वादे को निभाने के लिए विफलता के संबंध में आरोप लगाए जाते है, उस मामले में अगर प्रारंभिक वादा करते समय दोषपूर्ण इरादे की अनुपस्थित हो तो यह नहीं कहा जा सकता है कि दंड संहिता की धारा 420 के तहत कोई अपराध बनता है।''
इस न्यायालय ने माना है कि यह कानून का एक सुस्थापित सिद्धांत है कि अनुबंध का हर उल्लंघन या समझौते के तहत हर विवाद धोखाधड़ी के अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। यह केवल उन मामलों में धोखा देने के समान होगा जहां शुरुआत में ही कोई धोखा दे दिया जाता है या धोखा देने का इरादा होता है। कोर्ट ने कहा कि,
''धोखाधड़ी के अपराध को स्थापित करने के लिए यह दिखाया जाना चाहिए कि आरोपी का एक वादा या प्रतिनिधित्व करते समय ही धोखाधड़ी या बेईमानी करने का इरादा था।''
इस न्यायालय ने पाया है कि ऐसा कोई आरोप नहीं है कि याचिकाकर्ता ने धोखा दिया था या उसने कभी भी कोई ऐसा झूठा वादा या प्रलोभन दिया था, जिसने शिकायतकर्ता को पैसे देने के लिए प्रेरित किया हो। इस तरह के आरोप के अभाव में, भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत कोई अपराध नहीं बनता है। यह भी कहा कि,
''इस न्यायालय ने पाया है कि ऋण चुकाने/वस्तुओं को दावा किए गए तरीके से वापस करने के संबंध में दी गई अंडरटेकिंग का उल्लंघन करना, भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाने या उसे दोषी ठहराने का आधार नहीं हो सकता है। यहां तककि अभियोजन पक्ष के गवाह पीडब्ल्यू-6 के बयान के अनुसार, याचिकाकर्ता ने राशि का कुछ हिस्सा चुका दिया था और शेष बकाया रह गया था और वस्तुएं भी वापस नहीं की गई थी। उपरोक्त निष्कर्षों के मद्देनजर, इस न्यायालय ने पाया है कि वर्तमान मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत अपराध के बुनियादी तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित हैं।''
न्यायालय ने निचली अदालतों के फैसलों को खारिज करते हुए कहा कि,
'' ट्रायल कोर्ट द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत याचिकाकर्ता की दोषसिद्धि, जिसे अपीलीय न्यायालय ने बरकरार रखा है, न्याय के उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस न्यायालय के पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप की मांग करती है। वहीं भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत याचिकाकर्ता को दोषी ठहराने में निचली अदालतों द्वारा की गई अवैधता और विकृति को ठीक करना भी जरूरी है। तदनुसार, भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत कथित अपराध के लिए याचिकाकर्ता की दोषसिद्धि और सजा को रद्द किया जाता है।''
केस का शीर्षकः सलुका देवगम बनाम झारखंड राज्य
ऑर्डर डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें