वरिष्ठ नागरिक अधिनियम की धारा 3 को साझा परिवार में महिलाओं के अधिकार अमान्य करने या उनका उल्लंघन करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता : दिल्ली हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

16 Nov 2021 10:05 AM GMT

  • वरिष्ठ नागरिक अधिनियम की धारा 3 को साझा परिवार में महिलाओं के अधिकार अमान्य करने या उनका उल्लंघन करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता : दिल्ली हाईकोर्ट

    Delhi High Court

    दिल्ली हाईकोर्ट ने सोमवार को कहा है कि वरिष्ठ नागरिक अधिनियम, 2007 की धारा 3 को कानून के तहत मिली अन्य सुरक्षा विशेष रूप से डीवी अधिनियम की धारा 17 के तहत महिलाओं के ''साझा परिवार के अधिकार'' को ओवरराइड करने(उल्लंघन करने) और अमान्य करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

    न्यायमूर्ति आशा मेनन ने कहा कि बहू को उसके 'साझा घर' से बेदखल करने का निर्देश देने से पहले तथ्यात्मक स्थिति का आकलन कम से कम प्रथम दृष्टया मूल्यांकन पर किया जाना चाहिए।

    अदालत एक बहू द्वारा दायर एक याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें उसने एक सेशन कोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी। सेशन कोर्ट के समक्ष उसके ससुर ने एक मुकदमा दायर कर उसे वैवाहिक संपत्ति से बेदखल करने की मांग की थी। ट्रायल कोर्ट ने 19 अप्रैल, 2021 के आदेश के तहत घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम की धारा 19 (1) (एफ) के तहत ससुर द्वारा दायर आवेदन पर विभिन्न निर्देश पारित किए थे।

    ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादियों को निर्देश दिया था कि वह याचिकाकर्ता को दो महीने की अग्रिम किराये की राशि का भुगतान करें ताकि वह अपने लिए एक उपयुक्त आवास किराए पर ले सके। साथ ही याचिकाकर्ता को निर्देश दिया था कि वह भुगतान मिलने की तारीख से 40 दिनों के भीतर सूट की संपत्ति खाली कर दे।

    याचिकाकर्ता का मामला यह है कि उसकी और उसके पति की शादी वर्ष 1995 में हुई थी और वह तब से सूट परिसर की पहली मंजिल पर रहने लग गई थी। इसके बाद उसके पति ने 2014 में तलाक की अर्जी दाखिल की थी। याचिकाकर्ता ने यह भी दावा किया कि किसी तरह उसे ससुराल से बाहर निकालने की कोशिश की गई।

    इस प्रकार याचिकाकर्ता की ओर से यह तर्क दिया गया कि निचली अदालत उसे उस परिसर से बेदखल करने का निर्देश नहीं दे सकती है, जहां वह लगभग बीस वर्षों से रह रही थी। यह भी प्रस्तुत किया गया कि भले ही सूट परिसर ससुर की संपत्ति है,परंतु यह एक साझा घर है। इसलिए तथ्यों के आधार पर उचित निर्णय किए बिना उसे बेदखल नहीं किया जा सकता है।

    अदालत ने शुरुआत में कहा कि,''यह महत्वपूर्ण है कि निचली अदालत पक्षों के बीच के संबंधों की प्रकृति का निर्धारण करे और यदि संबंध कटुतापूर्ण हैं तो बेदखल करने की अनुमति दे। निचली अदालत को यह भी पता लगाना चाहिए था कि क्या बहू अपने वैवाहिक जीवन के निर्वाह के दौरान एक संयुक्त परिवार में रह रही थी या नहीं? लेकिन ट्रायल कोर्ट ने इन पहलुओं पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया है क्योंकि उसने खुद को प्रतिवादियों से आवेदन मांगने और एक बेदखली आदेश जारी करने के लिए बाध्य महसूस किया और महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी की गई है।''

    कोर्ट ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा एस वनिथा बनाम डिप्टी कमिश्नर के मामले में दिए गए फैसले को अदालतों द्वारा बहू और वरिष्ठ नागरिकों के अधिकारों को संतुलित करते हुए ध्यान में रखा जाना चाहिए।

    इसे देखते हुए कोर्ट ने कहा कि,

    ''इसलिए, एक संयुक्त विवाद की स्थिति में जहां सूट परिसर कानून द्वारा संरक्षित दो समूहों के बीच विवाद का एक स्थल है, दोनों पक्षों को ध्यान में रखते हुए उचित राहतें दी जानी चाहिए। वरिष्ठ नागरिक अधिनियम, 2007 की धारा 3 को कानून के तहत मिली अन्य सुरक्षा विशेष रूप से डीवी अधिनियम की धारा 17 के तहत महिलाओं के ''साझा परिवार के अधिकार'' को ओवरराइड करने(उल्लंघन करने) और अमान्य करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।''

    ''दूसरे शब्दों में, बहू को उसके 'साझा घर' से बेदखल करने का निर्देश देने से पहले तथ्य की स्थिति का आकलन कम से कम प्रथम दृष्टया मूल्यांकन पर किया जाना चाहिए। यह दोहराया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट ने आयोजित किया है कि जो साझा परिवार का गठन करता है वह एक साक्ष्य का विषय है।''

    मामले के तथ्यों पर, कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा था कि पक्षकारों के बीच संबंध कटु थे और उस अंतरिम निषेधाज्ञा की भी अनदेखी की गई जो याचिकाकर्ता के खिलाफ लागू थी और जिसका उसने स्पष्ट रूप से उल्लंघन नहीं किया था।

    इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि ट्रायल कोर्ट ने साझा घर के सवाल पर भी विचार नहीं किया है,हाईकोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का यह दायित्व है कि बहू को बेदखल करने का निर्देश देने से पहले सभी परिस्थितियों पर विचार करे,परंतु विधिवत तरीके से ऐसा नहीं किया गया।

    हाईकोर्ट ने कहा कि,

    ''इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि 19 अप्रैल, 2021 को यह आदेश उस समय पारित किया गया था जब दिल्ली में कोरोना की दूसरी लहर चरम पर थी। अस्पताल रोगियों से भरे हुए थे और कोई भी परिवार कोरोना महामारी के कारण हुई तबाही से अछूता नहीं रहा था। फिर भी, याचिकाकर्ता को खुद के लिए घर की तलाश करने और कोई परिसर किराए पर लेने के लिए छोड़ दिया गया।''

    न्यायालय ने यह भी कहा कि उस समय आर्टिकल 227 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग नहीं किया जा सकता है जब न्यायालय एक अपीलीय न्यायालय हो,लेकिन यह भी कहा कि ऐसे मामलों में जहां ट्रायल कोर्ट महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी करता है और अप्रासंगिक तथ्यों पर विचार करता है, तो हाईकोर्ट अपने पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार के तहत एक ट्रायल कोर्ट के निर्णय में हस्तक्षेप करेगा, विशेष रूप से उस स्थिति में जब आदेश विकृत और अनुचित प्रतीत होते हैं।

    अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि,''याचिकाकर्ता को किराए के आवास में स्थानांतरित करने के लिए जारी किए गए निर्देश सबसे अनुचित थे।''

    तद्नुसार, न्यायालय ने याचिका को स्वीकार कर लिया और आक्षेपित आदेश को खारिज कर दिया।

    केस का शीर्षक- स्नेहा आहूजा बनाम सतीश चंदर आहूजा व अन्य

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