इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अपराध में विशेष न्यायाधीश द्वारा पारित संज्ञान आदेश के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 482 के तहत आवेदन दायर नहीं किया जा सकता है और इस तरह के आदेश के खिलाफ एससी/एसटी अधिनियम की धारा 14 ए (1) के तहत केवल एक अपील हाईकोर्ट के समक्ष दायर होगी।
इस मामले में आवेदक के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 323, 504, 506 और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(डी) के तहत विशेष न्यायाधीश, एससी/एसटी एक्ट, इलाहाबाद (प्रयागराज) द्वारा पारित संज्ञान आदेश को रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था।
गौरतलब है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 14ए(1) एक गैर-बाधा खंड से शुरू होती है और इसे सीआरपीसी में निहित सामान्य प्रावधानों को ओवरराइड करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
आइए पढ़ें, क्या कहता है यह:
"14क. अपील.-(1) आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, किसी विशेष न्यायालय के किसी निर्णय, दंडादेश या आदेश, जो कि एक विशेष विशेष न्यायालय का कोई अंतर्वर्ती आदेश नहीं है, के विरुद्ध तथ्यों और कानून दोनों के आधार पर उच्च न्यायालय समक्ष अपील की जाएगी।"
सरल शब्दों में, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 14ए(1) के तहत किसी भी निर्णय, संज्ञान आदेश, आदेश जो विशेष न्यायालय या एक्सक्लूसिव स्पेशल कोर्ट का अंतर्वर्ती आदेश नहीं है, के विरुद्ध तथ्यों और कानून के आधार पर हाईकोर्ट के समक्ष अपील की जा सकेगी।
अनिवार्य रूप से, इसका मतलब यह है कि इस न्यायालय की संवैधानिक और अंतर्निहित शक्तियों को धारा 14 ए द्वारा "बेदखल" नहीं किया गया है, लेकिन उन मामलों और स्थितियों में उन्हें लागू नहीं किया जा सकता है, जहां धारा 14 ए के तहत अपील की जा सकती है और कानून की इस स्थिति को शीर्ष अदालत ने 'री: अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015 की धारा 14ए का प्रावधान' मामले में पहले ही स्वीकार कर लिया है।
अब, न्यायालय के समक्ष एकमात्र प्रश्न यह था कि क्या धारा 14ए की उपधारा (1) में आने वाले शब्द "आदेश" में मध्यवर्ती आदेश भी शामिल होंगे और क्या किसी अपराध का संज्ञान लेना और आरोपी को तलब करना मध्यवर्ती आदेश है।
इसका उत्तर देने के लिए, न्यायमूर्ति अनिल ओझा की खंडपीठ ने 'गिरीश कुमार सुनेजा बनाम सीबीआई, (2017) 14 एससीसी 809' के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि अपराध का संज्ञान लेना और आरोपी को तलब करना एक मध्यवर्ती आदेश है।
इसके अलावा, 'अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति की धारा 14 ए के प्रावधान' संबंधित स्वत: संज्ञान के मामले में न्यायालय ने माना कि धारा 14 ए की उपधारा (1) में होने वाले शब्द "आदेश" में मध्यवर्ती आदेश भी शामिल होंगे।
इस पृष्ठभूमि में, न्यायालय इस प्रकार कहा:
"इस प्रकार यदि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम में किसी अपराध से संबंधित मामले में विशेष न्यायालय या एक्सक्लूसिव विशेष न्यायालय द्वारा कोई मध्यवर्ती आदेश पारित किया जाता है, तो वह आदेश की श्रेणी में आएगा जैसा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 14ए(1) के तहत प्रदान किया गया है। जिसके खिलाफ तथ्यों और कानून दोनों पर उच्च न्यायालय के समक्ष केवल एक अपील होगी। उपरोक्त चर्चा के मद्देनजर, मेरा विचार है कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत विद्वान विशेष न्यायाधीश, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम, इलाहाबाद (प्रयागराज) द्वारा पारित दिनांक 2.12.2020 के संज्ञान आदेश के खिलाफ दायर नहीं किया जा सकता है।"
इसलिए, आवेदक को उपयुक्त मंच के समक्ष एक नई याचिका दायर करने की स्वतंत्रता के साथ सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर याचिका का निपटारा कर दिया गया।
केस का शीर्षक - शेर अली बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य
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