धारा 482 सीआरपीसी| केवल एफआईआर/चार्जशीट में धारा 307 आईपीसी को शामिल करना समझौता को खारिज करने का आधार नहीं है, चोट की प्रकृति प्रासंगिक कारक: जेएंडके एंड एल हाईकोर्ट

Avanish Pathak

17 Nov 2022 9:08 AM GMT

  • Consider The Establishment Of The State Commission For Protection Of Child Rights In The UT Of J&K

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि केवल इसलिए कि एक एफआईआर/ चार्जशीट में आईपीसी की धारा 307 के प्रावधान शामिल हैं, यह अपने आप में संहिता की धारा 482 के तहत याचिका को खारिज करने और पक्षों के बीच समझौते को स्वीकार करने से इनकार करने का आधार नहीं होगा।

    जस्टिस एमए चौधरी ने कहा कि इस तरह के मामलों में समझौता किया जाना चाहिए या नहीं, इस पर फैसला करते समय अदालत को लगी चोट की प्रकृति, शरीर के उस हिस्से पर ध्यान देना चाहिए जहां चोटें लगी थीं (यानि क्या चोटें चोट शरीर के महत्वपूर्ण/नाजुक अंग पर लगीं हैं) और इस्तेमाल किए गए हथियारों की प्रकृति आदि।

    पीठ ने कहा,

    उस आधार पर अगर यह पाया जाता है कि आईपीसी की धारा 307 के तहत आरोप साबित होने की प्रबल संभावना है, एक बार उस आशय का सबूत दिया जाता है और चोटें साबित होती हैं, न्यायालय को पक्षों के बीच समझौते को स्वीकार नहीं करना चाहिए।

    पीठ ने आगे स्पष्ट किया कि हालांकि आईपीसी की धारा 307 के तहत अपराध का आरोप एक गंभीर अपराध है क्योंकि आरोपी व्यक्ति (ओं) ने किसी अन्य व्यक्ति/पीड़ित की जान लेने का प्रयास किया, साथ ही अदालत कठोर वास्तविकताओं से बेखबर नहीं हो सकती है कि कई बार जब भी पार्टियों के बीच कोई झगड़ा होता है, जिससे शारीरिक हंगामा होता है और किसी एक या दोनों पक्षों द्वारा चोट लग जाती है, तो इसे आईपीसी की धारा 307 के तहत भी एक अपराध के रूप में पेश करने की प्रवृत्ति होती है।

    याचिका पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की गई थी, जिसके संदर्भ में याचिकाकर्ता ने धारा 452, 392, 506, 323, 447, 307 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दो क्रॉस एफआईआर को चुनौती दी थी।

    पार्टियों ने पहले एक-दूसरे के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें उक्त एफआईआर को रद्द करने की मांग की गई थी। हालांकि, याचिकाओं के लंबित रहने के दौरान पार्टियों ने समझौता किया जिसके बाद उन्होंने सर्वसम्मति से पूरे विवाद को खत्म करने का फैसला किया।

    याचिकाकर्ता के वकील ने ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य और अन्‍य (2012) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि न्यायालय को धारा 482 के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग करना चाहिए और तदनुसार पक्षों के बीच हुए समझौते को ध्यान में रखते हुए एफआईआर को रद्द कर देना चाहिए।

    याचिका का विरोध करते हुए, प्रतिवादी-यूटी प्रशासन ने तर्क दिया कि चूंकि याचिकाकर्ताओं पर आईपीसी की धारा 307 के तहत अपराध का आरोप लगाया गया है और इसलिए आमतौर पर हाईकोर्ट द्वारा धारा 482 सीआरपीसी के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि पार्टियों ने विवाद सुलझ लिए हैं।

    एफआईआर के अवलोकन पर जस्टिस चौधरी ने पाया कि शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि आरोपी द्वारा उस पर बेरहमी से हमला किया गया था, हालांकि, उसे उसके कर्मचारियों ने बचा लिया और उसने अपने लोगों पर किसी भी चोट के बारे में कुछ नहीं बताया।

    अदालत ने कहा कि एफआईआर दर्ज करने में भी लगभग दो सप्ताह की देरी हुई और आईपीसी की धारा 307, 506, 427, 34 के तहत दंडनीय अपराध बाद में जोड़े गए।

    कोर्ट ने फैसले में कहा,

    "ऐसा प्रतीत होता है कि शिकायतकर्ता को अपने शरीर के किसी भी महत्वपूर्ण हिस्से पर कोई चोट नहीं लगी थी, ताकि धारा 307 आईपीसी के तहत हत्या के प्रयास को दंडनीय बनाया जा सके, अन्यथा वह इस तथ्य का उल्लेख पुलिस को दिए गए अपने बयान में कर सकता था.....ऐसी स्थिति में अदालत के समक्ष परीक्षण के बाद भी आईपीसी की धारा 307 के तहत सजा का कोई मौका नहीं हो सकता है।"

    अदालत ने कहा, "मामले की स्वीकृत स्थिति यह है कि दोनों पक्षों ने आपस में विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया है और झगड़े को खत्म कर दिया है। ऐसे परिदृश्य में, यह न्यायालय इस तरह के समझौते को अपनी अनुमति देने के लिए बाध्य है।"

    तदनुसार पीठ ने याचिका की अनुमति दी। एफआईआर और परिणामी कार्यवाही को रद्द कर दिया।

    केस टाइटल: शेख फिरोज अहमद बनाम यूटी ऑफ जेएंडके

    साइटेशन: 2022 लाइवलॉ (जेकेएल) 214

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