यदि विवाद को तय करने के लिए गवाही आवश्यक है तो सीआरपीसी की धारा 311 गवाह को वापस बुलाने के लिए ट्रायल कोर्ट को बाध्य करती है : आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट
Manisha Khatri
24 Aug 2022 9:15 PM IST
आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम से संबंधित एक मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा (एक आपराधिक याचिका में )पारित एक आदेश को रद्द करते हुए दोहराया है कि सीआरपीसी की धारा 311 के तहत दायर आवेदनों से निपटने के दौरान, न्यायालय को मनमौजी या मनमाने ढंग की बजाय विवेकपूर्ण ढंग से अपने अधिकार का प्रयोग करने की आवश्यकता है।
याचिकाकर्ताओं पर भारतीय दंड संहिता की धारा 147 और 148 रिड विद धारा 149 और 324 के तहत अपराध करने का आरोप लगाया गया है। उन्होंने जिरह के लिए कुछ गवाहों को वापस बुलाने के लिए एक याचिका दायर की थी। परंतु आक्षेपित आदेश के तहत, आवेदन खारिज कर दिया गया था।
जस्टिस नीनाला जयसूर्या की एकल पीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट याचिकाकर्ताओं को एक गवाह से जिरह करने की अनुमति देने के बजाय इस निष्कर्ष पर पहुंच गया कि उसके साक्ष्य का दायरा बहुत सीमित है। कोर्ट ने माना कि पूर्व-कल्पित/पूूर्वाग्रह धारणा के साथ इस तरह का विचार शक्ति का मनमाना प्रयोग और याचिकाकर्ताओं को अपना मामला स्थापित करने के लिए उचित अवसर देने से वंचित करने के समान है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि ट्रायल जज इस आधार पर याचिका की अनुमति देने के इच्छुक नहीं थे कि गवाह की मुख्य गवाही पूरी होने के बाद याचिकाकर्ताओं के वकील उससे जिरह करने के लिए कोर्ट में नहीं आए थे, जबकि वह गवाह (पुलिस उपाधीक्षक, जिला प्रशिक्षण केंद्र, वेस्ट गोदावरी जिला) लगभग 300 किलोमीटर दूर से आया था और इसलिए, उसे वापस नहीं बुलाया जा सकता है।
अदालत ने पाया कि कानून के तहत आक्षेपित आदेश का तर्क टिकाऊ/अरक्षणीय नहीं है। यह सीआरएल. याचिका संख्या 6091/2020 को संदर्भित करता है, जिस पर भरोसा किया गया। न्यायाधीश ने ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित उस आदेश को रद्द कर दिया है,जिसमें धारा 311 के तहत दायर एक आवेदन को खारिज कर दिया था, क्योंकि वरिष्ठ वकील को एक अन्य अदालत के समक्ष पेश होना था और वह अभियोजन पक्ष के गवाहों से जिरह के लिए उपस्थित नहीं हो सका था,जिसके बाद गवाही को बंद कर दिया गया था। इसके बाद गवाहों को वापस बुलाने की मांग करते हुए एक याचिका दायर की गई, जिसे खारिज कर दिया गया।
कोर्ट ने यह कहते हुए इस आदेश को रद्द कर दिया किः
''एक आपराधिक मामले में एक गवाह से जिरह ट्रायल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और यह अभियुक्त की बेगुनाही साबित करने के लिए गवाह से सच्चाई जानने का एकमात्र साधन है। यदि, इस तरह के अधिकार से इनकार किया जाता है, तो याचिकाकर्ताओं/अभियुक्तों को गंभीर नुकसान होगा और यह निष्पक्ष सुनवाई से इनकार करने के समान है...सीआरपीसी की धारा 311 के अनुसार, कोई भी न्यायालय, इस संहिता के तहत किसी भी जांच, ट्रायल या अन्य कार्यवाही के किसी भी चरण में, किसी भी व्यक्ति को गवाह के रूप में बुला सकता है, या किसी भी व्यक्ति को बुलाकर जांच/पूछताछ कर सकता है, भले ही उसे गवाह के रूप में न बुलाया गया हो, या पहले अपने बयान दर्ज करवा चुके किसी भी व्यक्ति को फिर से वापस बुला सकता है और दोबारा से बयान ले सकता हैे; और न्यायालय ऐसे किसी भी व्यक्ति को समन करेगा और वापस बुलाएगा और फिर से उसका बयान लेगा, जिसका साक्ष्य मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए आवश्यक प्रतीत होता है। सीआरपीसी की धारा 311 में दो अवयव हैं। पहला अवयव न्यायालय का विवेक है और दूसरा अवयव कोई विवेक प्रदान नहीं करता है और न्यायालय के लिए यह अनिवार्य है कि वह गवाह को समन करें, वापस बुलाए और फिर से उसकी गवाही करवाए, यदि न्यायालय को लगता है कि प्रस्तावित गवाह का बयान पक्षकारों के बीच के वास्तविक विवाद को प्रभावी ढंग से तय करने के लिए आवश्यक है।''
उपरोक्त तर्क के आधार पर, न्यायालय ने आक्षेपित आदेश को रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट को गवाह की उपस्थिति के लिए एक विशिष्ट तिथि तय करने और याचिकाकर्ताओं को इस गवाह से जिरह करने का अवसर देने का निर्देश दिया है। अदालत ने याचिकाकर्ताओं को भी निर्देश दिया है कि वह बिना स्थगन की मांग किए, ट्रायल कोर्ट द्वारा तय की गई तारीख पर गवाह से जिरह पूरी करें।
केस टाइटल-सेवा स्वर्ण कुमारी उर्फ कुमारम्मा व अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य
आदेश पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें