धारा 153 आईपीसी | अभिव्यक्ति दंगा भड़काने की हद तक उकसाने के लिए दुर्भावनापूर्ण या जानबूझकर किए गए अपराध संकेत दे: केरल हाईकोर्ट
Avanish Pathak
17 May 2023 2:22 PM IST
केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 153 के दायरे और सीमा की व्याख्या की है। यह धारा दंगा भड़काने की हद तक उकसाने के लिए दुर्भावनापूर्ण या जानबूझकर किए गए अपराध को संदर्भित करती है।
जस्टिस बेचू कुरियन थॉमस की सिंगल जज बेंच ने स्पष्ट किया कि प्रावधान में दो अभिव्यक्तियों, 'दुर्भावनापूर्ण' या 'जानबूझ कर' की उपस्थिति इंगित करती है कि कथित कृत्य में अनुमानित या स्पष्ट रूप से द्वेष या बुराई का उच्च स्तर होना चाहिए।
पीठ केरल के दिवंगत पूर्व गृह मंत्री कोडियरी बालाकृष्णन के सम्मान में लगाए गए एक बोर्ड में शब्दों को संपादित करने और उन्हें बदनाम करने के 45 वर्षीय आरोपी के मामले की सुनवाई कर रही थी।
आरोपी पर आईपीसी की धारा 153 और केरल पुलिस अधिनियम, 2011 की धारा 120 (ओ) के तहत मामला दर्ज किया गया था। वर्तमान याचिका के माध्यम से उसने एफआईआर को रद्द करने की मांग की।
शुरुआत में, न्यायालय ने आईपीसी की धारा 153 की सामग्री को इस प्रकार समझा,
-अभियुक्त ने एक अवैध कार्य किया;
-कृत्य दुर्भावनापूर्वक या जानबूझ कर किया गया था; और
-यह कार्य भड़काने के इरादे से या यह जानते हुए किया गया था कि यह किसी व्यक्ति को दंगे का अपराध करने के लिए उकसाएगा।
इस प्रकार, यह देखते हुए कि संपादित शब्द केवल एक खाद्य पदार्थ को संदर्भित करता है और इसे किसी भी तरह से मानहानिकारक नहीं कहा जा सकता है, न्यायालय ने कहा:
"यदि अभियुक्त द्वारा किया गया कार्य पूर्व दृष्टया अवैध नहीं है, हालांकि जानबूझकर या निंदनीय या अवांछनीय या द्वेष के साथ किया गया है, जब तक कि कार्य अपने आप में एक अपराध नहीं है, इसे आईपीसी की धारा 153 के दंडात्मक प्रावधानों को पूरा करने के लिए नहीं ठहराया जा सकता है।
शब्द 'വട' एक अपमानजनक शब्द नहीं है और संदर्भ में उक्त शब्द का उपयोग मानहानिकारक नहीं कहा जा सकता है। मलयालम भाषा में 'വട' शब्द केवल एक खाद्य पदार्थ को संदर्भित करता है और इसे अन्य शब्दों के संयोजन में भी एक मानहानिकारक शब्द नहीं कहा जा सकता है। इसलिए कथित कार्य को अवैध नहीं कहा जा सकता है।"
याचिकाकर्ता-आरोपी के वकीलों ने तर्क दिया कि कथित अपराध नहीं बनते हैं और एफआईआर ही अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। यह तर्क दिया गया था कि अगर एफआईआर में आरोपों को स्वीकार किया जाता है, तो भी यह दुर्भावनापूर्ण या जानबूझकर नहीं किया गया हे या कुछ भी ऐसा नहीं है, जो अवैध है या दंगा करने की हद तक उत्तेजना देने के लिए किया गया अपराध होगा और इसलिए अभियोजन निरस्त किया जाए।
लोक अभियोजक नौशाद केए तर्क दिया कि अदालत को इस स्तर पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि मामले की जांच चल रही है। यह भी आग्रह किया गया था कि एफआईआर से पता चलता है कि याचिकाकर्ता अभियुक्त द्वारा संपादित बयान स्पष्ट रूप से मानहानि के समान है, और धारा 482 सीआरपीसी के तहत न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति का आह्वान नहीं किया जाना चाहिए।
अदालत ने इस प्रकार पाया कि उच्च स्तर की द्वेष या घृणा की आवश्यकता, जो कथित कृत्य में अनुमानित या स्पष्ट है, के अलावा धारा 153 आईपीसी की आवश्यकता यह भी है कि किया गया कार्य अवैध हो, जो वर्तमान मामले में नहीं पाया जा सका।
कोर्ट ने आगे कहा कि अगर अपराध में आरोप स्वीकार भी कर लिए जाते हैं, तो भी यह आईपीसी की धारा 153 या पुलिस अधिनियम की धारा 120 (ओ) के तहत अपराध नहीं बनता है।
कोर्ट ने कहा,
"नतीजतन अपराध का पंजीकरण अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। इसलिए, परवूर पुलिस स्टेशन की एफआईआर संख्या 942/2022 को रद्द किया जाता है।"
केस टाइटल: संजीव एस बनाम केरल राज्य