सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 10 अधिनियम के अंतर्गत अपील (धारा- 19)

LiveLaw News Network

11 Nov 2021 9:00 AM IST

  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 10 अधिनियम के अंतर्गत अपील (धारा- 19)

    सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) के अंतर्गत धारा 19 में अपील का प्रावधान दिया गया है। किसी भी अधिकार को दिए जाते समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक होता है कि यदि उस व्यक्ति को जिसे वह अधिकार दिया गया है अधिकार प्राप्त नहीं हो तब वे कहां और किसके समक्ष अपील कर सकता है और अपील का महत्व इसलिए भी है क्योंकि निचले स्तर से यदि कोई व्यक्ति व्यथित है तो उसे ऊपरी स्तर के अधिकारियों को इसका संज्ञान देकर न्याय प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए।

    सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भारत के संविधान में उल्लेखित किए गए मौलिक अधिकारों में से एक अधिकार है। इस मौलिक अधिकार को व्यवहार में लाने हेतु ही सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का निर्माण किया गया है।

    इस अधिनियम में अपील का महत्वपूर्ण स्थान है यदि इस अधिनियम में अपील की व्यवस्था नहीं की जाती तो इस अधिनियम का कोई अर्थ नहीं रह जाता और सभी बातें एक कोरी स्वर्णिम कल्पना होकर रह जाती। इस उद्देश्य से इस अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत अपील को गढ़ा गया है तथा अपीलीय संबंधी प्रक्रिया को व्यवस्थित किया गया है।

    इस आलेख के अंतर्गत इसी अपील को समझने का प्रयास किया जा रहा है और धारा 19 पर एक सारगर्भित टीका टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह इस अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा 19 का मूल स्वरूप है:-

    अपील:-

    (1) ऐसा कोई व्यक्ति, जिसे धारा 7 की उपधारा (1) या उपधारा (3) के खण्ड (क) में विनिर्दिष्ट समय के भीतर कोई विनिश्चय प्राप्त नहीं हुआ है या जो, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी के किसी विनिश्चय से व्यथित है, उस अवधि की समाप्ति से या ऐसे किसी विनिश्चय की प्राप्ति से तीस दिन के भीतर ऐसे अधिकारी को अपील कर सकेगा, जो प्रत्येक लोक प्राधिकरण में, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या लोक सूचना अधिकारी की पंक्ति से ज्येष्ठ पंक्ति का है।

    परन्तु ऐसा अधिकारी, तीस दिन की अवधि की समाप्ति के पश्चात् अपील को ग्रहण कर सकेगा, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि अपीलार्थी समय पर अपील फाइल करने में पर्याप्त कारण से निवारित किया गया था।

    (2) जहाँ अपील धारा 11 के अधीन, यथास्थिति, किसी केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या किसी राज्य लोक सूचना अधिकारी द्वारा पर व्यक्ति की सूचना प्रकट करने के लिए किए गए किसी आदेश के विरुद्ध की जाती है वहां संबंधित पर व्यक्ति द्वारा अपील उस आदेश की तारीख से 30 दिन के भीतर की जाएगी।

    (3) उपधारा (1) के अधीन विनिश्चय के विरुद्ध दूसरी अपी उस तारीख से, जिसको विनिश्चय किया जाना चाहिए था या वास्तव में प्राप्त किया गया था, नब्बे दिन के भीतर केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग को होगी।

    परन्तु यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग नब्बे दिन की अवधि की समाप्ति के पश्चात् अपील को ग्रहण कर सकेगा, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि अपीलार्थी समय पर अपील फाइल करने से पर्याप्त कारण से निवारित किया गया था।

    (4) यदि यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी का विनिश्चय, जिसके विरुद्ध अपील की गई है, पर व्यक्ति की सूचना से संबंधित है तो यथास्थिति केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग उस पर व्यक्ति को सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर देगा।

    (5) अपील संबंधी किन्हीं कार्यवाहियों में यह साबित करने का भार कि अनुरोध को अस्वीकार करना न्यायोचित था, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी पर, जिसने अनुरोध से इंकार किया था, होगा।

    (6) उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन किसी अपील का निपटारा, लेखबद्ध किए जाने वाले कारणों से अपील की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर या ऐसी विस्तारित अवधि के भीतर जो उसके फाइल किए जाने की तारीख से कुल पैंतालीस दिन से अधिक न हो, किया जाएगा।

    (7) यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग का विनिश्चय आबद्धकर होगा।

    (8) अपने विनिश्चय में, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग को निम्नलिखित की शक्ति है:-

    (क) लोक प्राधिकरण से ऐसे उपाय करने की अपेक्षा करना, जो इस अधिनियम के उपबंधों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो, जिनके अंतर्गत निम्नलिखित भी हैं-

    (i) सूचना तक पहुँच उपलब्ध कराना, यदि विशिष्ट प्ररूप में ऐसा अनुरोध किया गया है।

    (ii) यथास्थिति केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी को नियुक्त करना।

    (iii) कतिपय सूचना या सूचना के प्रवर्गों को प्रकाशित करना।

    (iv) अभिलेखों के अनुरक्षण, प्रबंध और विनाश से संबंधित अपनी पद्धतियों में आवश्यक परिवर्तन करना।

    (v) अपने अधिकारियों के लिए सूचना के अधिकार के संबंध में प्रशिक्षण के उपबंध को बढ़ाना।

    (vi) धारा 4 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) के अनुसरण में अपनी वार्षिक रिपोर्ट उपलब्ध कराना।

    (ख) लोक प्राधिकारी से शिकायतकर्ता को, उसके द्वारा सहन की गई किसी हानि या अन्य नुकसान के लिए प्रतिपूरित करने की अपेक्षा करना।

    (ग) इस अधिनियम के अधीन उपबंधित शास्तियों में से कोई शास्ति अधिरोपित करना।

    (घ) आवेदन को नामंजूर करना।

    (9) यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग शिकायतकर्ता और लोक प्राधिकारी को, अपने विनिश्चय की, जिसके अंतर्गत अपील का कोई अधिकार भी है, सूचना देगा।

    (10) यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग, अपील का विनिश्चय ऐसी प्रक्रिया के अनुसार करेगा, जो विहित की जाए।

    यह धारा अपील की प्रक्रिया के लिए प्रावधान करती है। प्रथम अपील आक्षेपित आदेश को प्राप्त करने से 30 दिनों के भीतर केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी, यथास्थिति, की श्रेणी से उच्चतर श्रेणी धारण करने वाले अधिकारी के समक्ष दाखिल होती है। दूसरी अपील केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग, यथास्थिति के समक्ष दाखिल होती है। अपील का समय प्रथम अपोलीय प्राधिकारी से आदेश को प्राप्ति की तारीख से नब्बे दिन है।

    अपीलीय प्राधिकारी को नियत अवधि के अवसान के पश्चात् अपील ग्रहण करने की शक्ति होगी, यदि उन्हें समाधान है कि अपील दाखिल करने में ऐसे विलम्ब के लिए युक्तियुक्त कारण है। प्रथम अपीलीय प्राधिकारी को तीस दिनों के भीतर अपील का निस्तारण करना चाहिए और द्वितीय अपील प्राधिकारी को 45 दिनों के भीतर अपील का निस्तारण करना चाहिए। प्रथम और द्वितीय अपील दाखिल करने के लिए अधिकार पर पक्षकार को उपलब्ध है, यदि ईप्सित सूचना पर पक्षकार से सम्बन्धित है।

    यह धारा अपीलीय प्राधिकारी/फोरम से यथासम्भव शीघ्र विवाद पर विचार करने और निस्तारण करने के लिये प्रावधान करती है।

    मुख्य सूचना आयुक्त की शक्ति:-

    लोक प्राधिकारी या तो सूचना देने या सूचना प्रदान करने के लिये कर्तव्य से आबद्ध है। अधिनियम के प्रावधानों के अधीन मुख्य सूचना आयुक्त अतिरिक्त अनुरोध जैसे ध्वस्तीकरण इत्यादि को ध्वस्तीकरण के आदेश को पारित करने के लिये प्रदान नहीं कर सकता, जो पूर्ण रूप से मुख्य सूचना अधिकारिता के परे है।

    अपीलों को निर्णीत करते समय राज्य सूचना आयुक्त की शक्तियां:-

    यह किसी लोक प्राधिकारी को ऐसा कोई कदम उठाने के लिए निर्देश जारी कर सकता है, जैसे अधिनियम के अधीन जारी किये गये निर्देशों का पालन करने के लिये सूचना रखने वाले व्यक्ति को प्रपीड़ित करने के लिये उपयुक्त हो।

    अपील करने का अधिकार:-

    राज्य लोक सूचना अधिकारी द्वारा पारित आदेश से व्यक्ति को अपील दाखिल करने का अधिकार है। यह आदेश मो० वारिस बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल ए आई आर 2011 (एस ओ सी) 138 (कलकत्ता) के मामले में दिया गया है।

    अपीलार्थी ने इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में कि चाही गई सूचना उसे प्रदत्त कर दी गई है अपील को वापस से लिया। इस परिस्थिति में अपीलीय प्राधिकारी अपील से व्यवहार नहीं कर सकता और सूचना अधिकारी के विरुद्ध शास्ति अधिरोपित नहीं कर सकता।

    अपील का अधिकार:-

    अपील का अधिकार संविधि का सृजन है। यह मूल्यवान विधिक अधिकार है, जो व्यक्ति व्यक्ति को उच्चतर फोरम के समक्ष उसकी सहायता का आश्रय लेने के लिए तथा निम्नतर फोरम की त्रुटियों को सुधरवाने के लिए प्रदान किया गया है। अधिनियम की धारा 19 (1) अपील के ऐसे अधिकार का प्रयोग ऐसे व्यक्ति द्वारा किये जाने के लिए प्रदान करती है, जो व्यक्ति व्यक्ति को जिसने अधिनियम की धारा 6 के अधीन सूचना प्राप्त करने के लिए निवेदन किया था, को सूचना प्रस्तुत करने के लिए केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी अथवा राज्य लोक सूचना अधिकारी, जैसी भी स्थिति हो, द्वारा इन्कारी अथवा कल्पित इन्कारी के कारण व्यक्ति हो।

    अधिनियम की धारा 7, 19 तथा 20 सपठित सूचना का अधिकार नियमावली, 2012 के नियम 8 उत्तरप्रदेश सूचना का अधिकार नियमावली, 2015 के नियम 7 तथा उत्तरप्रदेश राज्य सूचना आयोग (अपील की प्रक्रिया) नियमावली, 2006 के नियम 3 का वाचन यह अप्रतिरोध निष्कर्ष अग्रसर करता है कि "अधिनियम, 2005" की धारा 7 के अधीन पारित प्रत्येक आदेश के विरुद्ध अथवा प्रत्येक कल्पित इनकारी के विरुद्ध सक्षम प्राधिकारी के समक्ष "अधिनियम, 2005" की धारा 19 (1) के अधीन पृथक् प्रथम अपीलें होंगी।

    अपील का अधिकार सांविधिक विधिक अधिकार है:-

    यह सुनिश्चित विधि है कि अपील का अधिकार संविधि का सृजन है। इसलिये अपील संविधि द्वारा केवल यथोपवन्धित रीति में ही दाखिल की जा सकती है। मुख्य सूचना आयुक्त एवं एक अन्य बनाम मनिपुर राज्य एवं एक अन्य, (2011) 15 एस सी सी 1 (पैरा 45, 49 और 51) के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम की धारा 18 तथा 19 के प्रावधानों पर विचार किया था और निम्न प्रकार से अभिनिर्धारित किया था:-

    इसके अलावा अधिनियम की धारा 19 के अधीन प्रक्रिया को जब धारा 18 से तुलना की जाती है, तब उस व्यक्ति को, जिसे वह सूचना इन्कार कर दी गयी है, जिसकी उसने मांग की है, के हित को संरक्षित करने के लिये विभिन्न रक्षोपाय किये गये हैं। इस सम्बन्ध में धारा 19 (5) को निर्दिष्ट किया जा सकता है। धारा 19 (5) निवेदन की इन्कारी को न्यायसंगत ठहराने का भार सूचना अधिकारी पर अधिरोपित करती है। इसलिये इन्कारों को न्यायसंगत ठहराना अधिकारी का कर्तव्य होता है। धारा 18 में ऐसा कोई रक्षोपाय नहीं है। इसके अलावा धारा 19 के अधीन प्रक्रिया समयबद्ध होती है, परन्तु धारा 18 के अधीन कोई परिसीमा विहित नहीं की गयी है। इसलिये धारा 18 और धारा 19 के मध्य दोनों प्रक्रियाओं में से एक धारा 19 के अधीन है, जो उस व्यक्ति के लिये अधिक लाभदायक होती है, जिसे सूचना की पहुंच से इन्कार किया गया है।

    एक अन्य पक्ष भी है। धारा 19 के अधीन प्रक्रिया अपीलीय प्रक्रिया होती है। अपील का अधिकार सदैव संविधि का सृजन होता है। अपील का अधिकार उच्चतर फोरम के समक्ष उसकी सहायता का आश्रय लेने के लिये प्रवेश करने तथा निम्नतर फोरम की त्रुटियों को सुधारने के लिये हस्तक्षेप करने का अधिकार होता है। यह बहुत मूल्यवान अधिकार होता है। इसलिये जब संविधि अपील पर ऐसा अधिकार प्रदत करती है, तब उसका प्रयोग ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिये, जो सूचना प्रस्तुत किये जाने की इन्कारों के कारण द्वारा व्यक्ति हो।

    इसलिए यह न्यायालय अपीलार्थीगण को आज से 4 सप्ताह की अवधि के भीतर दिनांक 9.2.2007 और 19.5.2007 के आवेदनों के माध्यम से प्राप्त करने के लिये अपने द्वारा दो निवेदनों के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 19 अधीन अपीलें दाखिल करने के लिये निर्देशित करता है। यदि अपीलार्थीगण द्वारा विधिक प्रक्रिया का पालन करते हुये ऐसी अपील दाखिल की जाती है, तब उस पर अपीलीय प्राधिकारी द्वारा परिसीमा अवधि पर बल दिये बिना गुणावगुण पर विचार किया जाना चाहिये।"

    मुख्य सूचना आयुक्त एवं एक अन्य (उक्त) के वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय का पूर्वोक्त निर्णय पूर्ण रूप से यह स्पष्ट करता है कि जब सूचना प्राप्त करने के लिये दो निवेदन किये गये थे, तब उच्चतम न्यायालय ने दोनों निवेदनों के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 19 के अधीन अपील दाखिल करने के लिये निर्देशित किया था।

    नामित शर्मा बनाम भारत संघ, (2013) 1 एस सी सी 745 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने प्राधिकारियों के कार्य की प्रकृति तथा अधिनियम की धारा 18, 19 और 20 पर विचार किया था और निम्न प्रकार से अभिनिर्धारित किया था:-

    (क) कार्य की प्रकृति

    सूचना आयोग निकाय के रूप में अपने अधिकारियों के माध्यम से व्यापक मात्रा में कार्यों, जिसमें न्यायनिर्णायक, पर्यवेक्षणकारी के साथ ही साथ दाण्डिक कार्य शामिल हैं, को सम्पन्न करता है। सूचना की पहुंच विधिक अधिकार है। यह अधिकार, जैसा कि ऊपर इंगित किया गया है, कतिपय संवैधानिक तथा विधिक परिसीमाओं के अधीन होता है। अधिनियम, 2005 " स्वयं उन्मुक्त सूचना के साथ ही साथ ऐसे क्षेत्रों को अभिव्यक्त करता है, जहां अधिनियम निष्प्रभावी होगा।

    केन्द्रीय तथा राज्य सूचना आयोगों में कतिपय परिस्थितियों के अधीन तथा विनिर्दिष्ट स्थितियों में सूचना प्रदान करने से इन्कार करने की शक्ति निहित की गयी है। सूचना, जिसमें पर-पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त होता है, के प्रकटन के लिये सम्बद्ध प्राधिकारी के लिये पर पक्षकार को नोटिस जारी करने की अपेक्षा की गयी है, जो प्रत्यावेदन प्रस्तुत कर सकता है और ऐसे प्रत्यावेदन पर " अधिनियम, 2005 " के प्रावधानों के अनुसार विचार किया जाना है।

    भारत में विधि को यह स्थिति कुछ अन्य देशों में विद्यमान विधि को स्थिति के स्पष्ट विरोध में है, जहां पर पक्षकार को अन्तर्ग्रस्त करने वाली सूचना को उस पक्षकार को सम्मति के बिना प्रकट नहीं किया जा सकता है। हालांकि प्राधिकारी यह कथन करते हुये लेखबद्ध कारणों में ऐसे प्रकटन को निर्देशित कर सकता है कि लोकहित प्राइवेट हित पर अधिक भारी हैं।

    इस प्रकार इसमें न्यायनिर्णायक प्रक्रिया अन्तग्रस्त होती है, जहां पक्षकारों को सुना जाना आवश्यक होता है, उपयुक्त निर्देश जारी किया जाना होता है, मस्तिष्क के सम्यः प्रयोग पर तथा वैध कारणों से आदेश पारित किया जाना आवश्यक होता है।

    अधिनियम, 2005" के प्रावधानों के अधीन सम्बद्ध प्राधिकारियों द्वारा शक्तियों का प्रयोग तथा आदेशों को पारित करना मनमाना नहीं हो सकता है। इसे नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त तथा ऐसे प्राधिकारी द्वारा विकसित की गयी प्रक्रिया के अनुरूप होना है।

    नैसर्गिक न्याय के तीन अपरिहार्य पक्ष होते हैं, अर्थात् सूचना प्रदान करना, सुनवाई करना तथा कारणयुक्त आदेश पारित करना। इसे विवादित नहीं किया जा सकता है कि "अधिनियम, 2005" के अधीन प्राधिकारीगण तथा अधिकरण अर्द्धन्यायिक कार्यों का निर्वहन कर रहे हैं।

    सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की योजना के अधीन धारा 5 के निबन्धनों में प्रत्येक लोक प्राधिकारी, दोनों राज्य तथा केन्द्र में, से सूचना के अधिकार को इस अधिनियम के अधीन मांगी गयी सूचना को प्रस्तुत करके और अधिक प्रभावी बनाने तथा प्रभावी बनाने के लिये लोक सूचना अधिकारियों को नामित करने की अपेक्षा करती है।

    सूचना अधिकारी ऐसी सूचना प्रदान करने से इन्कार कर सकता है, जो आदेश नामित वरिष्ठ अधिकारी के समक्ष धारा 19 (1) के अधीन अपीलीय होता है, जिससे पक्षकारों को सुनने तथा मामले को विधि के अनुसार निर्णीत करने की अपेक्षा की जाती है। यह प्रथम अपील होती है।

    इस अपीलीय प्राधिकारी के आदेश के विरुद्ध "अधिनियम, 2005" की धारा 19 (3) के निबन्धनों में केन्द्रीय सूचना आयोग अथवा राज्य सूचना आयोग, जैसी भी स्थिति हो, के समक्ष द्वितीय अपील होती है।

    विधायिका ने अपने कौशल से दो अपीलों के लिये प्रावधान किया है। जहां न्यायनिर्णायक फोरम अधिक होते हैं, वहां न्यायिक रूप से, निष्पक्षता के नियम का पालन करने की तथा विहित प्रक्रिया के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा अधिक होती है और ऐसी किसी विहित प्रक्रिया अभाव में नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा होती है। ऐसे अधिकरण से सार्वजनिक प्रत्याशा भी अधिक होती है।

    इन निकायों द्वारा सम्पन्न किये गये न्यायनिर्णायक कार्य गम्भीर प्रकृति के होते हैं। आयोग द्वारा पारित किया गया आदेश अन्तिम तथा बाध्यकारी होता है और उसे संविधान के क्रमश: अनुच्छेद 226 और/अथवा अनुच्छेद 32 के अधीन न्यायालय की अधिकारिता के प्रयोग में केवल उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय के समक्ष ही प्रश्नगत किया जा सकता है।

    यदि कोई व्यक्ति सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की योजना तथा विविध प्रकार के कार्यों का विश्लेषण करता है, जो सूचना आयोग से अपने कार्यों का निर्वहन करते समय करने की अपेक्षा की जाती है, तब निम्नलिखित लक्षण स्पष्ट हो जाते हैं :-

    1)- यह हमारे समक्ष ऐसा विवाद है, जो इसे निर्णीत करता है। ब्लैक को विधि शब्दकोश (आठवां संस्करण) के अनुसार "विवाद" का तात्पर्य "वादकरण का प्रकार; विरोध अथवा विवाद" होता है। एक पक्षकार विशेष सूचना के अधिकार का प्रकथन करता है, अन्य पक्षकार उसे इन्कार करता है अथवा उसका इस तरह से विरोध भी करता है कि वह उसक संरक्षित अधिकार का अतिलंघन था, तब यह ऐसा विवाद उद्भूत करता है, जिसे आयोग द्वारा विधि के अनुसार निर्णीत किया जाना है और इस प्रकार उसे सामान्य प्रशासनिक कार्य" के रूप में नहीं कहा जा सकता है। इसलिये यह स्पष्ट हो जाता है कि अपीलीय प्राधिकारी तथा आयोग इस विवाद पर इस अर्थ में विचार करते हैं, जिसमें इसे विधिक भाषा में समझा जाता है।

    2)- यह न्यायनिर्णायक कार्यों को सम्पन्न करता है और उससे प्रभावित पक्षकार को सुनवाई का अवसर प्रदान करने तथा अपने आदेशों के लिये कारणों को अभिलिखित करने की अपेक्षा को जाती है। लोक सूचना अधिकारी के आदेश प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष अपीलीय होते हैं और प्रथम अपीलीय प्राधिकारी के आदेश सूचना आयोग के समक्ष अपीलीय होते हैं, जो तय उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के समक्ष न्यायिक पुनर्विलोकन की उसकी असाधारण शक्ति के प्रयोग में चुनौती के लिये खुले होते हैं।

    3)- यह न्यायनिर्णायक प्रक्रिया है, जो विवादों के प्रशासनिक अवधारण के समान नहीं होती है, परन्तु यह प्रकृति में अवधारण की न्यायिक प्रक्रिया के समान होती है। सम्बद्ध प्राधिकारी से न केवल यह निर्णीत करने की अपेक्षा की जाती है कि क्या मामला किसी अपवाद के अधीन आच्छादित था अथवा ऐसे किसी संगठन से सम्बन्धित था, जिसे "सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" लागू नहीं होता है, वरन् विधिक तथा संवैधानिक प्रावधानों को लागू करके यह निर्धारित करने की अपेक्षा की जाती है कि क्या सूचना के अधिकार का प्रयोग एकान्तता के अधिकार में अतिसंचन की कोटि में आता है। विधि का ऐसा सूक्ष्म अन्तर होने के कारण ऐसे मामलों में विधिक सिद्धान्तों का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।

    4)- सम्बद्ध प्राधिकारी दाण्डिक शक्तियों का प्रयोग करता है और व्यतिक्रमी पर " सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" की धारा 20 के अधीन यथा-अनुचिन्तित शास्ति अधिरोपित कर सकता है। इसे अन्वेषणकारी तथा पर्यवेक्षणकारी कार्यों को सम्पन्न करना होता है। इससे व्यतिक्रमियों, जिसमें धारा 20 (2) के निबन्धनों में सेवा में व्यक्ति शामिल है, के विरुद्ध रिपोर्ट दे सकने तथा अनुशासनिक कार्यवाही की सिफारिश कर सकने के पहले नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों तथा सेवा विधि के विधिशास्त्र को प्रयोज्य सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने के लिये अपेक्षा की जाती है।

    5)- आयोग की कार्यप्रणाली सिविल न्यायालयों की कार्यप्रणाली के अनुरूप है और इसमें अभिव्यक्त रूप से सिविल न्यायालय की सीमित शक्तियां निहित की गयी हैं। इन शक्तियों का प्रयोग तथा ऊपर विचार-विमर्श किये गये कार्यों का निर्वहन इन प्राधिकारियों की कार्यप्रणाली को न केवल न्यायिक और/अथवा अर्द्धन्यायिक कार्यप्रणाली कर रंग प्रदान करता है, वरन् आयोग में सिविल न्यायालय के आवश्यक पाशों को भी विहित करता है।

    धारा 20 दाण्डिक प्रावधान है। यह केन्द्रीय अथवा राज्य लोक सूचना आयोग को ऐसे लोक सूचना अधिकारी के विरुद्ध शास्ति अधिरोपित करने के साथ ही साथ अनुशासनिक कार्यवाही करने को सिफारिश करने के लिये सशक्त करती है, जिसने उसकी राय में बिना किसी युक्तियुक्त कारण से इस धारा में विनिर्दिष्ट कोई कृत्य अथवा लोप कारित किया है। उक्त प्रावधान यह प्रदर्शित करता है कि आयोग की कार्यप्रणाली केवल प्रशासनिक ही नहीं है, वरन् प्रकृति में अर्द्धन्यायिक है।

    यह ऐसी शक्तियों तथा कार्यों का प्रयोग करता है, जो स्वरूप में न्यायनिर्णायक तथा प्रकृति में विधिक होती है। इस प्रकार विधि की अपेक्षा, विधिक प्रक्रिया तथा संरक्षण प्रकट रूप से आवश्यक होंगे। आयोग द्वारा अर्द्धन्यायिक विवेकाधिकार का सबसे अच्छा प्रयोग संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन अन्तर्निहित संरक्षणों के विरुद्ध संविधान के अनुच्छेद 19 के अधीन मान्यता प्राप्त सूचना के अधिकार को सुनिश्चित करना तथा प्रभावी बनाना है।

    सूचना आयोग की प्रथम अपीलीय प्राधिकारी में अपीलें सुनने को शक्ति प्राप्त है और इस प्रकार इसे इस बात की जांच करनी है कि क्या अपीलीय प्राधिकारी और लोक सूचना अधिकारों का भी आदेश सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के प्रावधानों तथा संविधान द्वारा अधिरोपित परिसीमाओं के अनुरूप है। इस पृष्ठभूमि में किसी भी न्यायालय को यह अभिनिर्धारित करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हो सकती है. कि सूचना आयोग सिविल न्यायालय का पाश रखने वाले अधिकार के समान है और यह अर्द्धन्यायिक कार्यों को सम्पन्न कर रहा है।

    इस अधिनियम के विभिन्न प्रावधान विधि की इस अप्रश्नास्पद प्रतिपादना के स्पष्ट संकेतक हैं कि आयोग न्यायिक अधिकरण, न कि अनुसचिवीय अधिकरण है। यह महत्वपूर्ण भाग है तथा अनुसचिवीय अधिकरण, जो अधिक प्रभावित तथा नियंत्रित होता है और प्रशासन की मशीनरी के अनुसार कार्यों को सम्पन्न करता है, से भिन्न न्याय प्रशासन से संलग्न प्रणाली का भाग है।

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