धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत का अधिकार सुप्रीम कोर्ट की सीमा अवधि में की गई बढ़ोतरी के आदेश से प्रभावित नहीं होताः मद्रास हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

9 May 2020 7:00 AM GMT

  • धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत का अधिकार सुप्रीम कोर्ट की सीमा अवधि में की गई बढ़ोतरी के आदेश से प्रभावित नहीं होताः मद्रास हाईकोर्ट

     Madras High Court

    मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में माना है कि COVID-19 के मद्देनजर मामलों को दायर करने की सीमा अवधि में बढ़ोतरी का सुप्रीम कोर्ट का सामान्य फैसला, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत किसी अभियुक्त के डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा।

    ज‌स्टिस जीआर स्वामीनाथन की एकल पीठ ने कहा कि पुलिस अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का फायदा उठाकर अतिरिक्त अवधि का दावा नहीं कर सकती है। कोर्ट ने कहा कि इस तरह की व्याख्या की अनुमति देना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को विफल करेगा।

    ज‌स्टिस स्वामीनाथन ने अपने आदेश में कहा,

    "व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है। अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं होगा।

    जब तक सीआरपीसी की धारा 167 (2) की भाषा बनी हुई है, तब तक मुझे यह मानना ​​होगा कि याचिकाकर्ता को अनिवार्य जमानत से वंचित करना निश्चित रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।

    माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का नेक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी व्यक्ति अपने बहुमूल्य अधिकारों से वंचित न रहे। लेकिन, यदि मैं प्रतिवादी पुलिस की याचिका स्वीकार करता हूं तो माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश, ‌जिसका उद्देश्य अधिकारों की सुरक्षा और संरक्षण है, के जरिए, उस मूल्यवान अधिकार को छीन लिया जाएगा, जिसे अभियुक्तों को प्रदान किया गया है।"

    हाईकोर्ट ने यह आदेश सेतु नामक एक अभियुक्त की जमानत याचिका पर पारित किया,जिसे 19 जनवरी 2020 को लूट के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उस पर भारतीय दंड संहिता की धारा 397,धारा 392 के साथ पढ़ें, के तह‌त अपराध दर्ज किया गया था। गिरफ्तारी के बाद से ही वह हिरासत में था।

    आईपीसी की धारा 392 दो तरह की लूट से संबंधित है; सूर्यास्त और सूर्योदय के बीच राजमार्ग पर लूट, और अन्य प्रकार की लूट। पहले मामले में कारावास का दंड है, जो 14 साल तक का हो सकता है। सामान्य लूट के मामले में दस साल तक की सश्रम कारावास की सजा दी जा सकती है। यदि याचिकाकर्ता के मामले को सामान्य लूट की श्रेणी में रखा गया है तो वह रिमांड की तारीख से 60 वें दिन की समाप्ति पर डिफॉल्ट जमानत मांग सकता है। यदि याचिकाकर्ता के मामले को अधिक संगीन माना गया है तो तो यह प्रक्रिया 90 दिनों की समाप्ति के बाद लागू होगी।

    अभ‌ियुक्त की र‌िमांड खत्म होने के बाद का 60 वां दिन 19 मार्च, 2020 को पड़ा। 90 वां दिन 18 अप्रैल 2020 को पड़ा। किसी भी मामले में, पुलिस अंतिम रिपोर्ट पेश नहीं कर पाई, यहां तक ​​कि जमानत की सुनवाई की तारीख पर भी नहीं कर पाई। इसलिए, अभियुक्त ने सीआरपीसी की धारा 167 (2) के अनुसार, डिफॉल्ट जमानत मांगी।

    विरोध में, अभियोजन पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 23 मार्च को पारित आदेश पर भरोसा करने की मांग की, जिसके तहत अदालतों और न्यायाधिकरणों के समक्ष मामले दायर करने की सीमा अवधि बढ़ा दी गई, यह फैसला 15 मार्च से शुरु होकर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नया आदेश दिए जाने तक प्रभावी है।

    6 मई को सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम और नेगोशिएशन इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के तहत एक और आदेश पारित किया और सीमा अवधि बढ़ा दी गई। इसलिए, हाईकोर्ट के समक्ष प्रश्न था कि क्या सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने की सीमा अवधि भी बढ़ाएगा।

    मुद्दे के निस्तारण के लिए, ज‌स्टिस स्वामीनाथन ने 'सीमा' शब्द के दायरे की जांच की।

    परिसीमा अधिनियम की धारा 2 (जे) का उल्लेख करते हुए, यह देखा गया कि "सीमा की अवधि" किसी भी मुकदमे में,अपील या आवेदन के लिए निर्धारित समयावधि से संबंधित है। सीमा अवधि की समाप्ति के बाद, आवेदन या अपील को सीधे स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जब तक कि सीमा अधिनियम की धारा 5 या अन्य प्रासंगिक प्रावधान के तहत देरी क्षम्य हो।

    इस संदर्भ में, जज ने जांच की कि क्या धारा 167 (2) को जांच के लिए सीमा की किसी भी अवधि के रूप में माना जा सकता है।

    इसका दो आधारों पर नकारात्मक जवाब दिया गया:

    -धारा 167 (2) के तहत, निर्धारित अवधि के बाद भी अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने पर रोक नहीं है।

    -धारा 167 (2) के तहत अवधि समाप्त होने के बाद डिफॉल्ट जमानत के अभियुक्तों के अधिकारों का अर्जन होता है।

    आदेश में कहा गया है:

    "ध्यान देने की बात यह है कि सीमा की अवधि की समाप्त के बाद, आवेदन या अपील को सीधे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यही कारण है, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने परोपकारवश, आदेश दिया है कि सीमा की अवधि लॉकडाउन की अवधि में विस्तारित होगी। इस प्रकार, मुकदमेबाजों अधिकारों खत्म नहीं होगा। लेकिन, अंतिम रिपोर्ट दाखिल करना बिलकुल अलग मामला है।"

    कोर्ट ने कहा, सीआरपीसी की धारा 167 को अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने की सीमा की अवधि के रूप में नहीं माना जा सकता है।

    कोर्ट ने उल्लेख किया कि अचपाल बनाम राजस्‍थान राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका है कि धारा 167 (2) के तहत अवधि की समाप्ति पर, अभियुक्त के पक्ष में डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए एक अपरिहार्य अध‌िकार आ जाता है।

    कोर्ट ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश- टैक्‍सेशन एंड अदर लॉज (रिलेक्सेशन ऑफ सर्टेन प्रॉविजन्स) ऑर्डिनेंस, 2020- लाकर विभिन्न कराधान और नियामक कानूनों के तहत फाइलिंग और शिकायतों की अवधि बढ़ाने का आदेश दिया है। इसके बाद भी कार्यकारी ने धारा 167 (2) में कोई संशोधन करना जरूरी नहीं समझा।

    कोर्ट ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान भी अपराध हो रहे थे, और गिरफ्तारियां की जा रही थीं। इसलिए सीमा के सामान्य विस्तार को अंतिम रिपोर्ट दर्ज नहीं करने के कारण के रूप में उद्धृत नहीं किया जा सकता है। यह नोट किया गया कि धारा 167 (2 ए) के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट की अनुपस्थिति में कार्यकारी मजिस्ट्रेट को भी हिरासत का आदेश पारित करने का अधिकार दिया गया है।

    यूएपीए, एनडीपीएस मामलों पर व्याख्या लागू नहीं

    हालांकि, कोर्ट ने कहा कि उसके द्वारा दी गई व्याख्या यूएपीए, एनडीपीएस आदि विशेष कानूनों के तहत दर्ज मामलों पर लागू नहीं होगी।

    आदेश में कहा गया, "यह आदेश कुछ विशेष अपराधों जैसे कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 और एनडीपीएस अधिनियम, 1985 के तहत दर्ज अपराधों के मामले में लागू नहीं होगा।"

    याचिकाकर्ता को निम्न शर्तों के स‌ाथ डिफॉल्ट जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया गया-

    -याचिकाकर्ता दो जमानतदारों के साथ 10,000/ रूपए का एक बांड निष्पादित करेगा।

    -याचिकाकर्ता को निर्देशित किया जाता है कि वह पूछताछ की आवश्यकता होने पर पुलिस के समक्ष पेश होगा।

    -उपरोक्त शर्तों में से किसी का भी उल्लंघन होने पर, मजिस्ट्रेट/ट्रायल कोर्ट, याचिकाकर्ता के खिलाफ उचित कार्रवाई करने का हकदार है।

    कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह आदेश राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य (2017) 15 SCC 67 ​​में SC द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार, याचिकाकर्ता की गिरफ्तारी या दोबारा गिरफ्तारी पर रोक नहीं लगाती है।

    केस का विवरण

    टाइटल: सेतु बनाम राज्य

    केस नंबर: Crl OP (MD)No 5291/2020

    बेंच: जस्टिस जी आर स्वामीनाथन

    प्रतिनिधित्व: केएम करुणाकरन, अभियुक्तों के लिए, ए रॉबिन्सन, अभियोजन के लिए।

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