अपनी पंसद का साथी चुनने का अधिकार एक मौ‌लिक अधिकार, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा, "केवल विवाह के लिए धर्मांतरण" का फैसला अच्छा कानून नहीं

LiveLaw News Network

24 Nov 2020 5:27 AM GMT

  • अपनी पंसद का साथी चुनने का अधिकार एक मौ‌लिक अधिकार, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा, केवल विवाह के लिए धर्मांतरण का फैसला अच्छा कानून नहीं

    एक महत्वपूर्ण फैसले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में (11 नवंबर को) विशेष रूप से कहा कि "अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार, इसके बाद भी कि आपने किस धर्म को स्वीकार किया है, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार में अंतर्निहित है।"

    जस्टिस पंकज नकवी और जस्टिस विवेक अग्रवाल की खंडपीठ ने कहा, "हम यह समझने में विफल हैं कि यदि कानून दो व्यक्तियों को एक साथ शांति से रहने की अनुमति देता है, भले ही वो एक ही ल‌िंग के हों तो भी, तो न तो किसी व्यक्ति को और न ही परिवार या यहां तक ​​कि राज्य को भी दो वयस्क व्यक्तियों के संबंधों पर आपत्ति हो सकती है, जो अपनी मर्जी से साथ रह रहे हैं।"

    प्रियांशी @ कुमारी शमरेन और अन्य बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश और एक अन्य Writ C No. 14288 of 2020] और श्रीमती नूर जहां बेगम @ अंजलि मिश्रा और एक अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और एक अन्य। [Writ C No. 57068 of 2014] में दिए गए फैसलों का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा, "इनमें से कोई भी फैसला जीवन या दो परिपक्व व्यक्तियों की एक साथी चुनने में स्वतंत्रता या वह किसके साथ रहना पसंद करते हैं, यह चुनने की स्वतंत्रता के अधिकार का निस्तारण नहीं करता है।"

    अदालत ने कहा, "हम मानते हैं कि नूरजहां और प्रियांशी, अच्छे काननू का निर्धारण नहीं करते हैं।"

    केस की पृष्ठभूमि

    एक रिट याचिका दायर की गई थी, जिसमें प्रतिवादी के लिए दिशनिर्देश की मांग की गई ‌थी, याचिकाकर्ताओं (सलामत अंसारी और 3 अन्य) को गिरफ्तार नहीं किया जाए, साथ ही प्रार्थना की गई थी कि धारा 363, 366, 352, 506 आईपीसी और धारा 7/8 पोक्सो अधिनियम के तहत पुलिस स्टेशन- विष्णुपुरा, जिला कुशीनगर में जर्द एफआईआर को रद्द किया जाए।

    सलामत अंसारी (पति) और प्रियंका खरवार @ आलिया (पत्नी), ने दो अन्य के साथ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें उन्होंने धारा 363, 366, 356, 352, 506 आईपीसी और धारा 7/8 पोक्सो अधिनियम, के तहत दर्ज एफआईआर, जिसे याचिकाकर्ता संख्या चार प्रियंका खरवार @ आलिया के प‌िता की ओर से दर्ज कराया गया था, पर रोक लगाने की मांग की गई।

    तर्क दिया गया कि युगल (सलामत अंसारी और प्रियंका खरवार @ आलिया) वयस्‍क हैं, और विवाह का अनुबंध करने में सक्षम हैं। प्रियंका खरवार द्वारा अपनी हिंदू पहचान का त्याग करने और इस्लाम धर्म अपनाने के बाद उन्होंने 19.08.2019 को मुस्लिम संस्कार और अनुष्ठान के अनुसार निकाह किया था।

    आगे दलील दी गई कि दंपति पिछले एक साल से शांति और खुशी से एक साथ पति-पत्नी के रूप में रह रहे हैं।

    अंततः कहा गया कि याचिकाकर्ता संख्या चार के पिता द्वारा दर्ज की गई प्राथमिकी केवल वैवाहिक संबंधों को समाप्त करने के उद्देश्य से दुर्भावना और शरारत से प्रेरित है, कोई अपराध नहीं किया गया, इसलिए एफआईआर को रद्द कर दिया जाए।

    राज्य के तर्क

    एजीए और मुखबिर के वकील ने इस आधार पर य‌ाचिकाकर्ताओं की प्रस्तुतियों का का विरोध किया कि विवाह अनुबंधित करने के लिए धर्म परिवर्तन निषिद्ध है। उन्होंने कहा कि उक्त विवाह में कानून की कोई पवित्रता नहीं है, इसलिए अदालत को ऐसे युगल के पक्ष में अपने अतिरिक्त साधारण अधिकार क्षेत्र का उपयोग नहीं करना चा‌‌हिए।

    अपनी दलीलों के समर्थन में उन्होंने नूरजहां और प्रियांशी के फैसलों पर भरोसा किया।

    प्रियंका की उम्र के संबंध में न्यायालय का अवलोकन

    कोर्ट ने पाया कि प्रियंका खरवार @ आलिया की उम्र पर विवाद नहीं है क्योंकि उसकी उम्र 21 साल के आसपास बताई जा रही है, और इसलिए याचिकाकर्ता संख्या एक से तीन को धारा 363 आईपीसी, 3 या 366 आईपीसी के तहत अपराध करने का आरोपी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि पीड़ित ने खुद सलामत अंसारी के साथ रहने के लिए घर छोड़ा है।

    इसी प्रकार, अदालत ने कहा कि प्रियंका खरवार @ आलिया को किशोर नहीं पाया गया है, इसलिए धारा 7/8 पोक्सो अधिनियम के तहत अपराध नहीं बनता है।

    इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि धारा 352, 506 आईपीसी के तहत अपराध से प्र‌थमदृष्टया अतिरंजित और दुर्भावनापूर्ण प्रतीत होते हैं।

    विवाह के संबंध में न्यायालय का अवलोकन

    न्यायालय ने अपने आदेश में कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। कोर्ट ने कहा, "हम प्रियंका खरवार और सलामत को हिंदू और मुस्लिम के रूप में नहीं देखते हैं, बल्कि दो वयस्कों के रूप में देखते हैं, जो अपनी मर्जी और पसंद से, एक साल से शांति और खुशी के साथ रह रहे हैं। अदालत और विशेष रूप से संवैधानिक अदालत, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को बरकारर रखने की अनुमति देती है।"

    इसके अलावा, अदालत ने कहा, "अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार, इसके बाद भी कि आपने किस धर्म को स्वीकार किया है, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार में अंतर्निहित है। व्यक्तिगत संबंध में हस्तक्षेप, दो व्यक्तियों की पसंद की स्वतंत्रता के अधिकार में एक गंभीर अतिक्रमण होगा।"

    उल्लेखनीय रूप से, अदालत ने टिप्पणी की, "एक व्यक्ति का अन्य व्यक्ति के साथ रहने का निर्णय, जो वयस्क हैं, सख्ती से एक व्यक्ति का अधिकार है और जब इस अधिकार का उल्लंघन होता है, तो यह उसके जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा। व्यक्तिगत स्वतंत्रता में पसंद की स्वतंत्रता का अधिकार, साथी चुनने, प्रतिष्ठा के साथ जीने का अधिकार शामिल है।"

    शफीन जहां बनाम असोकन केएम (2018) 16 SCC 368 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए, अदालत ने कहा कि "सुप्रीम कोर्ट ने वयस्कों की स्वतंत्रता का लगातार सम्मान किया है।"

    न्यायालय ने कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी दोहराया कि जाति, पंथ या धर्म के बावजूद एक साथी चुनने का अधिकार, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार का एक अभिन्न अंग है।

    नूरजहां और प्रियांशी के मामलों पर न्यायालय का अवलोकन

    सितंबर 2020 में, प्रियांशी के मामले में, एक एकल पीठ ने 2014 के एक फैसले नूरजहां बेगम @ अंजलि मिश्रा और एक अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य का उल्लेख किया था, जिसमें यह कहा गया था कि विवाह के उद्देश्य से धर्मांतरण अस्वीकार्य है।

    नूरजहां बेगम में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रिट याचिकाओं के एक बैच को खारिज कर दिया था, जिसमें एक विवाहित जोड़े के रूप में युगल की सुरक्षा की प्रार्थना की गई थी, क्योंकि उस मामले में लड़कियों ने हिंदू से इस्लाम धर्म में परिवर्तित होने के बाद निकाह किया ‌था। उक्त मामले में विचारणीय मुद्दा यह था कि "क्या किसी मुस्लिम लड़के के कहने पर एक हिंदू लड़की का धर्म परिवर्तन, इस्लाम या इस्लाम में आस्था और विश्वास के बिना और केवल विवाह (निकाह) के उद्देश्य के लिए मान्य है?"

    हाईकोर्ट ने उक्त मामले में, नूरजहां (सुप्रा) के मामले के तथ्यों को ध्यान में रखा, जिसने अपने कथित पति के साथ, वर्ष 2014 में अदालत का दरवाजा खटखटाया था। उसने सुरक्षा की मांग की थी। उसका कहना था कि उसने अपने मुस्लिम पति के साथ निकाह का अनुबंध करने के लिए अपनी हिंदू पहचान को त्यागने के बाद इस्लाम अपना लिया था।

    महत्वपूर्ण रूप से, विवाहित जोड़ों द्वारा चार और याचिकाएं दायर की गई थीं, जिसमें प्रत्येक मामले में महिला की पहचान नूरजहां के मामले के अनुरूप ही थी।

    उस मामले में, विचाराधीन महिलाएं अपने कथित रूपांतरण को प्रमाणित नहीं कर सकीं क्योंकि वे इस्लाम के मूल सिद्धांतों के बारे में जानकारी होना, साबित करने में असमर्थ रहीं, और इसलिए न्यायालय ने माना कि कथित विवाह अवैध था क्योंकि यह धर्मांतरण के बाद किया गया था, जो कानून में उचित नहीं हो सकता था।

    इस पर, हाईकोर्ट ने कहा, "एक बार जब कथित धर्मांतरण संदिग्ध हो तो, संवैधानिक न्यायालय लड़कियों की इच्छा का पता लगाने के लिए बाध्य था, क्योंकि वे 18 वर्ष से अधिक उम्र की थी। व्यक्ति की पसंद की अवहेलना करना जो वयस्‍क है, न केवल वयस्क की पसंद की स्वतंत्रता के प्रति विरोधाभासी होना, बल्कि विविधता में एकता की अवधारणा के लिए भी खतरा होगा।"

    नतीजतन, अदालत ने माना कि नूरजहां और प्रियांशी में निर्णय अच्छे कानून नहीं हैं।

    कोर्ट का अंतिम आदेश

    कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, "हम यह दोहराना चाहते हैं कि हम प्राथमिक रूप से इस आधार पर प्राथमिकी को रद्द कर रहे हैं कि कोई अपराध नहीं किया गया है, जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, जैसा कि तथ्य भी है कि दो वयस्क हमारे सामने हैं, जो एक वर्ष से अधिक समय से अपनी मर्जी और पसंद से एक साथ रहे हैं।

    इसके अलावा, अदालत ने कहा कि मुखबिर की ओर से अंतिम विवाद यह है कि उसे अपनी बेटी से मिलने का अधिकार है।

    इस पर कोर्ट ने कहा, "एक बार जब याचिकाकर्ता संख्या चार ने वयस्कता प्राप्त की ली है, तो यह उसकी पसंद है, कि वह किससे मिलना चाहेगी। हालांकि, हम उम्मीद करते हैं कि बेटी अपने परिवार के साथ उचित शिष्टाचार और सम्मान का व्यवहार करेगी।"

    उपरोक्त चर्चा के मद्देनजर, रिट याचिका सफल हुई और अनुमति दी गई। यह ध्यान दिया जा सकता है कि एक वकील ने प्रियांशी मामले में हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और चुनौती लंबित है।

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