संज्ञेय अपराध का गठन करने के लिए किसी भौतिक आरोप की मौजूदगी बिना अपराध का पंजीकरण 'निकृष्ट तंत्र' की धारणा को जन्म देगा, अराजकता पैदा हो सकती है: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
14 Sept 2020 4:03 PM IST
आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा है कि संज्ञेय अपराध का गठन करने के लिए किसी भी भौतिक आरोप की मौजूदगी बिना अपराध का पंजीकरण, और जांच की आड़ में जनता को परेशान करने से अराजकता पैदा हो सकती है।
जस्टिस एम सत्यनारायण मूर्ति ने कहा कि पुलिस विभाग के ऐसे कार्यों से धारणा बनती है कि लोग "निकृष्ट तंत्र" में रह रहे हैं, जबकि वे एक लोकतंत्र में रह रहे हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि इससे कानून के बारे में न्यूनतम ज्ञान की कमी भी दिखती है, यह धारणा बनती है कि विभाग ऐसे अधिकारी द्वारा संचालित किया जाता है, जिस पर किसी प्रकार का प्रशासनिक नियंत्रण नहीं है।
सिंगल बेंच लोकप्रिय वेब पोर्टल "तेलुगु वन डॉट कॉम" के प्रबंध निदेशक के खिलाफ राज्य सीआईडी द्वारा धारा 188, 505 (2), और 506 और आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 54 के तहत दर्ज एफआईआर को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, सीआईडी, आंध्र प्रदेश ने शिकायत दर्ज कराई थी कि जब वह यूट्यूब पर तेलुगु वन चैनल देख रहे थे, तो उन्हे आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ एक झूठी और मनगढ़ंत ऑडियो क्लिप दिखाई दी, जिसे सोशल मीडिया पर प्रसारित किया जा रहा था और उस समाचार को सरकार और मुख्यमंत्री के खिलाफ झुंझलाहट, असुविधा, क्रोध, अपमान, चोट, आपराधिक धमकी, घृणा, दुर्भावना पैदा करने के लिए पोस्ट किया गया था और उससे लोगों के मन में दहशत पैदा हुई कि COVID 19 के दौरान राज्य असुरक्षित है। शिकायत में आगे आरोप लगाया गया कि मनगढ़ंत ऑडियो क्लिप व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक, टिकटॉक, यूट्यूब और हेल्प ऐप जैसे कई प्लेटफार्मों पर प्रसारित किया गया ताकि जनता को गुमराह किया जा सके और वाईएस जगन मोहन रेड्डी, उनके परिजनों, आंध्र प्रदेश सरकार, वाईएसआई कांग्रेस के खिलाफ दुर्भावना पैदा की जा सके।
पीठ ने कहा, पुलिस की कार्रवाई सत्ताधारी पार्टी को खुश करने का अति उत्साह
वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर, पीठ ने फैसला दिया कि शिकायत में लगाए गए आरोपों से अनिवार्य रूप से इस प्रकार के प्रकाशन, बयान या बयानों के प्रसार का खुलासा होना चाहिए, जिनसे धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास आधारित अफवाह या भयावह समाचार का जनता में प्रसार किया जा रहा हो। हालांकि विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषीय या क्षेत्रीय समूहों या जातियों या समुदायों के बीच शत्रुता, घृणा या दुर्भावना की भावना के अभाव में, आईपीसी की धारा 505 (2) के तहत अपराध का पंजीकरण गैरकानूनी है।
पीठ ने कहा, "मुझे इस प्रकार के दो समूह नहीं दिखते हैं और इस प्रकार के बयान से जाति, धर्म आदि के आधार पर दो समूहों या वर्गों के बीच किसी भी प्रकार की दुर्भावना या घृणा पैदा होती है, हालांकि शिकायत में आरोप यह है कि यूट्यूब में पोस्टिंग केवल सरकार और वर्तमान मुख्यमंत्री का अपमान करने के लिए की गई है।" पीठ ने कहा कि सरकार और मुख्यमंत्री एक दो समूह नहीं हो सकते हैं क्योंकि सरकार का संचालन मुख्यमंत्री द्वारा किया जाता है और वह जनप्रतिनिधि है।"
पीठ ने कहा कि किसी अन्य समूह, धर्म के आधार पर शत्रुता, दुर्भावना आदि का निर्माण, की अनुपस्थिति में आईपीसी की धारा 505 (2) के तहत दंडनीय अपराध का निर्माण नहीं होता है।
कोर्ट ने कहा कि पुलिस का यह मुख्य कर्तव्य है कि जांच शुरू करने से पहले, पुलिस अधिकारी को संतुष्ट होना होता है कि शिकायत में लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का गठन करते हैं? पीठ ने कहा कि यदि अधिकारियों के ऐसे कार्यों को नियंत्रित नहीं किया जाता है, तो भयंकर परिणाम हो सकते हैं। वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
धारा 506 आईपीसी के संबंध में, पीठ ने उल्लेख किया कि वर्तमान मामले में, जनता के लिए बिल्कुल खतरा नहीं है या किसी व्यक्ति को किसी कार्य को करने या किसी कार्य को न करने के लिए संकेत दिया जा रहा है। किसी को किसी कार्य का संकेत दिए बिना, किसी इरादे के बिना मात्र शब्द की अभिव्यक्ति के कारण उक्त धाराा लागू नहीं की जा सकती है। अच्छा यह होता कि शिकायत में खुलासा होता कि कि सामाजिक मंच पर दिए गए बयान से जनता के मन में दहशत पैदा हो सकती है कि COVID-19 की अवधि में आंध्र प्रदेश राज्य में प्रवेश सुरक्षित नहीं है। पीठ ने कहा, "शिकायतकर्ता के विश्लेषण के बाद लगाए गए आरोप आईपीसी की धारा 506 के तहत दंडनीय अपराध नहीं लगते हैं।"
पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की की धारा 506 के तहत अपराध का पंजीकरण कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। इस आधार पर, न्यायालय याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्यवाही को रद्द कर सकता है।
पीठ ने कहा, "पुलिस के प्रमुख कर्तव्य, या तो आपराधिक जांच हैं या कानून और व्यवस्था, पुलिस का मुख्य कर्तव्य जनता को कानून के प्रकोप से बचाना है। लेकिन, यहां पुलिस ने कानून के दुरुपयोग के लिए इस याचिकाकर्ता के खिलाफ विभिन्न अपराधों में अपराध दर्ज किया है। हालांकि, शिकायत में लगाए गए आरोप धारा 505 (2) और धारा 506 आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधों में से किसी को आकर्षित नहीं करते हैं।"
पुलिस के कर्तव्य
पीठ ने कहा कि पुलिस का प्राथमिक कर्तव्य कानून और व्यवस्था बनाए रखना है क्योंकि वे जनता को किसी भी चोट से सुरक्षा प्रदान करने के लिए काम कर रहे हैं।
पुलिस का सबसे महत्वपूर्ण पारंपरिक कार्य अपराधी से निपटना है, इस कार्य के लिए अपराध का पता लगाना और जांच करना, अपराधियों की गिरफ्तारी और उन लोगों के खिलाफ सबूतों का संग्रह आवश्यक है, जिनके खिलाफ कानून की अदालत में मुकदमा चलाया जाता है। वे अपराधियों को न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।"
आम तौर पर यह माना जाता है कि पुलिस अपने कर्तव्यों की प्रकृति के कारण अपराधियों को नियंत्रित करने और उन्हें पकड़ने के लिए हिंसा के प्रतिरोध के रूप में हिंसा हिंसा का उपयोग करने के लिए बाध्य होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में उचित ही कहा है कि जांच अधिकारी का कर्तव्य साक्ष्य के साथ अभियोजन के मामले का इस प्रकार समर्थन करना ही नहीं है कि न्यायालय अपराधी को दोषी ठहराने में सक्षम हो सके बल्कि वास्तविक अपुष्ट सत्य को सामने लाना भी है।
कोर्ट ने कहा कि पुलिस बल का एक अन्य उद्देश्य अपराध को रोकना है। पुलिस का तीसरा कार्य कई समकालीन नियमों का प्रवर्तन है, जिनमें ट्रैफिक संचालन, स्वच्छता और लाइसेंसिंग विनियमों को प्रवर्तन, भीड़ नियंत्रण, अश्लील साहित्य के खिलाफ कार्रवाई और नागरिक सुरक्षा और आपदा प्रबंधन ड्यूटी आदि है।"
पीठ ने कहा कि भारत में अन्य देशों के जैसे ही, पुलिस को उपरोक्त सभी कार्यों को पूरा करना पड़ता है, जबकि भारत की सामाजिक विविधताओं और सभी प्रकार की राजनीतिक विचारधाराओं की मौजूदगी के कारण पुलिस पर बोझ असाधारण होता है।
पीठ ने पुलिस के सामने आने वाली कठिनाइयों को भी गिनाया:
(1) कर्मचारियों की अपर्याप्तता।
(2) पुलिस द्वारा लिए गए बयानों का दुरुपयोग।
(3) अन्य जांच एजेंसियों के साथ समन्वय का अभाव।
(4) पुलिस और समुदाय के साथ उसके संबंध।