'शाखा और सिंदूर' पहनने से इनकार करने का अर्थ है महिला द्वारा शादी को अस्वीकार करना : गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तलाक की अपील स्वीकार की

LiveLaw News Network

29 Jun 2020 4:22 PM IST

  • शाखा और सिंदूर पहनने से इनकार करने का अर्थ है महिला द्वारा शादी को अस्वीकार करना : गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तलाक की अपील स्वीकार की

    फैमिली कोर्ट के आदेश के खिलाफ एक पति की तरफ से दायर वैवाहिक अपील को गुवाहाटी हाईकोर्ट ने स्वीकार करते हुए कहा है कि 'शाखा (शंख से बनी सफेद चूड़ी) और सिंदूर' पहनने से इनकार करना इस बात का संकेत है कि पत्नी अपनी शादी को स्वीकार नहीं कर रही है। इस मामले में फैमिली कोर्ट ने पति की तरफ से दायर तलाक के आवेदन को खारिज कर दिया था।

    मुख्य न्यायाधीश अजय लांबा और न्यायमूर्ति सौमित्रा सैकिया की पीठ ने कहा कि हिंदू विवाह की प्रथा के तहत, जब एक महिला हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार शादी करती है और उसके बाद वह 'शाखा और सिंदूर' पहनने से इनकार करती है तो इससे यह प्रतीत होगा कि वह अविवाहित है या फिर उसने अपनी शादी को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है।

    वर्तमान मामले में पीठ ने कहा कि प्रतिवादी-पत्नी ने अपने प्रति-परीक्षण में स्पष्ट रूप से कहा था, ''मैं अभी सिंदूर नहीं पहन रही हूं क्योंकि मैं इस आदमी को अपना पति नहीं मानती हूं।''

    इन परिस्थितियों में पीठ ने कहा कि परिवार न्यायालय ने ''उचित परिप्रेक्ष्य में साक्ष्यों का मूल्यांकन नहीं किया है।''

    पीठ ने कहा कि-

    ''प्रतिवादी का इस तरह का स्पष्ट रुख उसके स्पष्ट इरादे की ओर इशारा करता है कि वह अपीलार्थी के साथ अपने वैवाहिक जीवन को जारी रखने के लिए तैयार नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में अपीलकर्ता पति का प्रतिवादी पत्नी के साथ वैवाहिक जीवन में बने रहना, प्रतिवादी पत्नी द्वारा अपीलकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों का उत्पीड़न माना जाएगा।''

    ससुराल वालों के साथ रहने से इनकार करना है क्रूरता के समान

    इसी बीच पीठ ने कहा कि प्रतिवादी-पत्नी ने अपने ससुराल वालों के साथ रहने से इनकार कर दिया था। उसने वास्तव में एक समझौते किया था जिसके तहत अपीलकर्ता पति को उसे वैवाहिक घर से दूर एक किराए का अलग मकान दिलवाने की आवश्यकता थी।

    अदालत ने कहा कि एक बेटे (अपीलकर्ता) को उसके परिवार से दूर रहने के लिए मजबूर करना, प्रतिवादी-पत्नी की ओर से क्रूरता का एक कार्य माना जा सकता है।

    पीठ ने कहा कि मैंटेनेंस एंड वेल्फेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सिटिजन एक्ट 2007 के तहत बच्चों द्वारा अपने माता-पिता का रख-रखाव करना अनिवार्य है।

    इन परिस्थितियों में पीठ ने कहा कि-

    ''यह देखने में आया है कि फैमिली कोर्ट ने सबूतों पर विचार करने के दौरान इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया था। जबकि अपीलकर्ता को एक्ट 2007 के प्रावधानों के तहत उसका वैधानिक कर्तव्य पूरा करने से रोका गया है,जो उसका अपनी वृद्ध मां के प्रति बनता है। इस तरह के सबूत क्रूरता का कृत्य साबित करने के लिए पर्याप्त हैं, क्योंकि 2007 अधिनियम के प्रावधानों का पालन न करने के आपराधिक परिणाम होते हैं, जिनमें दंड या कारावास के साथ-साथ जुर्माना किए जाने का भी प्रावधान है।''

    अप्रमाणित आपराधिक मामला दायर करना है क्रूरता के समान

    हाईकोर्ट ने दोहराया कि पति या पति के परिवार के सदस्यों के खिलाफ निराधार आरोपों के आधार पर आपराधिक केस दर्ज करवाना भी क्रूरता के समान है। वर्तमान मामले में, प्रतिवादी-पत्नी ने अपीलकर्ता और उसके परिवार के खिलाफ तीन आपराधिक शिकायतें दर्ज की थीं, जिनमें से एक को खारिज कर दिया गया था।

    इस प्रकार रानी नरसिम्हा शास्त्री बनाम रानी सुनीला रानी, 2019 एससीसी ऑनलाइन एससी 1595, मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा करते हुए पीठ ने कहा कि-

    ''पति और परिवार के सदस्यों के खिलाफ आईपीसी की धारा 498 (ए) आदि के तहत आपराधिक मामले दर्ज करवाना, जिसे बाद में फैमिली कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया जाता है, यह पत्नी द्वारा की गई क्रूरता के समान ही है या उसे साबित करने के पर्याप्त है ... यह स्पष्ट है कि इस शादी को जारी रखने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा क्योंकि दोनों पक्षों के बीच वैवाहिक सामंजस्य नहीं रहा है।''

    इसलिए अपील को स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट ने तलाक की डिक्री पारित कर दी।


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