जब तक असाधारण परिस्थितियां न हों, सत्र न्यायालय के समक्ष मौजूद उपाय समाप्त हुए बिना धारा 438 सीआरपीसी के तहत सीधे हाईकोर्ट से संपर्क करने से बचा जाना चाहिए: जम्मू और कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट

Avanish Pathak

15 Jun 2022 7:31 AM GMT

  • Consider The Establishment Of The State Commission For Protection Of Child Rights In The UT Of J&K

    जम्मू और कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि सीआरपीसी की धारा 438 हाईकोर्ट और सेशन कोर्ट को एक आरोपी के अग्रिम जमानत आवेदन पर विचार करने के लिए समवर्ती क्षेत्राधिकार देती है, लेकिन सामान्य अभ्यास के रूप में हाईकोर्ट इस तरह के मामले पर विचार नहीं करता है। जब तक गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति ने सेशन कोर्ट के समक्ष उपचार समाप्त नहीं कर दिया है या असाधारण परिस्थितियां मौजूद है।

    मौजूदा मामले में जस्टिस संजय धर एक अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिसमें रिकॉर्ड के अवलोकन के बाद अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता ने पहले सत्र न्यायाधीश के समक्ष अग्रिम जमानत देने के लिए एक आवेदन दिया था, जिसने याचिकाकर्ता के पक्ष में अंतरिम संरक्षण आदेश पास किए बिना पुलिस की रिपोर्ट मांगी थी।

    सत्र न्यायालय से तुरंत राहत प्राप्त करने में विफल रहने पर याचिकाकर्ता ने उक्त कार्रवाही बीच में ही छोड़ दी और जमानत अर्जी वापस ले ली थी। इसके बाद याचिकाकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र को लागू करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

    पीठ ने अपने आदेश में श्रीमती सावित्री समसो बनाम कर्नाटक राज्य, 2001 CriLJ 3164 का संदर्भ दिया, जिसमें कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा था,

    "सत्र न्यायालय अभियुक्त के निकट है और आसानी से सुलभ है। यहां अधिक तेजी से निपटान होगा क्योंकि जांच रिपोर्ट या मामले के कागजात भी तुरंत तलब किए जा सकते हैं। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि सत्र न्यायालय कानून के अनुसार कार्य नहीं करेगा और उचित आदेश पारित नहीं करेगा। किसी दिए गए मामले में यदि कोई आरोपी दुखी है तो उसका अगला उपाय हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना होगा।

    ऐसे मामले में, हाईकोर्ट को सत्र न्यायालय द्वारा दिए गए कारणों का भी लाभ होगा। इस प्रकार, मेरे विचार से सत्र न्यायालय और हाईकोर्ट दोनों में एक साथ जमानत के लिए आवेदन दाखिल करने की अनुमति नहीं है।"

    पीठ ने अपने आदेश में श्रीमती मनीषा नीमा बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 2003(2) MPLJ 587 के मामले में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले पर भी भरोसा किया।

    पीठ ने अपने आदेश में यह भी कहा कि उपरोक्त टिप्पणियों के बावजूद याचिकाकर्ताओं पर धारा 438 सीआरपीसी के तहत राहत के लिए सीधे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, लेकिन आवेदक को हाईकोर्ट को संतुष्ट करना होगा कि असाधारण, दुर्लभ और असामान्य परिस्थितियां मौजूद हैं, जो आवेदक द्वारा सीधे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने के कारण हैं।

    बेंच ने कहा,

    जमानत आवेदन को खारिज करते हुए और उक्त प्रैक्टिस पर अस्वीकृति व्यक्त करते हुए अदालत ने दर्ज किया कि भले ही याचिकाकर्ता ने सत्र न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, फिर भी उसने उक्त उपाय को समाप्त किए बिना आवेदन को बीच में ही छोड़ दिया और आवेदन वापस ले लिया। केवल यह कि सत्र न्यायाधीश ने सुनवाई की पहली तारीख पर याचिकाकर्ता के पक्ष में अंतरिम संरक्षण आदेश पारित किए बिना पुलिस से रिपोर्ट मांगी थी, याचिकाकर्ता को सत्र न्यायालय को छोड़कर हाईकोर्ट जाने का अधिकार नहीं देता है।

    केस टाइटल : रउफ अहमद मीर बनाम एसएसपी और अन्‍य।

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