भ्रष्टाचार मामले में निलंबन के खिलाफ जयपुर की पूर्व महापौर की याचिका खारिज
Shahadat
16 July 2025 10:54 AM IST

राजस्थान हाईकोर्ट ने जयपुर नगर निगम, हेरिटेज की महापौर द्वारा राज्य के आदेश के खिलाफ दायर याचिका खारिज की, जिसके तहत उन्हें अपने पति के साथ भ्रष्टाचार मामले में कथित संलिप्तता के कारण निलंबित कर दिया गया था।
जस्टिस अनूप कुमार ढांड की पीठ ने कहा कि निलंबन आदेश को गुण-दोष के आधार पर चुनौती देने के बजाय याचिकाकर्ता ने तकनीकी आधार पर इसे चुनौती दी, जैसे कि राजस्थान नगर पालिका अधिनियम, 2009 की धारा 39(1) के तहत जारी नोटिस पर डिजिटल हस्ताक्षर न होना और जांच अधिकारी के नियुक्ति आदेश की प्रति उन्हें उपलब्ध न कराना।
अधिनियम की धारा 39 में सदस्य को हटाने की प्रक्रिया निर्धारित की गई।
न्यायालय ने कहा कि मैन्युअल हस्ताक्षरों से कोई भी नोटिस जारी करने से अपने आप में पूरी जांच प्रक्रिया दूषित नहीं हो जाती। सरकार ऑनलाइन डिजिटल प्रणाली को व्यवहार्य बनाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही थी। हालांकि, आज तक सरकार के कुछ विभागों में भौतिक और ई-फाइल सिस्टम दोनों एक साथ मौजूद हैं, जहां मामले जांच/मुकदमेबाजी/गोपनीय मामलों से संबंधित हैं।
इसके अलावा, न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि किसी भी कानून या अधिनियम के तहत ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो यह अनिवार्य करता हो कि जांच अधिकारी की नियुक्ति के आदेश की कॉपी उस व्यक्ति को दी जाए जिसके विरुद्ध जांच प्रस्तावित है।
याचिकाकर्ता के पति द्वारा रिश्वत की मांग की शिकायत के संबंध में उसके आवास पर भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा छापेमारी के बाद FIR दर्ज की गई और याचिकाकर्ता को निलंबित कर दिया गया। इस आदेश को चुनौती दी गई और न्यायालय ने निलंबन रद्द कर दिया। साथ ही राज्य को एक महीने के भीतर नए सिरे से जांच करने का आदेश दिया।
ऐसी नई जांच के लिए जांच अधिकारी की नियुक्ति 9 महीने बाद की गई। घटना में याचिकाकर्ता की संलिप्तता पाई गई। इसके बाद भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को याचिकाकर्ता पर मुकदमा चलाने की अनुमति मिल गई। उनके और उनके पति सहित अन्य सह-अभियुक्तों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया। वर्तमान में मुकदमा चल रहा है।
इसके बाद याचिकाकर्ता को अधिनियम की धारा 39(1) के तहत विस्तृत नोटिस दिया गया। इसका कोई ठोस जवाब दिए बिना याचिकाकर्ता ने तकनीकी आपत्तियां उठाते हुए आवेदन प्रस्तुत किए। इसके बाद याचिकाकर्ता को निलंबित कर दिया गया।
तर्कों पर सुनवाई के बाद न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि निलंबन आदेश को उसके गुण-दोष के आधार पर चुनौती देने के बजाय याचिकाकर्ता ने तकनीकी आपत्तियां उठाईं: 1) अधिनियम की धारा 39 के तहत जारी नोटिस पर डिजिटल हस्ताक्षर नहीं थे; 2) जांच अधिकारी की नियुक्ति आदेश की प्रति उसे उपलब्ध नहीं कराई गई।
इन तर्कों को खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों से संबंधित आदेशों पर डिजिटल हस्ताक्षर होना अनिवार्य नहीं है।
न्यायालय ने कहा,
“यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को उत्तर प्रस्तुत करने हेतु जारी किए जाने वाले किसी भी नोटिस पर उस मामले में क्षेत्राधिकार रखने वाले सक्षम प्राधिकारी द्वारा विधिवत हस्ताक्षर किए जाने चाहिए। वर्तमान मामले में दिनांक 11.09.2024 के नोटिस पर जांच अधिकारी, अर्थात् डीडीआर के भौतिक हस्ताक्षर हैं। इसलिए केवल इस आधार पर नोटिस को अमान्य नहीं माना जा सकता कि यह डिजिटल रूप से जारी या हस्ताक्षरित नहीं था।”
इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी भी कानूनी प्रावधान के तहत जांच अधिकारी का नियुक्ति आदेश उस व्यक्ति को प्रदान करने का कोई आदेश नहीं है, जिसके विरुद्ध जांच प्रस्तावित है।
न्यायालय ने याचिकाकर्ता के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि वह नई जांच लंबित रहने तक 9 महीने से अधिक समय से महापौर के पद पर कार्यरत थीं, जैसा कि न्यायालय ने पूर्व निलंबन को रद्द करते हुए निर्देश दिया था।
न्यायालय ने कहा,
“किसी व्यक्ति को किसी निश्चित अवधि के लिए किसी पद पर निरंतर बनाए रखना, केवल इस आधार पर उक्त पद पर बने रहने का आधार नहीं हो सकता कि जांच कार्यवाही इस न्यायालय द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर शुरू नहीं की गई थी।”
साथ ही यह तथ्य कि राज्य ने नई जांच शुरू करने में 9 महीने लगा दिए, जबकि आदेश के एक महीने के भीतर जांच पूरी करने का आदेश दिया गया था, न्यायालय ने इस पर नाराजगी जताई और इसे प्रथम दृष्टया न्यायालय के आदेश की अवज्ञा और अवज्ञा बताया।
न्यायालय ने कहा कि जनप्रतिनिधि होने के नाते याचिकाकर्ता से गरिमा और शालीनता से कार्य करने और आचरण करने की अपेक्षा की जाती थी, लेकिन इसके बजाय उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया, जिसे व्यापक रूप से समाज के लिए "कैंसर" माना जाता है।
न्यायालय ने यह कहते हुए आदेश दिया और याचिका खारिज की,
"प्रतिवादियों से अपेक्षा की जाती है कि वे याचिकाकर्ता के विरुद्ध जांच की कार्यवाही शीघ्रता से, यथाशीघ्र तीन महीने की अवधि से अधिक समय में पूरी न करें।"
Title: Munesh Gurjar v the State of Rajasthan

