'लव जिहाद' अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक्ट को चुनौती देने की स्वतंत्रता दी

LiveLaw News Network

23 Jun 2021 6:15 AM GMT

  • लव जिहाद अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक्ट को चुनौती देने की स्वतंत्रता दी

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को याचिकाकर्ताओं से उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को निष्प्रभावी बताते हुए वापस लेने को कहा, क्योंकि अध्यादेश को एक अधिनियम से बदल दिया गया है।

    मुख्य न्यायाधीश संजय यादव और न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा की खंडपीठ ने आवेदनों में संशोधन की अनुमति देने से इनकार कर दिया और याचिकाकर्ताओं से कहा कि वह नए सिरे से याचिका फाइल करें।

    मुख्य न्यायाधीश यादव ने शुरुआत में कहा कि,''आप पूरी याचिका में कैसे संशोधन कर सकते हैं? हम आपको केवल प्रार्थना खंड में संशोधन करने की अनुमति दे सकते हैं। अन्यथा वापस ले लें या हम इसे खारिज कर रहे हैं।''

    एक याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता देवेश सक्सेना ने तर्क दिया कि उनकी दलीलों में सामग्री को लेकर कोई परिवर्तन नहीं हुआ है और केवल 'अध्यादेश' शब्द को 'अधिनियम' शब्द से बदल दिया गया है।

    सक्सेना ने कहा, ''अगर हम नए सिरे से फाइल करते हैं तो बहुत समय बर्बाद होगा क्योंकि तर्क पहले ही दिए जा चुके हैं।''

    हालांकि, बेंच ने याचिकाओं को खारिज करने के लिए अपना झुकाव प्रदर्शित किया। सीजे यादव ने सक्सेना से कहा, ''आपका हलफनामा कहता है कि आपने एक 'विस्तृत और संपूर्ण' याचिका दायर की है। हम इसकी अनुमति नहीं देने जा रहे हैं। वापस ले लें या हम खारिज कर देंगे।''

    सक्सेना ने नए अधिनियम को चुनौती देने के लिए स्वतंत्रता के साथ याचिका वापस लेने से पहले जोर देकर कहा, ''यह विस्तृत है क्योंकि 'अध्यादेश' शब्द कई बार दिखाई दे रहा है। लेकिन सामग्री/तथ्यों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।''

    अध्यादेश को चुनौती देने वाली अन्य सभी याचिकाओं को भी इस अधिनियम को चुनौती देने वाली नई याचिका दायर करने की स्वतंत्रता के साथ वापस लेने के रूप में खारिज कर दिया गया है। जिन याचिकाओं को अधिनियम की अधिसूचना के बाद दायर किया गया था, उन्हें जवाबी हलफनामा और प्रत्युत्तर दाखिल करने का समय दिया गया है।

    पीठ ने (1) अधिवक्ता सौरभ कुमार ,जिनका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता देवेश सक्सेना, शाश्वत आनंद और विशेष राजवंशी ने किया, (2) अजीत सिंह यादव, जिनका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता रमेश कुमार ने किया, (3) आनंद मालवीय,जिनके एडवोकेट तलहा अब्दुल रहमान हैं, (4) एडवोकेट वृंदा ग्रोवर के माध्यम से एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव्स द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई की।

    पीठ ने नीरज कुमार द्वारा एडवोकेट जगत मोहन बिंद के जरिए और एडवोकेट शशांक त्रिपाठी (व्यक्तिगत रूप से) द्वारा दायर याचिकाओं पर भी सुनवाई की।

    18 दिसंबर, 2020 को याचिकाओं पर कोर्ट ने नोटिस जारी किया था।

    याचिकाओं में संविधान के आर्टिकल 14 और 21 के उल्लंघन के रूप में अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है क्योंकि यह कथित रूप से राज्य को किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दबाने और किसी व्यक्ति की पसंद की स्वतंत्रता और धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार को प्रभावित करने का अधिकार देती है।

    इस साल फरवरी में पारित अधिनियम, विशेष रूप से विवाह द्वारा धर्मांतरण को अपराध घोषित करता है।

    अधिनियम की धारा 3 एक व्यक्ति को विवाह द्वारा दूसरे व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करने से रोकती है। दूसरे शब्दों में, विवाह द्वारा धर्म परिवर्तन को गैर-कानूनी बना दिया गया है। इस प्रावधान का उल्लंघन करने पर कम से कम एक साल की सजा हो सकती है, जिसे 5 साल तक बढ़ाया जा सकता है और कम से कम पंद्रह हजार रुपये का जुर्माना हो सकता है। यदि धर्म परिवर्तन करने वाली व्यक्ति एक महिला है, तो सजा सामान्य अवधि से दोगुनी है और जुर्माना होगा।

    याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि यह कानून सलामत अंसारी मामले में हाईकोर्ट न्यायालय की एक डिवीजन बेंच की आधिकारिक घोषणा के विरोधात्मक है।

    यूपी सरकार ने हालांकि दावा किया है कि अध्यादेश सभी प्रकार के जबरन धर्मांतरण पर समान रूप से लागू होता है और यह केवल अंतर्धार्मिक विवाहों तक ही सीमित नहीं है।

    इसने यह भी कहा कि सलामत अंसारी मामले में हाल ही में हाईकोर्ट डिवीजन बेंच के फैसले पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि इसने इंटर-मौलिक अधिकार और इंट्रा-मौलिक अधिकारों से संबंधित प्रश्न पर विचार नहीं किया है। वही इस निर्णय में डिवीजन बेंच का ध्यान इस बात पर भी नहीं गया कि सामाजिक हित के लिए किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा क्या होगा?

    रिट याचिकाकर्ताओं ने यह भी प्रस्तुत किया था कि संविधान के आर्टिकल 213 के तहत अध्यादेश बनाने की शक्ति का प्रयोग करने के लिए कोई आकस्मिक आधार नहीं था और राज्य कानून को सही ठहराने के लिए किसी भी अप्रत्याशित या तत्काल स्थिति को दिखाने में विफल रहा है।

    इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने कानून के खिलाफ दायर याचिकाओं पर विचार करने से इनकार कर दिया था और पक्षकारों को हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए कहा था।

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