घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत कार्यवाही को रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर याचिका सुनवाई योग्य नहींः केरल हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

22 Sep 2020 3:45 AM GMT

  • घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत कार्यवाही को रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर याचिका सुनवाई योग्य नहींः केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि एक मजिस्ट्रेट को प्रोटेक्शन ऑफ वूमन फ्रम डोमेस्टिक वाॅयलेंस एक्ट की धारा 12 के तहत दायर आवेदन की अनुरक्षणीयता पर विचार करना होगा, यदि दूसरे पक्ष द्वारा इस तरह का विवाद कोर्ट के समक्ष उठाया जाता है तो।

    हाईकोर्ट ने दोहराया है कि एक पक्ष जिसके खिलाफ अधिनियम की धारा 12 के तहत कार्यवाही शुरू की जाती है, वह इस कार्यवाही को रद्द करने की मांग करते हुए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटा सकता।

    शिकायतकर्ता महिला की सास और ननद ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत उनके खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही को रद्द करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। यह आरोप लगाया गया था कि उनके खिलाफ शिकायत में लगाए गए आरोप अस्पष्ट और बेबुनियाद हैं। इसलिए इन परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट द्वारा याचिकाकर्ताओं को नोटिस जारी नहीं किया जाना चाहिए था।

    उनकी याचिका पर विचार करते हुए, न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार ने कहा कि विजयलक्ष्मी अम्मा बनाम बिंदू, 2010 (1) केएलटी 79 मामले में, यह माना गया था कि एक पक्षकार, जिसके खिलाफ अधिनियम की धारा 12 के तहत कार्रवाई शुरू की जाती है, वह इसको रद्द करने की मांग करते हुए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत निहित शक्ति का आह्वान करते हाईकोर्ट रुख नहीं कर सकता है। साथ ही कहा था कि उक्त शक्ति का उपयोग केवल उचित मामलों में किया जा सकता है, यानी अधिनियम के तहत पारित किसी आदेश को प्रभावी बनाने के लिए या कोर्ट की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए या उस स्थिति में न्याय को सुरक्षित करने के लिए, जब अपराध के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा अधिनियम की धारा 31 की उपधारा (1) व धारा 33 के तहत संज्ञान ले लिया हो।

    उक्त निर्णय का उल्लेख करते हुए, न्यायालय ने कहा कि-

    ''इस अदालत ने उक्त मामले में यह भी कहा है कि एक व्यक्ति जिसे मजिस्ट्रेट द्वारा अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर एक आवेदन के मामले में नोटिस जारी किया जाता है, वह मजिस्ट्रेट के सामने पेश हो सकता है और यह दावा कर सकता है कि उसके खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही बनाए रखने योग्य नहीं है। इसके लिए कई आधार दिए जा सकते हैं यानी जिस व्यक्ति ने आवेदन दायर किया है, वह अधिनियम की धारा 2 (ए) के तहत 'पीड़ित व्यक्ति' नहीं है,या वह अधिनियम की धारा 2 (क्यू) के तहत परिभाषित 'प्रतिवादी' की श्रेणी में नहीं आता है,या अधिनियम की धारा 2 (जी) के तहत मामले में लगाए गए आरोपों के आधार पर 'घरेलू हिंसा' का मामला नहीं बनता है या जो राहत मांगी गई है वह अधिनियम के तहत दी जाने वाली राहत नहीं है।

    इस न्यायालय द्वारा उक्त मामले में यह भी कहा गया था कि अगर आवेदन की अनुरक्षणीयता के बारे में आपत्ति की जाती है तो उस संबंध में मजिस्ट्रेट द्वारा निर्णय लिया जाएगा। यह भी कहा गया था कि जब तक प्रतिवादी अधिनियम के तहत शुरू की गई कार्यवाही में अभियुक्त नहीं है, तब तक वह ऐसी कार्यवाही के संबंध में जमानत के लिए आवेदन करने के लिए बाध्य नहीं है और धारा 12 के तहत दायर आवेदन पर सुनवाई और निस्तारण के समय उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति अनिवार्य नहीं है। इसलिए विजयलक्ष्मी मामले में न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के आलोक में, मेरे अनुसार, इस मामले में दायर याचिका बनाए रखने योग्य नहीं है या सुनवाई योग्य नहीं है।''

    आम बात हो गई है अब रिश्तेदारों को केस में घसीटना

    अदालत ने आगे यह भी कहा कि आजकल यह आम बात हो गई है कि रिश्तेदारों को भी इस तरह के केस में ससुरालवालों के साथ घसीट लिया जाता है और कई बार तो दूर के रिश्तेदारों को भी ऐसे केस में फंसा दिया जाता है। अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा से पीड़ित व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए सभी प्रयास करते समय कोर्ट को बेहद सतर्क और सावधान रहना होगा ,ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनकी शक्तियों का दुरूपयोग न हो पाए।

    इस संदर्भ में, न्यायाधीश ने आगे कहा किः

    ''उपरोक्त निष्कर्षों के बावजूद, यह उल्लेख करना आवश्यक है कि अब तक इस अधिनियम के तहत कार्यवाही को आपराधिक न्यायालयों द्वारा संहिता के तहत निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार निपटाया जाता है। परंतु अब एक आम बात हो गई है कि ऐसे मामलों में रिश्तेदारों को भी घसीट लिया जाता है और कभी-कभी उस व्यक्ति के दूर के रिश्तेदारों को भी प्रतिवादी बना दिया जाता है। एक्ट के तहत ऐसे रिश्तेदारों के खिलाफ सर्वव्यापी और अस्पष्ट आरोप लगा दिए जाते हैं,जबकि सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों में इस तरह की प्रथा की आलोचना या विरोध किया गया है।

    प्रीति गुप्ता बनाम झारखंड राज्य (2010) 7 एससीसी 667 मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त तथ्य पर ध्यान दिया था और कहा था कि इस तरह की अधिकांश शिकायतें या तो वकीलों की सलाह पर या उनकी सहमति से दायर की जाती हैं,दोनों में से कोई भी स्थिति हो सकती है। यह भी देखा गया है कि ऐसे आवेदनों में बिना विचार किए ही(यह देखे बिना ही क्या सभी के खिलाफ केस बनता है या नहीं?) सभी प्रतिवादियों को नोटिस जारी कर दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप इस अधिनियम के तहत दायर कुछ कार्यवाही में ऐसे लोग (Crl.MC.No.7977 OF 2018(F)& OP(Crl.).No.234 OF 2019 में प्रतिवादी बनाए गए व्यक्ति,जिनके खिलाफ घरेलू हिंसा का मामला नहीं बनता है) पीड़ित व्यक्ति के हाथों उत्पीड़न का शिकार हो जाते हैं,जबकि वह पीड़ित को किसी तरह की राहत देने के हकदार नहीं होते हैं। यह कानून महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए एक उपचारात्मक उपाय है, इसलिए इसे जीवन की वास्तविकताओं के संबंध में लागू किया जाना चाहिए। ऐसे में घरेलू हिंसा से पीड़ित व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए सभी संभव प्रयास करते समय अदालतों को यह सुनिश्चित करने के लिए बेहद सतर्क और सावधान रहना होगा कि उनकी शक्तियों का दुरुपयोग न हो पाए।

    इस दिशा में उठाए जाने वाले महत्वपूर्ण कदमों में से एक यह है कि आवेदनों की सूक्ष्मता से छानबीन की जाए और इस बात के लिए स्वंय को संतुष्ट किया जाए कि अधिनियम में परिभाषित घरेलू हिंसा का मामला सभी प्रतिवादियों के खिलाफ बनाया गया है। साथ ही यह भी देखा जाए कि किसी भी व्यक्ति को सर्वव्यापी और अस्पष्ट आरोपों के आधार पर इस कार्यवाही में पक्षकार न बनाया गया हो ताकि कोर्ट उन्हें नोटिस जारी करने से बच सके।

    कानून में दिए गए प्रावधानों में विशेष रूप से धारा 28 के तहत मजिस्ट्रेट को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह धारा 12 के तहत या 23 की उप-धारा (2) के तहत दायर एक आवेदन के निपटान के लिए अपनी प्रक्रिया तय कर सकता है। जो इस बात को दर्शाता है कि कानून की योजना यह है कि न्यायालयों का दृष्टिकोण अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने वाला होना चाहिए।

    इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जो पक्षकार, ज्यादातर मामलों में करीबी रिश्तेदार होते हैं, वे किसी समय अपने मतभेदों को सुलझाएंगे और सद्भाव में जीवन व्यतीत करेंगे। इसलिए कार्यवाही में उठाए गए कदमों के कारण पक्षकारों के बीच अपने मतभेदों को दूर करने का अवसर खोना नहीं चाहिए। यदि अधिनियम के तहत कार्यवाही को उत्पीड़न के टूल के रूप में उपयोग करने की अनुमति दे दी जाएगी, तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि पक्षकारों के विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने और सद्भाव में जीवन जीने की संभावना धूमिल हो जाएगी।''

    इस प्रकार, अदालत ने इस मामले में दायर याचिका का निपटारा कर दिया है और याचिकाकर्ताओं को स्वतंत्रता दी है कि वह राहत पाने के लिए विजयलक्ष्मी मामले में दिए गए गए फैसले के संदर्भ में मजिस्ट्रेट के समक्ष अपना आवेदन दायर कर सकती हैं।

    मामले का विवरण-

    केस का शीर्षक- लथा.पी.सी बनाम केरल राज्य

    केस नंबर-सीआरएल.एमसी नंबर 7977/2018 (एफ)

    कोरम- न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार

    प्रतिनिधित्व-अधिवक्ता एस राजीव और सुरेश कुमार कोडोथ

    आदेश की काॅपी डाउनलोड करें।



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