"दोनों पक्ष (पति-पत्नी) अपने विवादों को खत्म करना चाहते हैं"; दोनों ने तलाक स्वीकारा: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पति के खिलाफ चल रही आपराधिक कार्यवाही को खत्म किया

LiveLaw News Network

18 Jan 2021 6:53 AM GMT

  • दोनों पक्ष (पति-पत्नी) अपने विवादों को खत्म करना चाहते हैं; दोनों ने तलाक स्वीकारा: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पति के खिलाफ चल रही आपराधिक कार्यवाही को खत्म किया

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंगलवार (12 जनवरी) को तलाक के मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि दोनों पक्ष (पति-पत्नी) ने तलाक को स्वीकार कर लिया है, इसलिए अब इस तलाक को 'खुला तलाक' माना जाएगा।

    न्यायमूर्ति डॉ. कौशल जयेंद्र ठाकर और न्यायमूर्ति गौतम चौधरी की खंडपीठ भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत मोहम्मद गुफरान की तरफ से दायर की गई याचिका पर सुनवाई की।

    दरअसल, अभियुक्त मोहम्मद गुफरान के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498-A, धारा 494, धारा 323, धारा 504, धारा 506, दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और धारा 4 और मुस्लिम महिला (विवाह के अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 3 और धारा 4 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था.

    [नोट: मुस्लिम महिलाओं (विवाह के अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 3 के तहत मुस्लिम पति द्वारा अपनी पत्नी को "ट्रिपल तलाक" का उच्चारण करके तलाक देने की प्रथा को शून्य और अवैध बना दिया गया है।

    इसके साथ ही, मुस्लिम महिलाओं (विवाह के अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 4 के तहत मुस्लिम पति, अगर अपनी पत्नी से तलाक पाने के लिए ट्रिपल तलाक का उच्चारण करता है जैसा कि इसी अधिनियम की धारा 3 में उल्लिखित है। ऐसे मामले में दोषी पाए गए व्यक्ति को 1-3 साल तक की जेल की सजा का प्रावधान है।]

    याचिकाकर्ता मोहम्मद गुफरान और उनकी पत्नी हुमना (गुफरान की पत्नी) ने एक साथ कोर्ट के समक्ष कहा कि,

    "वे अपने मतभेदों को खत्म करना चाहते हैं और दोनों ने तलाक को स्वीकार कर लिया है।"

    इस पर कोर्ट ने कहा कि,

    "जैसा कि दोनों पक्ष (पति-पत्नी) मुस्लिम धर्म से संबंधित हैं. दोनों ने तलाक को स्वीकार कर लिया है। इसलिए, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 और मुस्लिम महिलाओं (तलाक के अधिकार का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत अब इसे 'खुला तलाक' माना जाएगा।"

    लेकिन, कोर्ट ने यह बताने से इनकार कर दिया कि क्या यह किसी दबाव में आकर तो तलाक नहीं मांगा गया या क्या यह एक वास्तविक शिकायत थी और क्या दोनों पक्ष (पति-पत्नी) भविष्य में एक दूसरे के खिलाफ किसी भी मुकदमे में लिप्त नहीं होने का वचन दिए हैं।

    राज्य के वकील का मानना है कि यह एक निजी विवाद था और यह राज्य के सार्वजनिक मुद्दे या सार्वजनिक नीति को प्रभावित नहीं करता है। इसलिए राज्य की ओर से पेश वकील ने कहा कि "इसे भविष्य के लिए मिसाल नहीं माना जा सकता है।"

    इन टिप्पणियों के साथ, याचिका का निबटारन किया गया।

    इसी तरह के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने कहा था कि,

    "मुस्लिम महिला (विवाह के अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 2019 के तहत अपराध के लिए अग्रिम जमानत देने पर कोई रोक नहीं है। बशर्ते कि अग्रिम जमानत देने से पहले सक्षम अदालत को विवाहित मुस्लिम महिला जिसके द्वारा शिकायत की गई थी उसको सुनवाई का मौका देना चाहिए।"

    न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि,

    "विवाहित मुस्लिम महिला को नोटिस जारी करते हुए, अग्रिम जमानत की अर्जी की पेंडेंसी के दौरान आरोपी को अंतर-अंतरिम राहत देना कोर्ट के विवेक पर निर्भर करता है।"

    केस : मोहम्मद गुफरान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य तीन [Criminal misc. writ petition no. 16767 of 2020]

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