हमारी पहचान बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण या एक समरूप धर्म के दावे या सांस्कृतिक इतिहास से परिभाषित नहीं होती हैः जस्टिस जीएस पटेल
LiveLaw News Network
24 Aug 2020 3:19 PM IST
मुंबई की एशियाटिक सोसायटी ने संस्थान की पूर्व मानद सचिव स्वर्गीय श्रीमती बंसरी सेठ की स्मृति में 18 अगस्त 2020 को 27वें श्रीमती बंसरी सेठ मेमोरियल लेक्चर का आयोजन किया, जिसका विषय था- "संविधान के तहत एक राष्ट्र"। बॉम्बे हाईकोर्ट के सिटिंग जज जस्टिस गौतम पटेल ने व्याख्यान दिया, जबकि कार्यक्रम की अध्यक्षता बॉम्बे हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री नवरोज सीरवई ने की।
जस्टिस पटेल ने अपने भाषण में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को कवर किया, जैसे कि झूठी देशभक्ति, राष्ट्रवाद की विकृत धारणा, पहचान की विशिष्टता निर्मित करने के लिए अन्यता का उपायोग, लोकलुभावनवाद, धर्म बनाम धर्मनिरपेक्षता की बहस, असंतोष के मूल्यों पर जोर, कानून का शासन, और भारतीय लोकतंत्र के संबंध में संवैधानिकता।
नीचे व्याख्यान महत्वपूर्ण अंश दिए जा रहे हैं-
राष्ट्रवाद पर
जस्टिस पटेल ने कहा कि राष्ट्रवाद की अवधारणा को समय के साथ विकृत हो गई है। उन्होंने कहा,
"सरलतम अर्थों में राष्ट्रवाद राष्ट्र में शामिल विशाल समुदाय द्वारा दी गई पहचान है। कभी-कभी यह राष्ट्र राज्य के हितों के समर्थन के रूप में प्रकट होता है और सर्वाधिक विषाक्त रूप में, अन्य राष्ट्रों के हानिकर विभाजन या बहिष्कार के रूप में प्रकट होता है। सामाजिक स्तर पर, यह कभी-कभी अंध-राष्ट्रीयता के रंग में होता है, यह भावना कि अपना राष्ट्र हमेशा श्रेष्ठ होता है। राष्ट्रवाद का मूल आत्मनिर्णय और स्वशासन दोनों है। ऐतिहासिक रूप से, औपनिवेशिक शासन को समाप्त करने में राष्ट्रवाद की धारणाएं महत्वपूर्ण रही हैं। इस प्रकार, यह शब्द उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद दोनों के विरोध में उपयोग किया जाता है।
एक समकालीन दृष्टिकोण यह है कि जैसा कि राष्ट्रवाद को हम आज जैसा समझते हैं, कहीं अधिक जटिल है और ऐसी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचनाओं से संबंधित है, जिनकी अति-गुणवत्तायुक्त कानूनी शासन और संवैधानिक कानून के विशेष नियम द्वारा शासित आधुनिक समाज के अस्तित्व के लिए आवश्यकता है। दो प्रमुख अवधारणाएं आधुनिक राष्ट्रवाद को को परिभाषित करती हैं- एकता या एकीकरण और पहचान।
राष्ट्रवाद एक ओर नाजी जर्मनी के उदय के लिए जिम्मेदरी है और दूसरी ओर जायोनिस्ट आंदोलन के लिए के लिए जिम्मेदार था, जिसके कारण इजरायल का निर्माण हुआ।"
भारत में "राष्ट्रवाद" से जुड़ी धारणाओं में आए बदलावों की चर्चा करते हुए जस्टिस पटेल ने सिद्धार्थ लूथरा और निवेदिता मुखिजा को उद्धृत किया।
उन्होंने कहा,
"भारत में, राष्ट्रवाद स्वतंत्रता संग्राम का पर्याय था। उपनिवेशितों को, ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिए..एकजुट करने की आवश्यकता थी, राष्ट्रवाद मुक्तिदायी शक्ति थी- जिसमें समानता और औपनिवेशिक पराधीनता से मुक्ति का वादा था। राष्ट्रवाद का यह दृष्टिकोण न केवल राजनीतिक, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रगति और विकास के विचारों में निहित था। एक ओर, यह धर्म, संस्कृति, भाषा, कला के पुनरुत्थान के साथ था, और दूसरी ओर, आधुनिक भावनाओं और विचारों के विकास क साथ था।
जस्टिस पटेल ने राष्ट्रवाद की वर्तमान धारणाओं को समझाने के लिए सदानंद मेनन को उद्धृत किया, जिन्होंने वर्तमान धारणाओं को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में संदर्भित किया है।
"आज लोकतंत्र के और और संविधान में दिए गए अधिकारों के लिए एक नई घृणा दिख रही है। यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की शैली है..यह असहिष्णुता और भय का माहौल बनाकर पनपती है...सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद का दुष्ट संस्करण है, यह पहले से ही राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में मौजूद है...।
विकास असमानता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
जस्टिस पटेल ने कहा कि भारत में आय, अवसर, पर्यावरण अधिकार और कानूनी अधिकारों की विषमताएं कम नहीं हुई हैं। गरीब गरीब हैं और अमीर बहुत अमीर हैं।
पी साईंनाथ का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, निजी धन वृद्धि को विकास और प्रगति के साथ रखना गलत है। बेरोजगारी विशेष रूप से शहरी बेरोजगारी बाधा है।
युवाओं को उपयुक्त नौकरियां नहीं मिल पा रही है। उन्हें जो जो भी मिल रहा है, करना पड़ रहा है..राष्ट्रों और राष्ट्रवाद की अवधारणाएं अब अमूर्त हैं। उनके पास तात्कालिक आवश्यकता और निरंतरता का अभाव है।
पहचान का अंतर निर्मित करने के लिए "अन्यता" का उपयोग
जस्टिस पटेल ने कहा कि राष्ट्रवादी भावनाओं के निर्माण में अन्यता के उपयोग पर ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्होंने पोर्टलैंड स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन इवांस को उद्धृत करते हुए कहा,
"एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें समूहों और उनके व्यक्तियों को सामाजिक बहुमत द्वारा अलग, असंगत, अयोग्य या अन्यथा अवांछित या बहिष्किृत के रूप में परिभाषित किया जाता है...यह बहिष्करण ज्यादातर बाहरी पहचानों जैसे कि जातीयता, राष्ट्रीयता, लिंग, उच्चारण आदि पर आधारित है"।
ऐतिहासिक रूप से, एक विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद ने "अन्यता" का उपयोग राष्ट्र की पहचान करने के तरीके के रूप में किया, हालांकि ऐसा करने के लिए, इस प्रकार की पहचान के अंतर को बनाए रखने के लिए "अन्य" की उपस्थिति की आवश्यकता होती है।
व्याख्यान के अंत में उन्होंने कहा,
"हमारी पहचान बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण या एक समरूप धर्म के दावे या सांस्कृतिक इतिहास से परिभाषित नहीं होती है। यह ठीक उलट ढंग से परिभाषित की गई है कि हमारी ऐसी कोई विलक्षणता नहीं है। हमारी एकमात्र पहचान इस गणराज्य में भारतीय होने के रूप में है..."।
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