पीड़िता से शादी करने के बाद उड़ीसा हाईकोर्ट ने नाबालिग से दुष्कर्म करने के आरोपी को जमानत दी
LiveLaw News Network
28 July 2020 10:00 AM IST
उड़ीसा हाईकोर्ट ने शुक्रवार को एक नाबालिग से बलात्कार करने के आरोपी एक व्यक्ति को जमानत दे दी। हाईकोर्ट ने आरोपी की तरफ से दी गई उन दलीलों को स्वीकार कर लिया है, जिसमें बताया गया था कि अंतरिम जमानत की अवधि के दौरान उसने पीड़िता से शादी कर ली है क्योंकि वह अब बालिग हो चुकी है।
न्यायमूर्ति बी पी राउत्रे इस मामले में याचिकाकर्ता की तरफ से सीआरपीसी की धारा 439 के तहत दायर जमानत आवेदन पर सुनवाई कर रहे थे। याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 (2) (एन) /417/276 (2) और पाॅक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत किए गए अपराधों के मामले में केस दर्ज किया गया था,जो अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश-कम-स्पेशल कोर्ट के समक्ष लंबित है।
एकल न्यायाधीश ने कहा कि याचिकाकर्ता 13 फरवरी 2020 से हिरासत में है। हाईकोर्ट की एक अन्य समंवित पीठ ने दो जून 2020 को उसे अंतरिम जमानत दे दी थी। इसके बाद उसने आत्मसमर्पण कर दिया था और छह जुलाई 2020 से वह फिर से हिरासत में था।
सिंगल बेंच ने पाया कि अंतरिम जमानत की अवधि के दौरान उसने पीड़िता से शादी कर ली है और वह अब उसके घर में याचिकाकर्ता की पत्नी के रूप में रह रही है। कोर्ट ने कहा कि ''इस संबंध में याचिकाकर्ता की ओर से 8 जून 2020 को एक एफिडेविट दायर किया गया था।''
''इन दलीलों पर विचार करने के बाद'', न्यायमूर्ति राउत्रे ने निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को उपरोक्त मामले में सेशन कोर्ट द्वारा तय किए गए नियम व शर्तों के आधार पर जमानत पर रिहा कर दिया जाए।
पिछले हफ्ते, कैथोलिक चर्च के पूर्व-पुजारी व बलात्कार के दोषी रॉबिन वडक्कमचेरियिल ने केरल हाईकोर्ट के समक्ष याचिका दायर कर उसकी सजा को निलंबित करने की मांग की थी ताकि वह उस महिला से शादी कर सके,जिसका उसने बलात्कार किया था। घटना के समय यह महिला नाबालिग थी और गर्भवती हो गई थी।
इसके बाद राॅबिन की तरफ से दायर आपराधिक अपील में एक हस्तक्षेप अर्जी दायर की गई थी। जिसमें कहा गया था, ''पीड़िता से शादी करने की इच्छा के चलते इस स्तर पर आरोपी को राहत देने से ,यह मामला कई ऐसे पुरुषों के लिए दरवाजा खोल देगा जिन्होंने बलात्कार या यौन उत्पीड़न का अपराध किया हैं और वह कानून की कठोरता से बचने के लिए पीड़िता पर समझौता करने का दबाव बनाते हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी प्रथाओं को स्पष्ट रूप गलत बताया है और इन्हें किसी भी न्यायिक कार्यवाही या स्तर पर प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए।''
शुक्रवार को हाईकोर्ट ने पूर्व पुजारी की जमानत याचिका पर सुनवाई चार अगस्त के लिए स्थगित कर दी थी। अगली सुनवाई पर इस जमानत याचिका व हस्तक्षेप आवेदन पर एक साथ ही विचार किया जाएगा।
इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि बलात्कार के मामलों में समझौता करने के मुद्दे को सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर दृढ़ता से गलत बताया है।
वर्ष 2013 में, शिंभू के मामले में, तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि
''... पार्टियों के बीच समझौता को एक ऐसा प्रमुख कारक नहीं माना जा सकता है ,जिसके आधार पर कम सजा दी जा सकें। बलात्कार एक गैर-शमनीय अपराध है और यह समाज के खिलाफ किया गया एक अपराध है। इसलिए यह ऐसे अपराध नहीं है,जिनमें पक्षकार समझौता कर लें या इन मामलों को समझौता करने के लिए उन पर छोड़ दिया जाए। चूंकि ऐसे मामलों में अदालत को हमेशा इस बात का आश्वासन नहीं दिया जा सकता है कि समझौता करने के लिए पीड़िता द्वारा दी गई सहमति एक वास्तविक सहमति है।
इस बात की पूरी संभावना है कि उस पर दोषियों ने दबाव डाला हो या इतने वर्षो से जो आघात झेला है,उसने उसे समझौता करने के लिए मजबूर कर दिया हो। वास्तव में, इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से पीड़ित पर एक अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। आरोपी उस पर समझौता करने का दबाव बनाने के लिए अपने सारे हथकंडे इस्तेमाल कर सकता है। इसलिए, न्याय के हित में और पीड़िता को अनावश्यक दबाव /उत्पीड़न से बचाने के लिए, बलात्कार के मामलों में पक्षकारों के बीच हुए समझौते पर विचार करना सुरक्षित नहीं होगा। न ही इस तरह के समझौते को न्यायालय द्वारा आईपीसी की धारा 376 (2) के परंतुक के तहत विवेकाधीन शक्ति के उपयोग के समय एक आधार मानना उचित होगा।''
इसी प्रकार, 2015 में एमपी बनाम मदनलाल मामले में, शीर्ष अदालत ने स्पष्ट रूप से दोहराया था कि- '
'बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के मामले में, किसी भी परिस्थिति में समझौता करने की अवधारणा के बारे में सोचा नहीं जा सकता है। ये ऐसे अपराध हैं जो एक महिला के शरीर पर किए जाते हैं,जबकि शरीर उसका अपना मंदिर है। ये ऐसे अपराध हैं जो जीवन की सांस को रोकते हैं और प्रतिष्ठा को भंग करते हैं। वहीं इस बात पर जोर देने की आवश्यकता है कि प्रतिष्ठा एक ऐसा महंगा गहना है,जिसे कोई अपने जीवनभर पहन कर रखता है। किसी को भी इसे बुझाने या छीनने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। जब एक मानवीय ढ़ांचे को अपवित्र किया जाता है, तो यह ''शुद्धतम खजाना'' खो जाता है। एक महिला की गरिमा अविनाशी या अनश्वर है और किसी को भी इसे क्ले से रंगने के बारे में नहीं सोचना चाहिए। इसलिए कोई समझौता नहीं हो सकता है क्योंकि यह उसके सम्मान के खिलाफ होगा जो सबसे ज्यादा मायने रखता है।
कभी-कभी यह आश्वासन दिया जाता है कि अपराध करने वाले अपराधी ने पीड़िता के साथ विवाह करने पर सहमति दे दी है। इस तरह की सहमति कुछ नहीं है,बल्कि यह पीड़िता पर चतुर तरीके से दबाव ड़ालना है। हम जोर देकर कहते हैं कि कोर्ट को ऐसे मामलों में नरम रुख अपनाने के लिए इस तरह के छल से बिल्कुल दूर रहना चाहिए। हम ऐसा कहने के लिए मजबूर हैं क्योंकि इस तरह का रवैया एक महिला की गरिमा के प्रति संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है। इस संबंध में किसी भी तरह का उदार दृष्टिकोण या मध्यस्थता का विचार ,पूरी तरह से कानूनी की अनुमति के बिना है या उसे कानून की अनुमति प्राप्त नहीं है।''
फिर भी, बलात्कार पीड़िता के साथ आरोपी द्वारा शादी करने पर आपराधिक कार्यवाही को खत्म करने की प्रथा संवैधानिक अदालतों के बीच काफी प्रचलित है।