एक बार जब मजिस्ट्रेट अपराधों का संज्ञान ले लेता है तो वह अपने स्वयं के आदेश पर पुनर्विचार और धारा/ओं को छोड़/वापस नहीं ले सकता है: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Avanish Pathak

10 Jun 2022 9:51 AM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट


    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि एक बार जब मजिस्ट्रेट ने कुछ धाराओं/अपराधों के तहत अपराधों का संज्ञान लिया है तो उसे संज्ञान आदेश से धारा/ओं को हटाने के अपने आदेश की समीक्षा करने की कोई शक्ति नहीं है।

    जस्टिस राजबीर सिंह की खंडपीठ ने यह टिप्‍पणी की। उन्होंने मजिस्ट्रेट के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें आरोप पत्र (जिस पर मजिस्ट्रेट ने पहले संज्ञान लिया था) के एक अपराध संबंध में संज्ञान आदेश को वापस लेने के लिए आरोपी/याचिकाकर्ता द्वारा दायर एक आवेदन को खारिज कर दिया गया था।

    मामला

    याचिकाकर्ता/आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 147, 323, 324, 504 और 506 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी और जांच के दौरान धारा 308 आईपीसी भी जोड़ा गया। जांच के बाद पुलिस ने सीजेएम सहारनपुर की अदालत में धारा 147, 323, 324, 325, 308, 504, 506 आईपीसी के तहत आरोप पत्र प्रस्तुत किया और तदनुसार संज्ञान लिया गया।

    इसके बाद, आरोप‌ियों ने मजिस्ट्रेट के समक्ष एक आवेदन दायर कर आरोप लगाया कि आईपीसी की धारा 308 के तहत कोई मामला नहीं बनाया गया है, इसलिए धारा 308 आईपीसी के तहत लिया गया संज्ञान वापस लिया जाए। सीजेएम, सहारनपुर ने आवेदन को खारिज कर दिया। सत्र न्यायाधीश, सहारनपुर ने पुनरीक्षण में इस आदेश को बरकरार रखा।

    जिसके बाद उन्होंने अनुच्छेद 227 याचिका के साथ हाईकोर्ट का रुख किया था जिसमें उन्होंने तर्क दिया था कि घायल व्यक्ति को लगी कोई भी चोट उसके जीवन के लिए खतरनाक नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद, सीजेएम सहारनपुर ने आईपीसी की अन्य धाराओं के अलावा आईपीसी की धारा 308 के तहत संज्ञान लिया था।

    निष्कर्ष

    न्यायालय ने पाया कि ऐसे मामलों में न्यायिक पुनर्विचार का दायरा, जहां संविधान के अनुच्छेद 226/227 के तहत एक रिट याचिका में हाईकोर्ट के समक्ष निचले न्यायालयों के आदेशों को चुनौती दी गई है, बहुत सीमित है।

    न्यायालय ने अनुच्छेद 227 के दायरे में सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक फैसलों का उल्लेख किया और उसके बाद कहा,

    "...संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत शक्ति का प्रयोग कम से कम और केवल उपयुक्त मामलों में अधीनस्थ न्यायालयों को उनके अधिकार की सीमा के भीतर रखने के लिए किया जाना है। यह शक्ति अपीलीय प्राधिकारी की शक्ति की प्रकृति में नहीं है जो सबूतों की पुनर्सराहना को को सक्षम बनाती है। इसे केवल साक्ष्य की कमी के आधार पर सक्षम वैधानिक प्राधिकारी द्वारा प्राप्त निष्कर्ष को नहीं बदलना चाहिए।"

    अब, मामले के तथ्यों पर अपनी टिप्पणियों को लागू करते हुए, न्यायालय ने देखा कि एक बार जब मजिस्ट्रेट ने धारा 147/323/324/325/504/506/308 आईपीसी के तहत अपराधों के लिए संज्ञान लिया था, तो धारा 308 आईपीसी को संज्ञान से हटाने के लिए, उसे अपने आदेश पर पुनिर्व‌िचार करने की कोई शक्ति नहीं थी।

    केस टाइटल - जगवीर बनाम यूपी राज्य और एक और CRIMINAL MISC. WRIT PETITION No. - 718 of 2006]]

    केस साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 284

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