जब तक कंपनी को आरोपी नहीं बनाया जाता है तब तक पदाधिकारी को आपराधिक कार्यवाही में उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता: जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट

Avanish Pathak

31 May 2022 10:14 AM GMT

  • Consider The Establishment Of The State Commission For Protection Of Child Rights In The UT Of J&K

    जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि जब तक कंपनी को आरोपी नहीं बनाया जाता तब तक कंपनी के किसी पदाधिकारी पर प्रतिवर्ती दायित्व नहीं जोड़ा जा सकता है।

    जस्टिस संजय धर ने कहा,

    "याचिकाकर्ताओं की प्रत्येक कार्रवाई कंपनी के पदाधिकारी के रूप में उनकी क्षमता के दायरे में थी और उन्होंने जो कुछ भी किया, वही कंपनी की ओर से किया गया था। यहां तक ​​कि प्रतिवादी/शिकायतकर्ता से कंपनी के खाते में पैसा प्राप्त हुआ था। इस प्रकार, कंपनी को आरोपी बनाए बिना, याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती थी। इसलिए, विद्वान मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ताओं के खिलाफ प्रक्रिया जारी करने में गलती की है।"

    प्रतिवादी ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अनंतनाग के समक्ष एक शिकायत दायर की थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ताओं याचिकाकर्ताओं ने एज़ेन कम्युनिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड नामक एक कंपनी बनाकर आपराधिक साजिश में प्रवेश किया था। यह आरोप लगाया गया था कि प्रतिवादी को याचिकाकर्ता संख्या 2 ने अन्य याचिकाकर्ताओं से मिलवाया था, जो कंपनी के व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए कश्मीर घाटी के दौरे पर थे।

    याचिकाकर्ताओं ने अनंतनाग में प्रतिवादी के साथ एक बैठक की और उसे कंपनी में पैसा निवेश करने के लिए आमंत्रित किया। बदले में उसे बोनस के साथ तीन साल की अवधि के भीतर दोगुनी राशि का भुगतान करने का आश्वासन दिया गया।

    मौजूदा याचिका प्रतिवादी की ओर से दायर शिकायत के खिलाफ दायर की गई है। प्रतिवादी ने शिकायत में धारा 420, 120-बी आईपीसी के तहत अपराध का आरोप लगाया है। उक्त शिकायत पर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा शुरू की गई कार्यवाही को चुनौती दी गई है।

    प्रतिवादियों ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्ताओं ने कंपनी के नाम पर झूठे अभ्यावेदन करते हुए राष्ट्रीय और साथ ही स्थानीय मीडिया में नोटिस प्रकाशित किए। याचिकाकर्ताओं का इरादा आम तौर पर जनता और विशेष रूप से प्रतिवादी को धोखा देना था।

    यह भी आरोप लगाया गया है कि एक विज्ञापन में यह प्रावधान था कि यदि कोई 4,000 रुपये की 51 किश्तों का भुगतान एक बार में करता है तो कंपनी तीन साल के भीतर दोगुनी राशि वापस कर देग। साथ ही 200 कार्य‌ दिवसों तक प्रतिदिन 1,836 रुपये का भुगतान करेगी। कपंनी अपने खर्च पर निवेशकर्ता को सात दिनों के विदेश टूर पर भी भेजेगी।

    यह बताया गया कि प्रतिवादी/शिकायतकर्ता ने इन विज्ञापनों ओर प्रतिनिधित्वों पर पर विश्वास किया और उसके साथ 3 करोड़ रुपये की ठगी की गई। आगे यह भी कहा गया कि प्रतिवादी/शिकायतकर्ता द्वारा भुगतान किया गया पैसा कंपनी के बैंक खाते में जमा किया गया था, जिसका विवरण शिकायत में दिया गया है।

    यह आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ताओं ने बहुत बड़ी रकम इकट्ठा करने के बाद बातचीत करना बंद कर दिया और घाटी से भाग गए। यह भी आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ताओं ने प्रतिवादी/शिकायतकर्ता को झूठे और भ्रामक प्रतिनिधित्व देकर कंपनी के नाम पर पैसे देने के लिए प्रेरित किया। अंत में, यह प्रस्तुत किया गया कि कंपनी द्वारा याचिकाकर्ताओं की मिलीभगत से अपराध किए गए हैं।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि सबसे पहले, याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आक्षेपित शिकायत कंपनी को आरोपी के बनाए बिना आगे नहीं बढ़ सकती है। दूसरे, याचिकाकर्ता/आरोपी ट्रायल मजिस्ट्रेट के स्थानीय अधिकार क्षेत्र की सीमा से परे थे, इसलिए, सीआरपीसी की धारा 202 के संदर्भ में जांच किए बिना उनके खिलाफ प्रक्रिया जारी करने का विकल्प विद्वान मजिस्ट्रेट के पास नहीं था।

    कोर्ट ने कहा कि इस प्रस्तवना पर कोई विवाद नहीं हो सकता है कि किसी कॉर्पोरेट निकाय के प्रबंध निदेशक, निदेशक या किसी अन्य पदाधिकारी का प्रतिवर्ती दायित्व तभी पैदा होगा जब क़ानून में उस संबंध में कोई प्रावधान मौजूद हो। इसके अलावा यह देखा गया कि यह स्थापित कानून है कि जहां कुछ कानूनों के तहत प्रतिवर्ती दायित्व तय किया गया है, कंपनी को एक पक्ष के रूप में शामिल किए बिना, इसके निदेशकों/ पदाधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती है।

    कोर्ट ने शरद कुमार सांघी बनाम संगीता राणे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा भरोसा किए गए अनुपात पर भी भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि जब कंपनी को एक आरोपी के रूप में नहीं रखा गया है तो उसके प्रबंध निदेशक के खिलाफ कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती है।

    उपरोक्त चर्चा के आधार पर, अदालत ने कहा कि दंड संहिता में किसी कंपनी के पदाधिकारियों पर प्रतिवर्ती दायित्व संलग्न करने का कोई प्रावधान नहीं है, जब तक कंपनी के पदाधिकारियों के खिलाफ विशिष्ट आरोप नहीं हैं और कंपनी को एक आरोपी के रूप में शामिल नहीं किया गया है, इसके पदाधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती है।

    वर्तमान मामले पर अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ताओं की प्रत्येक कार्रवाई कंपनी के पदाधिकारियों के रूप में उनकी क्षमता में थी और उन्होंने जो कुछ भी किया, वही कंपनी की ओर से किया गया था।

    कोर्ट ने यह भी देखा कि मजिस्ट्रेट ने अपने अधिकार क्षेत्र को पार कर लिया है और मामले में जांच नहीं की है, जो कि सीआरपीसी की धारा 202 के संदर्भ में अनिवार्य है। न्यायालय के अनुसार, इस आधार पर भी विद्वान दंडाधिकारी द्वारा पारित आदेश, जिसमें याचिकाकर्ताओं के खिलाफ प्रक्रिया जारी की गई है, रद्द किए जाने योग्य है।

    कोर्ट ने यह भी नोट किया कि प्रतिवादी का तर्क कि उसे कंपनी को आरोपी के रूप में शामिल करने के लिए शिकायत में संशोधन करने की अनुमति दी जानी चाहिए, इस कारण से स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि यह केवल एक औपचारिक संशोधन है जिसे आपराधिक कार्यवाही में अनुमति दी जा सकती है।

    उपरोक्त कारणों से याचिका को स्वीकार किया गया।

    केस टाइटल: संदीप सिंह और अन्य बनाम निसार अहमद दारी

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