दो वयस्कों के शांतिपूर्ण जीवन में कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंटरफेथ युगल को संरक्षण प्रदान किया

LiveLaw News Network

8 Jan 2021 12:23 PM GMT

  • दो वयस्कों के शांतिपूर्ण जीवन में कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंटरफेथ युगल को संरक्षण प्रदान किया

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि अगर दो वयस्क स्वेच्छा से एक साथ रह रहे हैं, तो कोई भी उनके जीवन को बाधित करने का हकदार नहीं है। कोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर इंटरफेथ दंपति को उनके अपने परिवारों के हाथों उत्पीड़न का शिकार करने से बचा लिया। न्यायमूर्ति सराल श्रीवास्तव की एकल पीठ ने यह फैसला सुनाया।

    पीठ ने कहा कि,

    " जहां दो व्यक्ति बहुमत की आयु प्राप्त कर चुके हैं और एक साथ रह रहे हैं तो कोई भी उनके शांतिपूर्ण जीवन में हस्तक्षेप करने का हकदार नहीं है।"

    इस मामले में, हिंदू महिला ने दावा किया कि उसने मुस्लिम धर्म का पालन करने का फैसला किया और उसने स्वेच्छा से अपना धर्म परिवर्तित किया है। धर्म परिवर्तन के बाद, दंपति ने सबूत प्रस्तुत किए कि उसने अपने मुस्लिम पति के साथ विवाह को स्वीकार कर लिया है।

    उन्होंने आगे कहा कि वे दोनों वयस्क हैं और स्वंय के मन से दोनों साथ रह रहे हैं। साक्ष्य के रूप में महिला की हाई स्कूल मार्क्स शीट और पति का आधार कार्ड प्रस्तुत किया। जिससे पता चलता है कि वे क्रमशः 1998 और 1997 में पैदा हुए हैं।

    इन सभी सबूतों को देखने के बाद न्यायमूर्ति श्रीवास्तव ने बिजनौर के पुलिस अधीक्षक को आदेश दिया कि यदि आवश्यक हो, तो इस इंटरफेथ जोड़े को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाए और मामले की सुनवाई 8 फरवरी को तय की जाए। इसके साथ न्यायालय ने पति को अपनी पत्नी के पक्ष में 3 लाख रूपए की एक राशि जमा करने का भी निर्देश दिया।

    कोर्ट ने लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश, 2006 CrLJ 3312 मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों को दोहराते हुए कहा कि,

    "यह एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश है। इस देश के कानून के मुताबिक एक बार कोई व्यक्ति यानी स्त्री या पुरूष बहुमत की उम्र छू लेता है तो उसके बाद वह अपनी पसंद से शादी कर सकता है। यदि लड़का या लड़की के माता-पिता इस तरह के अंतर-जातीय या अंतर-धार्मिक विवाह से सहमत नहीं है तो लड़के या लड़की के माता-पिता चाहें तो अपनी बेटी या बेटे से संबंध खत्म कर सकते हैं, लेकिन वे हिंसा की धमकी या डरा नहीं सकते और उनको परेशान भी नहीं कर सकते हैं।

    कोर्ट ने भगवान दास बनाम राज्य (दिल्ली के एनसीटी), (2011) 6 SCC 396 मामले को भी याद किया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ऑनर किलिंग के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां की थीं।

    शीर्ष कोर्ट ने कहा था कि,

    हमारी राय में ऑनर किलिंग दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में आती हैं इसके पीछ की वजह कुछ भी हो। इस तरह के अपराध के लिए अपराधी को मौत की सजा मिलनी चाहिए। वक्त आ गया है कि देश की कुप्रथाओं को खत्म किया जाए और हमारे देश पर लगे धब्बे को मिटाया जाए। इस तरह के अपमानजनक, असभ्य व्यवहार का पूर्ण रूप से निवारण होना जरूरी है। जो लोग ऑनर किलिंग का सोच रहे हैं उन्हें ये पता होना चाहिए कि ऐसा करने वाले को फांसी की सजा होती है।

    हाल ही में, उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने एक अंतरजातीय दंपति को सुरक्षा प्रदान किया था। इस मामले में कोर्ट ने कहा था कि मामले को देखते हुए ऐसा लगाता है कि महिला (शिखा) अपने पति (सलमान यानी करण) के साथ रहना चाहती हैं। इसलिए कोर्ट दोनों को साथ में रहने और घूमने की स्वतंत्रता की मंजूरी देता है। किसी तीसरे को उनके बीच में बाधा पहुंचाने का अधिकार नहीं है।

    केस: शाइस्ता परवीन यानी संगीता और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश और अन्य।

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