''कोई भी संस्थान से बड़ा नहीं है'': यतिन ओझा अवमानना मामले में पढें गुजरात हाईकोर्ट का फैसला
LiveLaw News Network
10 Oct 2020 10:11 AM IST

न्यायपालिका को अपने कर्तव्यों और कार्यों को प्रभावी ढंग से और उस भावना के तहत पूरा करना है जिसके साथ यह काम उनको सौंपे गए हैं। इसलिए अदालतों की गरिमा और अधिकार का हर कीमत पर सम्मान और संरक्षण करना है।
गुजरात हाईकोर्ट ने वकील यतिन ओझा को आपराधिक अवमानना के मामले में दोषी ठहराते हुए कहा कि, ''संस्थान को किसी भी हमले से बचाने के लिए न्यायिक शस्त्रागर में छोड़ा गया एकमात्र हथियार अदालत की अवमानना का है, जो जरूरत पड़ने पर किसी की भी गर्दन तक पहुंच सकता है,चाहे वह कितना भी बड़ा हो या संस्थान से कितनी भी दूर।''
जस्टिस सोनिया गोकानी और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने मंगलवार को यह फैसला अधिवक्ता यतिन ओझा द्वारा फेसबुक पर एक लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान हाई कोर्ट और इसकी रजिस्ट्री के खिलाफ की गई '' अपमानजनक टिप्पणी'' के मामले में सुनाया था।
पीठ ने ओझा को कोर्ट की कार्यवाही खत्म होने तक खड़े रहने की सजा सुनाई थी और उन पर दो हजार रुपये जुर्माना भी लगाया था।
यह फैसला एक अनुस्मारक है कि ''कोई भी संस्थान से इतना बड़ा नहीं हुआ है कि अधिवक्ताओं के कारण या शिकायत के नाम पर, अपनी अभिव्यक्ति और बयानों से संस्था की छवि को धूमिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकें।''
गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष ओझा ने सार्वजनिक तौर पर हाईकोर्ट के अंदर कुप्रशासन फैलने के आरोप लगाए थे। जिसके बाद हाईकोर्ट ने इस मामले में स्वत संज्ञान लिया था।
मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के पूर्ण मूल्यांकन पर, अदालत ने पाया है कि ओझा के ''व्यापक असभ्य आरोप'' अदालत पर एक भयावह हमला थे और वे निंदनीय थे। उन्होंने अदालत के अधिकार को कम किया है और न्याय के प्रशासन के साथ हस्तक्षेप करने वाला माना जा सकता है , या वास्तव में न्याय में हस्तक्षेप करने वाली प्रवृत्ति के थे।
लोगों का भरोसा
गौरतलब है कि ओझा ने कहा था कि '' हाईकोर्ट अमीर और प्रभावशाली लोगों के लिए काम कर रहा है।''
इसे अपवाद मानते हुए, न्यायालय ने उल्लेख किया कि ओझा की इस टिप्पणी ने,
''गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष की कुर्सी से बड़े पैमाने पर जनता के लिए एक स्पष्ट और जोर द्वार संदेश भेजा गया था कि आम आदमी, जो अन्यथा इस प्रणाली में अपना विश्वास रखता है, उसके विश्वास को गलत साबित कर दिया गया है क्योंकि यह व्यवस्था अनुकूल नहीं है और उन लोगों के मामलों पर विचार नहीं करती है,जिनके पास कम संसाधन है या जिनके पास अपने मामलों को आगे बढ़ाने के लिए साधन नहीं हैं।''
कोर्ट ने कहा कि जो आरोप लगाया गया था वह हाईकोर्ट के खिलाफ है कि यह अमीरों और प्रभावशाली लोगों के लिए काम कर रहा है।
ओझा ने अपने बचाव में दलील दी थी कि उनकी टिप्पणी रजिस्ट्री के खिलाफ थी न कि न्यायालय ने खिलाफ। बेंच ने स्पष्ट किया कि,
''हाईकोर्ट के समक्ष दायर किसी भी मामले को रजिस्ट्री में रोका नहीं जाता है, वह केवल न्यायपालिका का एक सुविधाजनक हाथ है। मामलों को न्यायालय के समक्ष दाखिल करने, जांच करने, विचार करने, संवीक्षित करने, आगे बढ़ाने और कोर्ट के समक्ष रखे जाने की अनुमति दी जा रही है। हालाँकि, पक्षकारों को उपयुक्त अवसरों का लाभ उठाने देने के लिए दलीलों और साक्ष्य और मामले को आगे बढ़ाने के लिए नोटिस जारी करना न्यायाधीशों का आवश्यक और प्रमुख कार्य है। इसके बावजूद उन पर हमला किया जा रहा है और आरोप लगाया जा रहा है कि केवल खंभात (कस्तूरी निर्माण) या बिल्डरों की ही न्याय तक पहुंच है, जो देश की कुल आबादी का 1 प्रतिशत से 5 प्रतिशत तक नहीं है।''
कोर्ट का एक अभिन्न हिस्सा है रजिस्ट्री
जैसा कि ओझा ने इस बात पर जोर देने की कोशिश की थी कि उनकी शिकायत रजिस्ट्री के कामकाज के खिलाफ थी, न कि न्यायाधीशों के। अदालत ने कहा कि ''रजिस्ट्री न्यायालय का एक अभिन्न अंग है और इस बात को बेबुनियाद और निष्पक्ष रूप से आयोजित किया जाता है कि रजिस्ट्री पर किए गए किसी भी हमले का मतलब कोर्ट पर हमला होगा।''
न्यायालय ने कहा कि रजिस्ट्री और रजिस्ट्री में काम करने वाले अधिकारियों को धारा 2 (सी) (i) में प्रयुक्त ''कोर्ट'' शब्द के अर्थ के भीतर ''अपरिहार्य रूप से'' न्यायालय के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।
पीठ ने अदालत की अवमानना अधिनियम के विधायी इरादे पर जोर देते हुए कहा कि,
''न्याय के प्रशासन में दो घटक होते हैं, न्यायिक विंग और प्रशासनिक विंग।
संसद ने कोर्ट शब्द का इस्तेमाल किया है और परिभाषा में प्रशासनिक विंग या न्यायिक विंग का उल्लेख नहीं है। इसमें न्यायाधीशों को संदर्भित नहीं किया गया है, न ही यह रजिस्ट्री को संदर्भित करता है, हालांकि, एमिकस क्यूरी का यह आग्रह कि कोर्ट में रजिस्ट्री को शामिल नहीं किया गया है,इस प्रावधान को तोड़-मरोड़ कर पढ़ने के समान होगा। विधानमंडल ने कानून बनाते समय ''न्यायाधीशों'' या ''न्यायपालिका'' शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है।''
यह भी कहा गया,
''प्रणाली को समग्र रूप से देखना होगा और इस तरह की प्रकृति की कोई व्याख्या नहीं हो सकती है, जो यह कहेगी कि रजिस्ट्री न्यायालय का हिस्सा नहीं है। इस तरह का कोई भी अर्थ बहुत अधिक शक्तियों को प्रदान करेगा और किसी को भी न्यायपालिका के एक अभिन्न अंग की आलोचना करने और अपने व्यक्तिगत स्कोर को प्राप्त करने के लिए हमला करने की अनुमति दे देगा।''
फिर भी, यह माना जाता है कि ओझा के बयानों की संपूर्णता से पता चलता है कि उनकी टिप्पणी न्यायालय के न्यायिक पक्ष के खिलाफ भी थी।
कोर्ट ने कहा कि,''यदि सभी बयानों को बिना उनका विश्लेषण किए और बिना किसी संदर्भ के भी पूरी तरह से देखा जाता है, तो यह किसी के लिए काफी स्पष्ट होगा कि भले ही वह एक विश्लेषक या विशेषज्ञ ना हो कि ये कथन सिर्फ रजिस्ट्री के लिए नहीं थे।
जब न्याय के तरीके पर हमला करने की बात आती है, तो यह हमेशा न्यायपालिका और न्यायाधीशों के लिए होता है, केवल और विशेष रूप से रजिस्ट्री के लिए नहीं। जब कोई खुद के लिए इस डिजाइन के साथ ढाल लेना चाहता है कि भविष्य में, न्यायाधीशों पर भयंकर हमला करने से अवमानना होगी,तो ऐसे में रजिस्ट्री पर सारा दोष मढ़ने का प्रयास किया जाता है। अन्यथा, यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि हर बयान, जिसे यहां कहा गया है, उसका अर्थ न्यायाधीशों के खिलाफ हमला करना था।''
सत्य की रक्षा
न्यायालय ने यह माना है कि सत्य के औचित्य को एक वैध बचाव के रूप में मानने के लिए, ''एक आधार होना चाहिए''।
इस मामले में, ओझा ने तर्क दिया था कि उनके बयान पूरी तरह से जूनियर वकीलों के सामने आ रही शिकायतों की आवाज थे और उनकी इस मामले में कोई कोई व्यक्तिगत दिलचस्पी नहीं थी।
इस औचित्य को खारिज करते हुए न्यायालय ने उल्लेख किया कि ओझा ने जिन पांच मामलों के लिए बहुत हंगामा मचाया था, उन सभी के संबंध में रिकाॅर्ड से पता चला है कि यह सभी आरोप सच नहीं थे।
अदालत ने टिप्पणी करते हुए कहा कि, ''यहां तक कि इन पांच मामलों की स्थिति रिपोर्ट भी इन आरोपों को गलत साबित करती है ... इसलिए प्रतिवादी आरोपों के समर्थन में सच्चाई दिखाने में सफल नहीं हुआ है।''
यह भी माना गया कि भले ही अधिवक्ताओं को कुछ शिकायतें थी और उनको अध्यक्ष ने वास्तव में वास्तविक भी महसूस किया था फिर भी ''किसी को भी भ्रष्ट प्रथा के बारे में नहीं फुसफुसाना चाहिए था या यह नहीं कहना चाहिए था कि सिस्टम केवल अमीर और संसाधन वालों लोगों के लिए है।''
न्यायालय की राय थी कि लाइव कॉन्फ्रेंस के दौरान दिए गए इस तरह के ''गंभीर और अनर्गल बयान'' ओझा के अपने ''दिमाग की उपज'' थे।
पीठ ने जोर दिया कि,
''अगर यह कनिष्ठ अधिवक्ताओं के लिए वास्तविक चिंता का परिणाम था, तो उन जमीनी वास्तविकताओं की पूरी तरह से अवहेलना नहीं की जा सकती थी, जो कि लॉकडाउन के उन शुरुआती महीनों में थी।''
बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंधों को दोहराते हुए, अदालत ने कहा कि ओझा एक वकील होने के नाते, ''सभी कानूनों को बेहतर तरीके से जानने थे।''
कोर्ट ने संजय नारायण, एडीटर-इन-चीफ,हिंदुस्तान टाइम्स एंड अदर्स बनाम हाईकोर्ट आॅफ इलाहाबाद, (2011) 13 एससीसी 155 के मामले में शीर्ष अदालत के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि,
''भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में संप्रभुता, भारत की अखंडता, राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता व अदालत की अवमाना और मानहानि के हित पर भी विचार करना होता है। इसलिए इस शक्ति का सावधानीपूर्वक उपयोग करना चाहिए। यह भी कहा गया है कि न्यायालयों की गरिमा, न्याय प्रशासन में लोगों के विश्वास को असत्यापित रिपोर्टिंग के आधार पर समाप्त नहीं किया जाना चाहिए। हर किसी को प्रकाशन से पहले तथ्यों को सत्यापित करने और रिपोर्ट किए जाने वाले विषय पर कुछ शोध करनी चाहिए।''
अच्छे काम कोर्ट पर हमला करने का लाइसेंस नहीं
ओझा की ओर से दायर एक अतिरिक्त पत्युत्तर हलफनामे में, उन्होंने बार और संस्थान के हित में खड़े होने के संदर्भ में अपने ''तारकीय रिकॉर्ड'' का उल्लेख किया था, कभी-कभी अपने व्यक्तिगत लाभ को दांव पर लगाकर भी।
हालाँकि, न्यायालय का मत था कि ''किसी भी गैर-कानूनी कार्य की अनुमति नहीं दी जा सकती है और न ही उनके अच्छे कार्यों को अदालत पर हमला करने का लाइसेंस माना जा सकता है। न्यायालय द्वारा यह देखे जाने की आवश्यकता है, अगर कोई भी अदालत पर हमला करने का प्रयास करता है तो उसकी गंभीरता की जांच करनी होगी।''
न्यायालय ने एक बार फिर याद दिलाया कि अधिवक्ता भी कानूनी प्रणाली का एक हिस्सा हैं और उनकी तरफ से कभी भी ऐसी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, जो या तो आत्मविश्वास को कम कर दे या लोगों के विश्वास को हिला देने की प्रवृत्ति की हो।
पीठ ने कहा कि,
''वर्तमान समय में, जब दुनिया आगे बढ़ रही है और न्यायिक वितरण प्रणाली के एक अभिन्न अंग के रूप में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) को शुरू करने और उसका पालन करने के लिए सभी संभव प्रयास किए जा रहे हैं, ऐसे में आगे बढ़ रही प्रणाली को मजबूत करने के लिए कानूनी बिरादरी के पास वर्तमान से बेहतर अवसर क्या हो सकता है?
यहां तक कि ऐसे किसी भी प्रयास में स्वस्थ आलोचना भी स्वागत योग्य है, लेकिन इसके बजाय, यहां जो कुछ भी पाया जा रहा है, वह यह है कि दिन-रात काम कर रहे कोर्ट के सैकड़ों कर्मचारियों के लिए थोड़ी सी भी परवाह नहीं की गई है,जो यह सुनिश्चित करने के लिए काम कर रहे हैं कि न्याय का वितरण बंद न हो पाए और इसके लिए अपने व्यक्तिगत जीवन और महामारी के समय में घर पर अपने परिजनों के जीवन को भी खतरे में ड़ाल रहे हैं। इन सबके बदले में उन्हें भ्रष्टाचार, पक्षपातपूर्ण और भेदभाव करने के गंभीर आरोप मिले हैं,वो भी बिना किसी वैध और न्यायसंगत आधार के।''
यह जोड़ा गया,
'' अभी भी सिस्टम अचानक से आए इस संक्रमण से निपटने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से सुनवाई करने और ई मोड के जरिए फाइलिंग के माध्यम से काम करने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है, इसलिए सिस्टम को बार और बेंच दोनों के समर्थन की जरूरत है।
हालाँकि, इस आवश्यक कर्तव्य के प्रति पूर्ण अवहेलना करते हुए राज्य बार एसोसिएशन के लीडर के रूप में संस्थान के आधार को हिलाने के लिए उन्होंने संदेह, अशांति, असहमति और न्यायालय में काम करने वालों के प्रति असम्मान पैदा की हर संभव कोशिश की है। इसलिए इनसे कड़े हाथों से निपटने की जरूरत है।''
पृष्ठभूमि
18 जुलाई को, हाईकोर्ट ने वर्ष 1999 के पूर्ण न्यायालय के उस फैसले को वापिस ले लिया था,जिसके तहत ओझा को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया गया था।
इस मामले में कार्रवाई का कारण जून में ओझा द्वारा आयोजित एक फेसबुक लाइव सम्मेलन था। इस लाइव सम्मेलन में ओझा ने आरोप लगाया था कि हाईकोर्ट रजिस्ट्री भ्रष्ट प्रथाओं का पालन कर रही है और हाई प्रोफाइल उद्योगपतियों व तस्करों के पक्ष में अनुचित उपकार दिखाया जा रहा है।
हाईकोर्ट ने ओझा के बयानों पर संज्ञान लिया और अवमानना की कार्यवाही शुरू करते हुए कहा था कि-
''बार का अध्यक्ष होने के नाते ओझा ने अपने निंदनीय, अविवेकी व बेबुनियादी बयानों के माध्यम से हाईकोर्ट की प्रतिष्ठा और महिमा को गंभीर नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया है और स्वतंत्र न्यायपालिका के रूप में भी पूरे प्रशासन की छवि को कम करने का प्रयास किया है और पूरी प्रशासनिक विंग के बीच भी हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पैदा किया है। इसलिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 215 के तहत प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करते हुए यह अदालत उसे प्रथम दृष्टया अदालत की अवमानना अधिनियम की धारा 2 (सी) के अर्थ के तहत इस न्यायालय की आपराधिक अवमानना के लिए जिम्मेदार मानती है और एक्ट की धारा 15 के तहत उसके खिलाफ ऐसे आपराधिक अवमानना पर संज्ञान लेती है।''
पीठ ने कहा था कि ओझा ने निराधार और असत्यापित तथ्यों के आधार पर हाईकोर्ट की रजिस्ट्री को निशाना बनाते हुए हाईकोर्ट प्रशासन की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया था।
हालांकि ओझा ने अवमानना नोटिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसकी याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था। साथ ही उसे कहा था कि वह हाईकोर्ट के समक्ष अपना पक्ष रखें।
ओझा ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि वह हाईकोर्ट के खिलाफ की गई अपनी टिप्पणी के लिए ''बिना शर्त माफी'' मांगने को तैयार है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बार के लीडर के रूप में, ओझा के पास अधिक जिम्मेदारी थी। इसीलिए उनको वकीलों की शिकायतों को व्यक्त करने में संयम बरतना चाहिए था। शीर्ष अदालत ने मामले की मैरिट पर कुछ भी व्यक्त नहीं किया था और कहा था कि यह उचित होगा कि पहले हाईकोर्ट ओझा की माफी पर विचार करते हुए इस मुद्दे से निपटे।
बाद में, ओझा ने हाईकोर्ट के समक्ष बिना शर्त माफी मांगी थी,परंतु 26 अगस्त को पूर्ण न्यायालय ने इस माफी को खारिज कर दिया था। पूर्ण न्यायालय का विचार था कि ओझा ने यह माफी उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने और उनका वरिष्ठ पदनाम वापिस लेने के बाद मांगी है।
इसके बाद, इस मामले में डिवीजन बेंच ने भी ओझा के माफीनामे को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि उनकी माफी में ''ईमानदारी'' की कमी है।
विशेष रूप से, ओझा ने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी,जिसके तहत उनका वरिष्ठ पदनाम वापिस ले लिया गया था। इस मामले को 29 सितंबर को निर्देश के लिए सूचीबद्ध किया गया था लेकिन वर्तमान कार्यवाही के चलते उस मामले को स्थगित कर दिया गया था।
पूर्व में ओझा ने जीएचसीएए के अध्यक्ष के रूप में जस्टिस अकिल कुरैशी को गुजरात हाईकोर्ट से बॉम्बे हाईकोर्ट में ट्रांसफर करने का भी जोरदार विरोध किया था। उन्होंन इस ट्रांसफर को ''अनुचित, अन्यायपूर्ण और न्यायविरूद्ध'' करार दिया था।
न्यायमूर्ति कुरैशी को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की सिफारिश पर कार्रवाई करने में केंद्र सरकार द्वारा की गई देरी के खिलाफ भी,उनके नेतृत्व में एसोसिएशन ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
जून में, उन्होंने जीएचसीएए के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था क्योंकि अदालतों को फिजिकल हियरिंग के लिए फिर से खोलने के संबंध में एसोसिएशन के पदाधिकारियों के बीच मतभेद हो गया था। ओझा ने मुख्य न्यायाधीश विक्रम नाथ को एक पत्र भेजा था,जिसमें उन्होंने आग्रह किया था कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हाईकोर्ट के कार्य को ''पूर्ण रूप से'' चलाया जाए और सभी मामलों को सुनने की अनुमति दी जाए।
बाद में, उन्होंने कई सदस्यों के अनुरोध के बाद अपना इस्तीफा वापस ले लिया था।