अर्नब गोस्वामी को जमानत नहीं, अंतर‌िम याच‌िका पर फैसला सुरक्षित, बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा, जमानत के लिए सत्र न्यायालय में कर सकते हैं आवेदन

LiveLaw News Network

7 Nov 2020 6:22 PM IST

  • अर्नब गोस्वामी को जमानत नहीं, अंतर‌िम याच‌िका पर फैसला सुरक्षित, बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा, जमानत के लिए सत्र न्यायालय में कर सकते हैं आवेदन

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने रिपब्लिक टीवी प्रमुख अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के खिलाफ दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर अपने आदेश को सुरक्ष‌ित रख लिया है। अर्नब को 2018 के आत्महत्या के मामले बुधवार को गिरफ्तार किया गया था, जिसके बाद कोर्ट ने उन्हें 14 दिनों की न्याय‌िक रिमांड पर भेज दिया था। गिरफ्तार और रिमांड के खिलाफ उसने बॉम्‍बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की है।

    शनिवार को आयोजित विशेष सुनवाई में, जस्टिस एसएस शिंदे और एमएस कार्णिक की खंडपीठ ने अंतरिम राहत के लिए तत्काल आदेश पारित करने से इनकार कर दिया।

    छह घंटे तक चली सुनवाई के बाद पीठ ने कहा, "हम आज आदेश पारित नहीं कर सकते। पहले से ही छह बज चुके हैं।। इस बीच हम यह स्पष्ट करते हैं कि याचिका का लंबित होना याचिकाकर्ता को सत्र न्यायालय में जमानत के लिए आवेदन करने से रोकता नहीं है और यदि ऐसा आवेदन दायर किया जाता है, तो उस पर चार दिनों के भीतर फैसला किया जाना चाहिए।"

    हालांकि, जब याचिकाकर्ता के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने जोर देकर कहा कि याच‌िकाकर्ता को एक अंतरिम राहत प्रदान की जाए, तो जस्टिस शिंदे ने संकेत दिया कि अदालत ने आदेश को सुरक्षित रखा है और आने वाले सप्ताह में किसी दिन सुनाएगी। उन्होंने आश्वासन दिया कि अदालत जल्द से जल्द आदेश सुनाएगी।

    जस्टिस शिंदे ने कहा, "अदालत स्पष्ट करती है कि मामले के लंबित होने से सत्र न्यायालय के समक्ष जमानत के लिए आवेदन करने में बाधा नहीं है।"

    पीठ अर्नब गोस्वामी की ओर से दायर जमानत अर्जी और बंदी प्रत्यक्ष‌ीकरण याचिका पर सुनवाई कर रही थी। अदालत ने मामले में सह-अभियुक्त एमएस शेख और प्रवीण राजेश सिंह के वकीलों विजय अग्रवाल और निखिल मेंगड़े को भी सुना।

    रिमांड आदेश के खिलाफ याचिका

    राज्य सरकार ने याचिकाओं के सुनवाई योग्य होने पर सवाल खड़ा किया। एडवोकेट अमित देसाई ने दलील दी कि जमानत के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सुनवाई योग्य नहीं है। उन्होंने कहा कि रिमांड के न्यायिक आदेश के खिलाफ याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।

    देसाई ने तर्क दिया, "यदि किसी व्यक्ति को न्यायिक आदेश के तहत हिरासत में रखा गया है, तो बंदी प्रत्यक्षीकरण का रिट जारी नहीं किया जा सकता है...."

    देसाई ने कहा, "याची के पास वैकल्पिक कानूनी उपाय हैं। हम कानून में उपलब्ध उन उपायों के रास्ते में नहीं आ रहे हैं।" उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता को मजिस्ट्रेट से नियमित जमानत की मांग करनी चाहिए। महाराष्ट्र राज्य व अन्य बनाम तसनीम रिजवान सिद्दीकी, 2018 (9) एससीसी 745 पर भरोसा कायम किया गया।

    देसाई ने दलील दी, "अर्नब गोस्वामी मजिस्ट्रेट के 4 नवंबर के आदेश के तहत हिरासत में हैं। मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र को चुनौती नहीं दी जाती है। न्यायिक आदेश होने के नाते, यह विशेष याचिका जीवित नहीं रहेगी।"

    देसाई ने कहा कि अर्नब गोस्वामी को "गैरकानूनी हिरासत" में नहीं रखा गया है। वह न्यायिक आदेश के आधार पर हिरासत में है। उन्होंने कहा कि गोस्वामी ने मूल रूप से मजिस्ट्रेट के समक्ष जमानत की अर्जी दी थी, लेकिन उसे वापस ले लिया गया।

    उन्होंने कहा, "याचिकाकर्ताओं ने जमानत अर्जी वापस लेने का फैसला किया। इसमें राज्य की कोई गलती नहीं है। हम लंबे समय तक के लिए स्थगन नहीं मांग रहे हैं। हम इस बात से भी अवगत हैं कि नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं शामिल हैं।"

    देसाई ने कहा कि याचिकाकर्ता का पूरा मामला अवैध गिरफ्तारी के आरोप पर आधारित है और उन्होंने "अवैध हिरासत" के किसी भी मुद्दे को नहीं उठाया है क्योंकि उन्होंने रिमांड आदेश को चुनौती नहीं दी है।

    देसाई ने कहा, "मजिस्ट्रेट के सामने किसी व्यक्ति को पेश किए जाने से पहले गिरफ्तारी होती है। जिस क्षण आपकी" अवैध गिरफ्तारी" न्यायिक रिमांड में बदल जाती है, गिरफ्तारी का सवाल प्रासंगिक नहीं रह जाता है।"

    उन्होंने कहा, "गिरफ्तारी का मुद्दा हिरासत के मुद्दे से अलग है। अपराध का खुलासा नहीं करने के कारण एफआईआर को रद्द करने का सवाल, अवैध गिरफ्तारी का सवाल और हिरासत का सवाल अलग है। एफआईआर में अपराध का खुलासा नहीं करने सवाल अंतरिम रिहाई के लिए प्रासंगिक नहीं है क्योंकि उन्होंने न्यायिक रिमांड का आदेश को को चुनौती नहीं दी है।"

    दूसरी ओर, अर्नब गोस्वामी की ओर से पेश हरिश साल्वे ने उत्तर प्रदेश के जागिश अरोड़ा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल पत्रकार प्रशांत कनौजिया को हिरासत से रिहा करने का आदेश दिया था।

    साल्वे ने अदालत से कहा, "यह तर्क कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सुनवाई योग्य नहीं हैं, वहां उठा था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया और प्रशांत कनौजिया की हिरासत को रद्द करने का आदेश दिया।"

    दुर्भावना के आरोपों पर

    शुक्रवार को सुनवाई साल्वे ने आरोप लगाया था कि राज्य दुर्भावना के साथ काम कर रहा है। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए, देसाई ने कहा कि दुर्भावाना या द्वेष वास्तव में प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि मजिस्ट्रेट ने रिमांड का आदेश पारित किया है।

    उन्होंने कहा, "रिमांड का आदेश एक न्यायिक कार्य है ... याचिकाकर्ता के पास उचित न्यायालय के समक्ष जमानत मांगने का प्रभावशाली उपाय है। भले ही एक रिमांड आदेश यांत्रिक रूप से पारित किया गया है, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका उपाय उपाय नहीं है ... कानून के रूप में और एक औच‌ित्य रूप में, अदालतों के पदानुक्रम में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए।"

    इसके अलावा, साल्वे द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा में गृहमंत्री के बयान के आधार पर लगाए गए दुर्भावना के आरोप पर देसाई ने तर्क दिया कि उनकी जांच उस घटना से पहले की है।

    उन्होंने बताया, "विधानसभा की चर्चा सितंबर में हुई थी। जबकि इस मामले की प्रक्रिया पहले से ही चल रही थी। मई में दोबारा जांच की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। जून में पुलिस द्वारा बयान लिए गए। इसलिए हरीश साल्वे की दुर्भावना के तर्क निराधार हैं। यह तर्क जांच " पूरी तरह अवैध" है, निराधार है।"

    पीड़‌ित का निष्पक्ष और पूर्ण जांच का अधिकार

    शिकायतकर्ता की दुर्दशा की चर्चा करते हुए, जिसने अपने पिता और दादी को खो दिया, देसाई ने कहा कि वह लगभग एक साल से "न्याय के लिए दरवाजे खटखटा" रही थी।

    उन्होंने कहा, "आज राज्य सबूत जुटाने की प्रक्रिया में है। अनुच्छेद 14 पीड़िता पर भी लागू होता है। पीड़िता को भी निष्पक्ष और पूर्ण जांच का मौलिक अधिकार है ... फरवरी से, पीड़ित (अदन्या नाइक) न्याय के लिए दरवाजे खटखटा रही है। पीड़ित को ट्विटर में क्लोजर रिपोर्ट के बारे में पता चला... याचिकाकर्ता के पास अधिकार हैं, पीड़ित के पास भी अधिकार हैं। यह राज्य का कर्तव्य है कि वह पीड़ित और आरोपी के अधिकारों को संतुलित करे।"

    उन्होंने कहा कि जब जांच चल रही हो तो उसे रोका नहीं जा सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि एक सुसाइड नोट है, जिस पर लोगों के नाम है और इस प्रकार यह एक ऐसा मामला है जिसकी जांच की जानी चाहिए।

    नारायण मल्हारी थोराट बनाम विनायक देवरा भगत पर भरोसा कायम किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्या के एक मामले को रद्द करने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट की आलोचना की थी, जहां सुसाइड नोट में आरोपी का नाम था।

    शिकायतकर्ता की ओर से पेश हुए, सीनियर एडवोकेट सिरीश गुप्ते ने आरोप लगाया कि पिछली जांच एजेंसी ने कठोरता से जांच की थी।

    उन्होंने आग्रह किया, आरोपी (अर्नब गोस्वामी) को रिहा करना, जबकि जांच लंबित है, पीड़ित के साथ अन्याय है। उसे धारा 439 सीआरपीसी के तहत उचित प्रक्रिया का पालन करने दें।"

    साल्वे ने दलील दी कि नाइक परिवार को यह बताना होगा कि उन्होंने न्यायालय से अब संपर्क क्यों किया है, वे अप्रैल 2019 और आज तक क्या कर रहे थे।

    गुप्ते ने न्यायालय से यह भी पूछा कि ऐसी क्या आवश्यकता है कि एक खंडपीठ तीन दिनों से याचिकाकर्ता के मामले में सुनवाई कर रही है, जबकि COVID 19 के दौर में कई याचिकाओं को नहीं सुना गया।

    इस बिंदु पर, जस्टिस शिंदे ने गुप्ते को को टोका और स्पष्ट किया,"अदालत की दो पीठ इस तरह के मामलों की सुनवाई कर रही हैं। जमानत, पैरोल आदि मामलों का निस्तारण एक सप्ताह के भीतर किया जाता है। आज हमने आम सहमति के आधार पर एक विशेष बैठक आयोजित की है।"

    क्या अत्महत्या के लिए उकसाने का मामला बनता है

    शुक्रवार को साल्वे ने तर्क दिया था कि गोस्वामी और मृतक के बीच कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं था और वे केवल एक वाणिज्यिक लेनदेन में शामिल थे। उन्होंने यह भी दलील दी कि आत्महत्या के लिए उकसाने या सहायता देने के लिए अभियुक्त की ओर से सकारात्मक कार्रवाई के बिना, धारा 306 आईपीसी की सामग्री पूरी नहीं होती है।

    इन दलीलों का उल्लेख करते हुए, देसाई ने कहा यह आरोपी के इरादे की जांच करने का चरण नहीं है, खासकर जब आत्महत्या नोट में उसके नाम का उल्लेख है।

    "अदन्या नाइक (शिकायतकर्ता) ने अदालत से कहा है कि उसके परिवार को धमकी भरे कॉल किए गए थे और शिकायतें दर्ज की गई थीं। ये ऐसी परिस्थितियां हैं, जिनकी जांच की जानी चाहिए।"

    एक बंद मामले को फिर से खोलने की पुलिस की शक्ति

    याचिकाकर्ता ने लगातार तर्क दिया है कि 2019 में मजिस्ट्रेट द्वारा मामले में क्लोजर ऑर्डर पारित किए जाने के बाद, पुलिस द्वारा पेश की गई रिपोर्ट के आधार पर, न्यायिक आदेश प्राप्त किए बिना, स्वतः संज्ञान आधार पर मामले को फिर से खोलने की शक्ति पुलिस के पास नहीं है।

    इस पर देसाई ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा उद्धृत की गई मिसालें विशेष किस्म की हैं, यहां तक कि कई ऐसे मामले हैं, जहां अदालत ने आरोप पत्र पर संज्ञान लिया था और मुकदमे के दौरान आगे की जांच की मांग की गई थी।

    यह कहते हुए कि इस मामले में पुलिस द्वारा एक 'सारांश' रिपोर्ट दायर की गई थी, उन्होंने बताया कि यह रिहा करने या बंद करने का मामला नहीं है।

    उन्होंने कहा, "यदि " ए" एक सारांश है, तो इसका मतलब है कि सबूत पर्याप्त नहीं थे, लेकिन अपराध था। यदि यह गलत अभियुक्त का मामला था, तो यह 'बी' सारांश होता।"

    जब मजिस्ट्रेट 'ए' सारांश स्वीकार करता है, तो इसका मतलब है कि अपराध है। यह डिस्चार्ज या क्लोज़र का मामला नहीं है ... इसका मतलब है कि यह अपराध का वास्तविक मामला था लेकिन जांच में साक्ष्य नहीं जुटाए जा सके ... "ए सारांश" अपूर्ण जांच को दर्शाता है। "बी" और "सी" सारांश में, जांच पूरी हो गई है और या कोई अपराध या गलत आरोपी नहीं है। यह भेद महत्वपूर्ण है। "

    उन्होंने आगे कहा कि याचिकाकर्ता की दलीलों को स्वीकार करने से आरोपियों को पकड़ने की पुलिस की स्वतंत्रता पर रोग लगती है।

    देसाई ने कहा, "आतंकवाद का एक मामला लें, जहां सबूत नहीं मिल पा रहे हैं। कुछ समय के बाद, पुलिस मजिस्ट्रेट के सामने 'ए' सारांश दाखिल करती है। कुछ समय बाद, पुलिस को आतंकवादी के सबूत मिलते हैं। क्या पुलिस को उसे गिरफ्तार करने के लिए मजिस्ट्रेट के आदेश का इंतजार करना चाहिए?"

    उसने जोड़ा, "धारा 173 (8) के तहत आगे की जांच करने के लिए जांच अधिकारी की शक्ति और न्यायालय के आदेश की शक्ति अलग है।"

    निर्मल सिंह कहलोन बनाम पंजाब राज्य में भरोसा रखा गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह कहना एक बात है कि निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय के पास पर्यवेक्षण क्षेत्राधिकार होगा, .......लेकिन यह अन्य बात है कि जांच अधिकारी के पास मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना जांच करने का अधिकार क्षेत्र नहीं होगा।

    देसाई ने महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम की धारा 4 का भी उल्लेख किया, जिसके अनुसार पुलिस बल का संचालन राज्य सरकार में निहित और व्यवहार्य है इसलिए तो राज्य सरकार के पास जांच का निर्देश देने की शक्ति है।

    उन्होंने खंडपीठ को बताया कि‌ फिर भी मजिस्ट्रेट, जिसने क्लोज़र का आदेश पारित किया था, को एफआईआर को दोबारा खोले जाने की सूचना दी गई थी ताकि वह मामले की निगरानी कर सके। (सकीरी वासु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य के संदर्भ में)

    उन्होंने कहा कि मामले में मजिस्ट्रेट ने धारा 164 के तहत बयान भी दर्ज किए थे और उन बयानों की रिकॉर्डिंग की अनुमति देने का मतलब है कि मजिस्ट्रेट जांच के खोले जाने के बारे में जानते हैं और उसे मंजूरी दी है।

    सीजेएम के रिमांड आदेश में गिरफ्तारी की वैधता पर अवलोकन

    सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने तर्क दिया था कि सीजेएम अलीबाग द्वारा पारित रिमांड आदेश में "अर्नब गोस्वामी के खिलाफ आरोपों में गुणों की कमी और गिरफ्तारी की अवैधता के बारे में महत्वपूर्ण बिंदु हैं"।

    उस पर देसाई ने अदालत को बताया कि याचिकाकर्ता ने आदेश को चयनात्मक ढंग से पढ़ा है, और मजिस्ट्रेट ने गिरफ्तारी की वैधता या अवैधता पर कोई राय नहीं दी है।

    उन्होंने कहा, "मजिस्ट्रेट ने यह निष्कर्ष नहीं दिया है कि कि गिरफ्तारी गैरकानूनी है। यह तर्क आदेश की गलत व्याख्या करके दिया गया है। आदेश का पैरा 17 स्पष्ट करता है। याचिकाकर्ता केवल पैरा 16 पढ़ते हैं। पैरा 17 में, मजिस्ट्रेट का कहना है कि पैरा 16 में दर्ज अभियुक्तों के वकील द्वारा उठाई गई आपत्तियां अप्रासंगिक हैं।"

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