आरोपों की जांच करना न्यायालयों के लिए आवश्यक, आजकल धारा 498ए के तहत पति के परिवार के सदस्यों के खिलाफ अस्पष्ट आरोप लगाने की प्रवृत्ति बन गई हैः बाॅम्बे हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

22 Oct 2020 3:08 PM GMT

  • आरोपों की जांच करना न्यायालयों के लिए आवश्यक, आजकल धारा 498ए के तहत पति के परिवार के सदस्यों के खिलाफ अस्पष्ट आरोप लगाने की प्रवृत्ति बन गई हैः बाॅम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक महिला के ससुराल वालों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को खारिज करते हुए कहा कि आजकल, पति के परिवार के प्रत्येक सदस्य के खिलाफ अस्पष्ट और सर्वव्यापी आरोप लगाने की प्रवृत्ति बन गई है ताकि हर किसी को भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत आरोपी बनाया जा सके। महिला ने इस मामले में ससुरालवालों के खिलाफ प्रताड़ना का आरोप लगाया था।

    नागपुर पीठ के न्यायमूर्ति जेड.ए हक और न्यायमूर्ति अमित बोरकर की खंडपीठ ने निष्कर्ष निकाला कि न्यायालयों के लिए यह आवश्यक हो गया है कि ''आरोपों की सावधानीपूर्वक जांच करें और यह पता लगाए कि क्या आरोपों के तहत वास्तव में अपराध बनता है और कानून की आवश्यकताओं को कम से कम प्रथम दृष्टया पूरा किया जा रहा है।''

    कोर्ट इस मामले में सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शबनम शेख, उनके पति आरिफ शेख और गनी शेख की तरफ से दायर आपराधिक आवेदन पर सुनवाई कर रही थी। उन्होंने आईपीसी की धारा 498-ए, 324, 506 रिड विद 34 व दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 व 4 के तहत किए गए अपराधों के संबंध में दर्ज एफआईआर की अनुरक्षणीयता चुनौती दी थी।

    शिकायतकर्ता और उसके पति के बीच शादी 25 सितंबर, 2011 को हुई थी। शिकायतकर्ता का पति आरिफ शेख का भाई है। शादी के बाद दोनों ने आवेदकों से अलग घर में रहना शुरू कर दिया था। शबनम शेख और गनी शेख दोनों शिकायतकर्ता की सिस्टर-इन-लाॅ हैं।

    शिकायतकर्ता के अनुसार, शिकायतकर्ता और उसके पति के बीच झगड़े होते थे, इसलिए, शिकायतकर्ता ने एक प्राथमिकी दर्ज कराई थी,परंतु बाद में उनका समझौता हो गया था। इसके बाद, शिकायतकर्ता ने 28 अप्रैल 2012 को उसी पुलिस स्टेशन की महिला सेल में शिकायत दर्ज कराई क्योंकि उसका अपने पति के साथ लगातार झगड़ा हो रहा था। उसने 18 मई 2012 को अपने पति के माता-पिता और भाई के खिलाफ भी उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई थी।

    शिकायतकर्ता ने 28 अप्रैल, 2012 को अपने पति के खिलाफ एक और रिपोर्ट दर्ज की थी, लेकिन संबंधित थाने ने कोई कार्रवाई नहीं की और शिकायतकर्ता को एनसी रिपोर्ट भेजी थी। जिसके खिलाफ शिकायतकर्ता ने न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, नागपुर से संपर्क किया और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत आवेदन दायर किया। जिसके बाद आवेदकों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी।

    शिकायतकर्ता के अनुसार, आवेदक ने अपने पति के साथ मिलकर उसे दहेज के लिए परेशान किया था। इसलिए उसने कई बार अपने साथ हुए उत्पीड़न की शिकायतें पुलिस स्टेशन में दर्ज करवाई थी। इसलिए शिकायतकर्ता ने कहा कि इस आदेवन को खारिज किया जाना चाहिए क्योंकि इसमें कोई मैरिट नहीं है।

    आवेदकों की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता अनिल एस मर्डीकर व साथ में अधिवक्ता एसजी जोशी पेश हुए। वहीं राज्य के लिए एपीपी एमके पठान और शिकायतकर्ता के लिए अधिवक्ता एमएन अली पेश हुए थे।

    सीनियर एडवोकेट मर्डीकर ने तर्क दिया कि पूरे परिवार को फंसाना था,सिर्फ इसीलिए आवेदकों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाई गई थी। प्राथमिकी में, यह कहीं नहीं कहा गया है कि आवेदकों ने कभी भी अपराध के लिए उकसाया था या शिकायतकर्ता या उसके माता-पिता से पैसे की मांग की थी। शिकायतकर्ता और उसके पति अलग रह रहे थे। ऐसे में आवेदकों का शिकायतकर्ता के दिन-प्रतिदिन के मामलों से कोई संबंध नहीं था। एफआईआर में लगाए गए आरोपों को यदि पूरी तरह से स्वीकार भी कर लिया जाए तब भी कथित अपराध का गठन नहीं होता है। ऐसे में आपराधिक कार्यवाही को जारी रखना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।

    एपीपी पठान ने दलील दी कि शिकायत के सबूत प्रथम दृष्टया कथित अपराध का गठन करते हैं। इसलिए न्यायालय को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग नहीं करना चाहिए।

    बेंच ने कहा कि-

    ''क्रूरता, जैसा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए में परिभाषित है, को निम्नलिखित आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिएः

    (1) महिला का उत्पीड़न होना चाहिए;

    (2) उत्पीड़न, किसी भी संपत्ति या मूल्यवान वस्तु की गैरकानूनी मांग को पूरा करने के लिए महिला के साथ या उससे संबंधित किसी भी व्यक्ति के साथ होना चाहिए;

    (3) उत्पीड़न उस स्थिति में भी हो सकता है ,जहाँ पहले से की गई किसी भी मांग को पूरा करने के लिए महिला या उससे संबंधित कोई व्यक्ति असफल रहा हो।

    महिला के साथ होने वाली क्रूरता शारीरिक या मानसिक हो सकती है। हालाँकि, यह कहना कि , जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि, हम भी पुलिस में सेवा दे रहे हैं और हमारे उच्च अधिकारियों के साथ संबंध हैं, को महिला के साथ क्रूरता नहीं कहा जा सकता है।''

    पीठ ने आगे कहा-

    ''आजकल, यह प्रवृत्ति बन गई है कि पति के परिवार के हर सदस्य के खिलाफ अस्पष्ट और सर्वव्यापी आरोप लगा दिए जाएं ताकि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत सभी को आरोपी बनाया जा सकें। इसलिए, न्यायालयों के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह आरोपों की सावधानीपूर्वक जांच करें और यह पता लगाए कि क्या आरोप वास्तव में अपराध का गठन करते हैं और कम से कम प्रथम दृष्टया कानून की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।''

    अंत में, कोर्ट ने एफआईआर को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट के निम्नलिखित निर्णयों पर भरोसा किया-

    मैसर्स इंडियन आॅयल काॅरपोरेशन बनाम मैसर्स एनईपीसी इंडिया लिमटेड एंड अदर्स

    कैलाश चंद्र अग्रवाल बनाम यू.पी. राज्य व अन्य

    के. सुब्बा राव बनाम तेलंगाना राज्य 2018 (14) एससीसी 452

    उक्त आवेदन को स्वीकार करते हुए पीठ ने कहा-

    ''यह सच है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने पर विचार करते समय अदालत को शिकायतकर्ता द्वारा लगाए गए आरोपों की सत्यता की जांच में शामिल नहीं होना चाहिए लेकिन, जब प्राथमिकी दर्ज करवाना आपराधिक न्याय प्रणाली का दुरुपयोग हो तो यह हाईकोर्ट का कर्तव्य बन जाता है कि वह इस तरह के मामलों में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत हस्तक्षेप करें, ताकि न्याय से खिलवाड़ न हो और न्यायिक प्रणाली में लोगों का विश्वास बरकरार रहे। वर्तमान मामले में, सिस्टर-इन-लाॅ और ब्रदर-इन-लाॅ को आरोपी बनाया गया है जबकि उनके खिलाफ क्रूरता के संबंध में कोई विशिष्ट आरोप नहीं लगाए गए हैं, जैसा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए तहत परिभाषित है।''

    आदेश की काॅपी यहां से डाउनलोड करें



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